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श्रृंगार रस परिभाषा
आचार्य भोजराज ने ‘शृंगार’ को ‘रसराज’ कहा है। शृंगार रस का आधार स्त्री-पुरुष का पारस्परिक आकर्षण है, जिसे काव्यशास्त्र में रति स्थायी भाव कहते हैं। जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रति स्थायी भाव आस्वाद्य हो जाता है तो उसे श्रृंगार रस कहते हैं। शृंगार रस में सुखद और दुःखद दोनों प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं; इसी आधार पर इसके दो भेद किए गए हैं-संयोग शृंगार और वियोग श्रृंगार।
(i) संयोग श्रृंगार
जहाँ नायक-नायिका के संयोग या मिलन का वर्णन होता है, वहाँ संयोग शृंगार होता है। उदाहरण-
“चितवत चकित चहूँ दिसि सीता।
कहँ गए नृप किसोर मन चीता।।
लता ओर तब सखिन्ह लखाए।
श्यामल गौर किसोर सुहाए।।
थके नयन रघुपति छबि देखे।
पलकन्हि हूँ परिहरी निमेषे।।
अधिक सनेह देह भई भोरी।
सरद ससिहिं जनु चितव चकोरी।।
लोचन मग रामहिं उर आनी।
दीन्हें पलक कपाट सयानी।।”
यहाँ सीता का राम के प्रति जो प्रेम भाव है वही रति स्थायी भाव है राम और सीता आलम्बन विभाव, लतादि उद्दीपन विभाव, देखना, देह का भारी होना आदि अनुभाव तथा हर्ष, उत्सुकता आदि संचारी भाव हैं, अत: यहाँ पूर्ण संयोग शृंगार रस है।
(ii) वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार
जहाँ वियोग की अवस्था में नायक-नायिका के प्रेम का वर्णन होता है, वहाँ वियोग या विप्रलम्भ शृंगार होता है। उदाहरण-
“कहेउ राम वियोग तब सीता।
मो कहँ सकल भए विपरीता।।
नूतन किसलय मनहुँ कृसानू।
काल-निसा-सम निसि ससि भानू।।
कुवलय विपिन कुंत बन सरिसा।
वारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
कहेऊ ते कछु दुःख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई।।”
यहाँ राम का सीता के प्रति जो प्रेम भाव है वह रति स्थायी भाव, राम आश्रय, सीता आलम्बन, प्राकृतिक दृश्य उद्दीपन विभाव, कम्प, पुलक और अश्रु अनुभाव तथा विषाद, ग्लानि, चिन्ता, दीनता आदि संचारी भाव हैं, अत: यहाँ वियोग शृंगार रस है।