Kerala Plus Two Hindi Textbook Answers Unit 3 Chapter 2 सपने का भी हक नहीं (कविता)
सपने का भी हक नहीं (Text Book Page No. 65-67)
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प्रश्न 1.
मगर नींद के टूटने के पूर्व ही नोटीस बैंक की आ धमकी सपने में। कवि यहाँ किस सामाजिक सच्चाई की ओर इशारा करते हैं?
उत्तर:
गरीब लोग बैंक से कर्ज लेते हैं और उसका भुगतान समय पर नहीं कर पाते हैं। अंत में बैंक से आनेवाली नोटीस की भीषणता में जीने के लिए वे विवश हो जाते हैं। कविता यही सामजिक सच्चाई की ओर प्रकाश डालती है।
अनुवर्ती कार्य
प्रश्न 1.
कविता की आस्वादन टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
हिंदीतर प्रदेशों के लेखकों में डॉ.जे बाबू का महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ है ‘मुक्तधारा’, ‘उलझन आदि। “सपने का भी हक नहीं’ उनकी एक महत्वपूर्ण कविता है। इसमें साधारण से साधारण एक मज़दूरिन की अवस्था का चित्रण है।
एक कमरेवाली झोंपड़ी में रहनेवाली गरीब मज़दूरिन सपने में लीन हो जाती है। सपने में अब वह एक विशाल घर में सो रही है। दो मंज़िलवाली अपने घर में बहुत सारे कमरे हैं। खाने, पीने, सोने से लेकर बैठक, रसोई और पूजा के लिए भी अलग-अलग कमरे हैं। नये घर की छत काँक्रीट की है, दीवार और खिड़की के रंग भी उसने तय किया है। ग्राइन्टर, फ्रिड्ज और मैक्रोवेव सभी से युक्त रसोई अत्यंत शानदार लग रहा है। मगर अचानक सपने में ही एक डरावनी सच्चाई उसके आगे बैंक के नोटीस के रूप में आ धमती है। इसके साथ साथ असकी सारे सपने छिन्न-भिन्न हो जाती है और जाग जाती है।
प्रस्तुत कविता में डॉ.जे बाबू ने एक कड़वी सच्चाई को , यहाँ प्रस्तुत किया है। कवि कह रहे हैं आज के उदारतावादी समाज में साधारण गरीबों को सने का भी हक नहीं है, सपने में भी जीवन की भीषणता और उसके ऊपर लादे कर्ज से वे मुक्त नहीं है। वे चैन से सपना भी नहीं देख सकते। कविता यही सामजिक सच्चाई की ओर प्रकाश डालती है।
Plus Two Hindi सपने का भी हक नहीं (कविता) Important Questions and Answers
प्रश्न 1.
“मगर नींद के खुलने के पूर्व ही नोटिस बैंक की आ धमकी सपने में।” – इस सपने के बारे में युवती.अपनी सहेली को एक पत्र लिखती है। वह पत्र तैयार करें।
- झोंपड़ी में रहकर महल का सपना देखने वाली मज़दूरिन ।
- सामाजिक सच्चाई का कठोर यथार्थ।
- सपना देखना भी डरावना बन जाना।
उत्तर:
इलाहाबाद
18.03.2016
प्यारी सीमा,
ईश्वर की असीम अनुकंपा से मैं यहां खुश हूँ। मेरा विश्वास है तुम भी वहाँ खूश होगी। तुम्हें एक पत्र लिखने के बारे में कई दिनों से मैं सोच रहा हूँ। लेकिन अभी समय मिला है।
एक खास बात बताने के लिए ही मैं यह पग लिख रहा हूँ। हम गरीबों की हालत कभी भी युधारेगी नहीं। कितनी सालों से यह झोंपड़ी में रह रही हूँ। कई महलों में मज़दूरिन बनकर काम कर रही भी हूँ। शायद इसीलिए ही आज मैं ने ऐसा एक सपना देखा जिसमें मैं नया घर बनवा रही हूँ। लेकिन क्या करूँ मित्र, मकान तो पूरा नहीं हो गया और सपने में ही बैंक से नोटिस आ गयी। हम गरीबों का हाल सुधरेगा ही नहीं। हमें सपने देखने का भी हक नहीं है।
मित्र, अपनी लाचारी के कारण ही मैं यह पत्र लिख रही हूँ। इतना लिखकर मैं यह पत्र समाप्त कर रही हूँ। घरवालों से मेरा प्यार और प्रणाम कहना। जवाबी पत्र की प्रतीक्षा में……..
तुम्हारी मित्र,
राधा
(हस्ताक्षर)
सूचनाः
निम्नलिखित कवितांश पढ़ें और प्रश्नों के उत्तर लिखें।
“इक कमरेवाली झोपड़ी में
बच्चों के सो जाने पर
मैं अपनी मन-दीवार पर
अपना विस्तृत घर खींचने लगी।
खाने-पीने-सोने के
अलग-अलग कमरे,
रसोई यदि बूठक के
निकट रखती तो
पूजा का कमरा कहाँ होगा?”
प्रश्न 1.
प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता का अंश है?
(मातृभूमि, सपने का भी हक नहीं, आदमी का चेहरा)
उत्तरः
सपने का भी हक नहीं।
प्रश्न 2.
स्त्री अपना विस्तृत घर कहाँ खींचने लगी?
उत्तरः
स्त्री के मन दीवार पर |
प्रश्न 3.
स्त्री अपने घर में कौन-कौन से कमरे बनवाना चाहती है?
उत्तरः
स्त्री अपने घर में खाने-पीने-सोने के कमरे, रसोई और पूजा का कमरा बनवाना चाहती है।
प्रश्न 4.
हिंदीतर भाषी कविता की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए कवितांश की असावादन-टिप्पणी लिखें।
उत्तरः
हिंदीतर भाषी कवियों में डॉ जे बाबू का महत्वपूर्ण स्थान है। ‘सपने का भी हक नही’ उनकी एक महत्वपूर्ण कविता है। इसमें एक साधारण मजदूरिन की अवस्था का सच्चा चित्रण है।
एक करमेवाली झोंपडी में रहनेवाली गरीब मज़दूरिन नए घर की सपने में लीन हो जाती है। दो मंजिलेंवाली उसकी घर में बहुत सारे कमरे हैं। खाने, पीने, सोने से लेकर बैठक, रसोई और पूजा के लिए भी अलग-अलग कमरे हैं। गरीब मजदूरिन की सपने के माध्यम से एक कड़वी सामाजिक सच्चाई की प्रस्तुति यहाँ हुई है। कवि यह बताना चाहते हैं कि आज के उदारतावादी समाज में साधारण गरीबों को सपने का भी हक नहीं है। जीवन की भीषणता सपने में भी उसके आगे साकार होकर उठी है। वे चैन से सो भी नहीं सकते और सपना भी नहीं देख सकते हैं। यही सामाजिक सच्चाई की ओर यह कविता इशारा करती है।
सूचनाः
निम्नलिखित कवितांश पढ़ें और प्रश्नों के उत्तर लिखें।
काँक्रीट की छत के
नीचे पीले रंग की
दीवारों के मध्य में
खिड़की-दरवाज़े सब रख दिए।
संगमरमर की चमक
ज़मीन पर; उस चमक पर
चमकती मेज़-कुरसियाँ
टी.वी, होम थियेटर बैठक में भाते।
प्रश्न 5.
यह कविता किसकी है?
(कुँवर नारायण, डॉ.जे.बाबु, मैथिलीशरण गुप्त)
उत्तरः
डॉ.जे.बाबु
प्रश्न 6.
खिड़की-दरवाज़े कहाँ है?
उत्तरः
खिड़की-दरवाज़े दीवारों के मध्य में है।
प्रश्न 7.
दीवारों का रंग क्या है?
उत्तरः
दीवारों का रंग पीला है।
प्रश्न 8.
ज़मीन पर किसकी चमक है?
उत्तरः
ज़मीन पर संगमरमर की चमक है।
प्रश्न 9.
बैठक की शोभा बढ़ानेवाली चीजें क्या-क्या हैं?
उत्तरः
मेज़-कुरसी, टी.वी, होम थियेटर आदि बैठक की शोभा बढ़ानेवाली चीजें हैं।
प्रश्न 10.
कवितांश की अस्वादन-टिप्पणी लिखें।
उत्तरः
हिंदीतर भाषी कवियों में डॉ जे बाबू का महत्वपूर्ण स्थान है। ‘सपने का भी हक नही’ उनकी एक महत्वपूर्ण कविता है। इसमें एक साधारण मज़दूरिन की अवस्था का सच्चा चित्रण है।
सपने में बनाई घर की छत काँक्रीट की है। घर के दीवार और खिड़की के रंग भी उसने तय किया है। चमकती संगमरमर से बनी ज़मीन के ऊपर घर की शोभा और शान बढ़ाने के लिए मेज़, कुरसी, होम थियेटर आदि सब कुछ है। आधुनिक सभी सुविधाओं से युक्त घर की सपना वह देखती है।
गरीब मज़दूरिन की सपने के माध्यम से एक कड़वी सामाजिक सच्चाई की प्रस्तुति यहाँ हुई है। कवि यह बताना चाहते हैं कि आज के उदारतावादी समाज में साधारण गरीबों को सपने का भी हक नहीं है। जीवन की भीषणता सपने में भी उसके आगे साकार हो उठे हैं। वे चैन से सपना भी नहीं देख सकते हैं। यही सामाजिक सच्चाई की ओर यह कविता इशारा करती है।
सूचनाः
निम्नलिखित कवितांश पढ़ें और प्रश्नों के उत्तर लिखें।
क्रांति के लिए उठे कदम
क्रांति के लिए जले मशाल।
भूख के विरुद्ध भात के लिए
रात के विरुद्ध प्रात के लिए
जुल्म के खिलाफ जीत के लिए
हम लड़ेंगे हमने ली कसम।
प्रश्न 11.
कवि ने किसके के लिए कदम उठाने का आह्वान किया है?
उत्तरः
क्रांति के लिए
प्रश्न 12.
‘शपथ’ शब्द का समानार्थी शब्द कविता से ढूँढें ।
उत्तरः
कसम
प्रश्न 13.
‘हम लड़ेंगे, हमने ली कसम’ – कसम क्या है?
उत्तरः
जुल्म के खिलाफ जीत केलिए लड़ने का कसम हमने लिया है।
प्रश्न 14.
कवितांश की आस्वादन-टिप्पणी लिखें।
उत्तरः
यह हिंदी की एक विख्यात कविता है। इसमें गरीब लोगों की दीन अवस्था का सुन्दर चित्रण हुआ है। कवि कहते हैं – क्रांति के लिए हमें कदम उठाना चाहिए। दूसरों की भूख मिटाने के लिए हमें कर्मनिरत रहना है। जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए हमें ज़रूर शक्तिशाली बनना है। यह एक सुंदर समकालीन कविता है। समकालीन कविताओं में कवि का दृष्टिकोण अत्यंत सुन्दर मात्रा में झलकती है। कविता की भाषा सरल, सरस और जोशीली है।
सपने का भी हक नहीं Profile
हिंदीतर प्रदेश के हिंदी साहित्यकारों में प्रमुख है डॉ जे बाबू । उनका जन्म केरल राज्य के तिरुवनंतपुरम में 1952 को हुआ। मुक्तधारा, उलझन और उलाहना उनकी कविताओं का संकलन है। बिपाशा अखिल भारतीय कहानी पुरस्कार और हिंदीतर भाषी लेखक पुरस्कार से वे सम्मानित हैं।
– डॉ जे बाबू
सपने का भी हक नहीं (कविता) Summary in Hindi
हिंदीतर प्रदेशों के लेखकों में डॉ.जे बाबू का महत्वपूर्ण स्थान है। “सपने का भी हक नहीं’ उनकी एक महत्वपूर्ण कविता है। इसमें साधारण से साधारण एक मज़दूरिन की अवस्था का चित्रण है।
एक कमरेवाली झोंपड़ी में रहकर बडी महत्व की सपना देखनेवाली मज़दूरिन का चित्र अत्यंत मार्मिक है। सपने में भी उसके आगे बैंक की नोटीस दिखाई दे रही है। कवि कह रहे हैं…..
एक कमरेवाली झोंपड़ी में रहनेवाली गरीब मज़दूरिन अपने बच्चों के सो जाने के बाद नींद में पड़ जाती है और सपने में लीन हो जाती है। सपने में अब वह एक विशाल घर में सो रही है। दो मंज़िलवाली अपने घर में बहुत सारे कमरे हैं। खाने, पीने, सोने से लेकर बैठक और रसोई के लिए भी अलगअलग कमरे हैं। वह सोच रही है कि पूजा की कमरा कहाँ रखना है?
पूजा के लिए भगवान को बिठाने की कमया ऊपर की मंजिल में रखना वह चाहती है ताकि उसकी सारी समस्याएँ दूर हो सके। नये घर की छत काँक्रीट की है, दीवार और खिड़की के रंग भी उसने तय किया है।
ज़मीन तो चमकती संगमरमर का है और पूरा घर मेज़, कुरसी, टी.वी, होम-थियेटर जैसे सभी आधुनिक सुविधाओं से भरा है। रसोई तो अत्यंत नवीन है। ग्रानाइटर, फ्रिड्ज और मैक्रोवेव सभी से युक्त रसोई अत्यंत शानदार लग रहा है। सपने के दुमज़िले घर में रहनेवाली मज़दूरिन धूप के फैलने तक सो रही है। मगर अचानक सपने में ही एक डरावनी सच्चाई उसके आगे बैंक के नोटीस के रूप
में आ धमती है। इसके साथ साथ असकी सारे सपने छित्र-भित्र हो जाती है और जाग जाती है।
प्रस्तुत कविता में डॉ.जे बाबू ने एक कड़वी सच्चाई को यहाँ प्रस्तुत किया है। कवि कह रहे हैं आज के उदारतावादी समाज में साधारण गरीबों को सने का भी हक नहीं है, सपने में भी जीवन की भीषणता और उसके ऊपर लादे कर्ज से वे मुक्त नहीं है। वे चैन से सपना भी नहीं देख सकते।
गरीब लोग बैंक से कर्ज लेते हैं और उसका भुगतान समय पर नहीं कर पाते हैं। अंत में बैंक से आनेवाली नोटीस की भीषणता में जीने के लिए वे विवश हो जाते हैं। कविता यही सामजिक सच्चाई की ओर प्रकाश डालती है।
सपने का भी हक नहीं (कविता) Summary in Malayalam