ISC Hindi Previous Year Question Paper 2014 Solved for Class 12
Section-A
Question 1.
Write a composition in Hindi in approximately 400 words on any ONE of the topics given below :- [20]
निम्नलिखित विषयों में से किसी एक विषय पर लगभग 400 शब्दों में हिन्दी में निबन्ध लिखिये :-
(a) आधुनिक युग में विवाह समारोहों पर भारी धन खर्च किया जाने लगा है। आपने अभी-अभी एक ऐसा ही विवाह समारोह देखा है जिसमें अत्यधिक खर्च किया गया। आपके विचार में वहाँ पर किए गए किन-किन खर्चों को किस प्रकार कम किया जा सकता था। विस्तार से लिखिए।
(b) बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है जो विनाश कर डालती है। इस विषय पर एक प्रस्ताव लिखिए।
(c) व्यक्ति की उन्नति में संस्कारों, शिक्षा एवं सामाजिक परिवेश का योगदान होता है। इस विषय का विवेचन कीजिए।
(d) कहा जाता है, उधार लेना और देना दोनों ही गलत हैं। इस विषय के पक्ष या विपक्ष में अपने विचार लिखें।
(e) समय के महत्त्व को जिसने नहीं समझा, वह जिन्दगी की दौड़ में पीछे रह जाता है। इस विषय का विवेचन कीजिए।
(f) निम्नलिखित विषयों में से किसी एक विषय पर मौलिक कहानी लिखिए:
(i) चढ़ते सूरज को सब सलाम करते हैं।
(ii) एक कहानी जिसका अन्तिम वाक्य होगा बस संयुक्त परिवार का यही लाभ होता है।
Answer:
(a)
आधुनिक युग में विवाह समारोह पर भारी धन खर्च।
आधुनिक युग में विवाह समारोहों पर धन बढ़-चढ़कर खर्च करने की होड़ सी लग गई है। इसे केवल धन का अपव्यय ही कहा जा सकता है। वास्तव में विवाह वर-वधू का पवित्र बन्धन है। इसे धन की तराजू में तोलना न्यायसंगत नहीं है। सच्चाई तो यह है कि जिन लोगों पर अधिक धन है उन्होंने धनहीन व्यक्तियों की कन्याओं के विवाह में बड़ी मुश्किलें उत्पन्न कर दी हैं। विवाहोत्सवों पर धन का अन्धाधुन्ध खर्च दूसरे लोगों में हीनता की भावना भरता है।
अभी पिछले महीने 18 फरवरी को मेरे मित्र की बहन के विवाहोत्सव में जाने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। संध्या समय आठ बजे मैं अपने माता-पिता के साथ समारोह में पहुँचा, द्वार पर पहुँचते ही मेरी आँखें मारे चकाचौंध के चमत्कृत हो गईं। ऐसी सजावट मैंने पहले देखी न थी। मुझे अनुभव हुआ कि मेरे मित्र के पिता धन कुबेर से कम नहीं। प्रवेश करते ही पता चला कि एक बहुत बड़े मैदान में अनगिनत भोजन के स्टॉल लगे हुए थे। अधिक भोज्य पदार्थों से आकृष्ट लोग अपनी भोजन की थाली में शौक-शौक में बहुत सारा भोजन, मिठाई परोस लेते, और नहीं खाया जाता तो सारा भोजन कूड़ेदान में फेंक देते थे। मैंने देखा कि लोगों ने महँगी से महँगी पोशाकें पहन रखी थीं। ऐसा प्रतीत होता था मानो कोई वेशभूषा प्रतियोगिता आयोजित की गई हो।
अभी तक मैंने देखा था कि वरमाला के लिए एक ‘स्टेज’ बनाई जाती थी, परन्तु यहाँ एक अलग प्रकार की ‘स्टेज’ थी जो गोल-गोल घूम रही थी, उस पर वर व वधू एक दूसरे के गले में जय माला पहना रहे थे। हाँ एक बात भूल गया मित्र की बहन की बारात बड़ी जोर-शोर से दरवाजे पर आयी। ऐसी भयंकर आतिशबाजी और ऊँचे दर्जे का ‘बैण्ड’ देखकर मैं हक्का-बक्का रह गया। दरवाजे पर दूल्हे का टीका भी बड़ा महँगा सौदा था। तत्पश्चात् बारात अन्दर आई। बैण्ड का जितना शोर था, उससे कहीं अधिक शोर डी.जे. में सुनाई देने लगा। मैं सोचने लगा-महँगा बैण्ड, व्यर्थ की आतिशबाजी और डी.जे., क्या एक विवाह इनके बिना नहीं हो सकता? क्या विवाह के लिए इस ताम-झाम की बहुत आवश्यकता होती है। बल्कि इन सबके शोर से भयंकर ध्वनि प्रदूषण होता है। शान्ति भंग होती है। बात यहीं समाप्त नहीं हो गई। जयमाला के पश्चात् वर-वधू एक स्टेज पर बैठ गये। तभी मैंने देखा एक ऑरकैस्ट्रा पार्टी का आगमन हुआ। उन्होंने अपने मधुर संगीत से लोगों को मुग्ध कर दिया। फिर मेरे माता-पिता ने मुझसे खाना खाकर घर चलने की बात कही। हम लोगों ने खाना खाया और घर आ गये।
मैंने घर आकर कपडे बदले और बिस्तर पर लेट गया, पर नींद कोसों दूर थी। मुझे रह-रहकर यह बात समझ में नहीं आ रही थी कि विवाह जैसे पवित्र बन्धन के लिए इतनी शान-शौकत और धन के अपव्यय की क्या आवश्यकता है। हमारा भारतवर्ष निर्धनों का देश है, जहाँ लोग भूखे मरते हैं। वहीं दूसरी ओर ऐसे विवाहों में टनों भोजन कूड़ेदानों में फेंका जा रहा है। आतिशबाजी, बैण्ड, डी.जे. और आकर्षक सजावट इन सब पर धन खर्च करने की क्या आवश्यकता है? विवाह में मंत्रों की, आशीर्वादों और बधाइयों की आवश्यकता होती है। विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थों की अपेक्षा यदि सीमित संख्या में इन्हें बनवाया जाये तो शायद भोजन की बर्बादी को रोका जा सकता है। हम यदि जीवन में सादगी को अपना सकें तो छोटे नहीं हो जायेंगे, बल्कि महान् बन जायेंगे। इसी धन में से कुछ बचा कर किसी गरीब की कन्या का विवाह कर दें तो शायद ईश्वर के परमाशीष को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि विवाहोत्सवों में हम उतना ही खर्च करें जितना आवश्यक है।
(b)
बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा।
भारतवर्ष पर प्रकृति देवी की सदैव कृपादृष्टि रही है। उसने अपने अनन्त वरदानों से भारत-भूमि को शस्य-श्यामला बनाये रखा है। फसलों और मानव की आवश्यकतानुसार जल की समय-समय पर वर्षा होती है, किन्तु कभी-कभी प्रकृति की दृष्टि टेढ़ी हो जाती है तब नाना प्रकार के उपद्रव प्रारम्भ हो जाते हैं। बाढ़ भी इसी प्रकार की एक आपदा है जो विनाश कर डालती है। कभी-कभी अत्यधिक वर्षा होने से, नदियों में अधिक पानी बढ़ जाने से बाँध टूट जाते हैं। इस स्थिति में पानी की गति इतनी बढ़ जाती है कि मनुष्यों को सँभलने का मौका भी नहीं मिल पाता। हजारों फुट चौड़ी दीवार के बराबर पानी की परत जब उमड़ कर चलती है तो गाँव के गाँव और नगर के नगर नष्ट हो जाते हैं। पानी की इस विनाश लीला को ही बाढ़ कहते हैं।
प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण होता है। बाढ़ आने के पीछे भी ऐसे ही अनेक कारण हैं। वृक्षों की अन्धा-धुन्ध कटाई इसका एक कारण है। मनुष्य अपनी आर्थिक, सामाजिक एवं दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जंगल के जंगल साफ कर रहा है। परिणामस्वरूप प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ रहा है। पेड़ पानी का सन्तुलन बनाये रखने और अपनी जड़ों से पृथ्वी के नीचे से पानी खींच कर सूखे की स्थिति में भी पृथ्वी को गीली रखने में योगदान देते हैं। इससे वर्षा सन्तुलित होती है तथा बाढ़ नहीं आती।।
इसका दूसरा कारण है कि बिजली उत्पन्न करने के लिए तथा जल भण्डारण हेतु बहती हुई नदियों पर बाँध बना दिये जाते हैं। ये बाँध धीरे-धीरे नदियों के जल के घर्षण से कमजोर हो जाते हैं तथा धीरे-धीरे टूट जाते हैं जिससे जलराशि तेजी से बहकर प्रलय का रूप धारण कर लेती है।
यज्ञ होमादि से पर्यावरण शुद्ध रहता है, परन्तु आज के भौतिकवादी युग में इनका महत्त्व नहीं रहा। धर्म के नाम पर लोगों की आस्था समाप्त हो गई है। यही कारण है कि पर्यावरण में असन्तुलन बढ़ने से बाढ़ जैसी आपदाओं में बढ़ोत्तरी हुई है।
जनसंख्या वृद्धि, बाढ़ के प्रकोप का एक अन्य प्रमुख कारण है। यदि भमि पर अत्यधिक दबाव पडता है तो प्राकतिक आपदाएँ जैसे बाढ़, भूकम्प, सुनामी आदि की सम्भावना बढ़ जाती है। मौसम चक्र के अनायास परिवर्तन भी बाढ़ को आमन्त्रित करते हैं। अतिवृष्टि से उथली नदियों का जल भी विशाल रूप धारण कर लेता है।
बाढ़ का प्रभाव अत्यन्त भयानक होता है। बाढ़ से फसलें नष्ट हो जाती हैं जिससे अकाल पड़ने की सम्भावना बढ़ जाती है। मनुष्यों द्वारा बनाये गये सुदृढ़ मकान आदि ध्वस्त हो जाते हैं। मनुष्य बेघर हो जाते हैं। पशु-पक्षी भी बेघर होकर इधर-उधर दौड़ते हुए अपने प्राण गँवा देते हैं। कुछ भूख के मारे तथा कुछ आधारहीनता के कारण अकालमृत्यु के ग्रास बन जाते हैं।
बाढ़ में जंगल, पहाड़, बस्तियाँ जल से भर जाती हैं। जीवजन्तु मरकर सड़ने लगते हैं। जल पूरी तरह प्रदूषित हो जाता है। सीलन व सड़न से जीवाणु उत्पन्न हो जाते हैं जिनसे अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं। चारों और महामारी फैल जाती है, अपार धन-जन की हानि होती है। बाढ़ में चीखते-चिल्लाते लोगों का करुण क्रन्दन सुनकर हृदय विदीर्ण होने लगता है। लोगों का आर्तनाद -बचाओबचाओ की ध्वनि बड़ा ही करुण दृश्य उत्पन्न करता है। जीवन की आशा छोड़कर मनुष्य यहाँ-वहाँ बहता जाता है और असहाय होकर अन्न-जल के अभाव में प्राण त्याग देता है।
वास्तव में बाढ़ प्रकृति की भयावह आपदा है। इससे बचने के लिए हमें हर सम्भव प्रयास करने चाहिए। सर्वप्रथम हमें पेड़ों की कटाई पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए। सरकार ने भी इस ओर ध्यान दिया है। ‘चिपको’ आन्दोलन इसी प्रयास का परिणाम है। यज्ञ होम आदि के द्वारा वातावरण को प्रदूषण रहित बनाना चाहिए। नदियों तथा तालाबों पर अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। जल के भण्डारण के लिए सुरक्षित प्रयास करने चाहिए। शहरों व नगरों के मकान नदियों के किनारों पर बहत ऊँचे होने चाहिए। साथ ही जल के निकास की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। इन सावधानियों के चलते हम कुछ हद तक बाढ़ के प्रकोप से बच सकते हैं।
(c)
व्यक्ति की उन्नति में संस्कारों, शिक्षा एवं सामाजिक परिवेश का योगदान।
निःसन्देह यह बात नितान्त सत्य है कि व्यक्ति की उन्नति में संस्कारों, शिक्षा और सामाजिक परिवेश का योगदान होता है। संस्कारवान व्यक्ति सदाचारी एवं चरित्रवान होता है। एक व्यक्ति के जीवन में चरित्रबल का बहुत महत्त्व होता है। चरित्रहीन व्यक्ति न तो अपना, न समाज का और न ही देश का कभी कल्याण कर सकता है। इसीलिए हमारे धार्मिक शास्त्रों में भी संस्कारों की गरिमा का वर्णन किया गया है। मनुष्य के जन्म के प्रारम्भ से लेकर मृत्यु तक हमारे धार्मिक शास्त्रों में सोलह संस्कारों का वर्णन किया जाता है। जिन्हें मन्त्रों के द्वारा अभिमंत्रित किया जाता है। संस्कारों में पला हुआ व्यक्ति कभी दुराचारी नहीं हो सकता वह ईश्वर में आस्था रखने वाला महान परोपकारी और सबका कल्याण करने वाला होता है। वह संसार के सभी प्राणियों को ईश्वर की सन्तान मानता है। इस आधार पर वह समाज का कल्याण करता हुआ आत्मिक उन्नति करता है।
संस्कार के साथ-साथ मनुष्य का शिक्षित होना सोने में सुहागे का काम करता है। शिक्षा प्राप्त करके व्यक्ति विवेकशील बनता है। वह नीर-झीर विवेकी हंस के समान सद्कार्यों को करके अपने परिवार, समाज एवं देश का कल्याण करता है। अनुकूल सामाजिक परिवेश मानव के पोषण एवं संवर्द्धन में अहम भूमिका निभाता है। संस्कार व्यक्ति को सदाचारी बनाते हैं। आचरण की पवित्रता के महत्त्व एवं प्रभाव को प्रदर्शित करने वाले ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे जिनसे मनुष्य का सिर्फ अपना ही उत्थान नहीं हुआ है, बल्कि उसने अपने समाज व देश की भी उन्नति की है। उनके इन प्रयासों के परिणामस्वरूप समाज में उनका मस्तक गर्व से ऊँचा हो गया।
जब-जब ऐसे व्यक्ति के जीवन में कठिनाइयाँ आती हैं। वह अपने ज्ञान के माध्यम से उनसे संघर्ष करने की क्षमता प्राप्त करता है। धैर्य, सहनशक्ति, आत्मबल तथा दृढ़ इच्छाशक्ति उसकी सारी मुश्किलों को आसान कर देती है। साथ ही समाज का सहयोग उसे मजबूत सम्बल प्रदान करता है। इस प्रकार वह अपने जीवन को सार्थक बनाते हुए अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल होता है। इससे उसकी आत्मिक, आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति होती है। समाज में उसे सम्मान प्राप्त होता है। लोग उसकी पूजा करने लगते हैं। वह दूसरों के लिए आदर्श बन जाता है। ऐसा व्यक्ति कभी अपने समय को व्यर्थ नहीं गँवाता। अपनी कड़ी मेहनत, लगन व ईमानदारी से अपने जीवन को तो सँवारता ही है साथ ही दूसरों का भी उद्धार करता है। वह अपनी शिक्षा के माध्यम से एक शिक्षित समाज का निर्माण करता है। लोगों में परस्पर प्रेम, सद्भावना एवं परोपकार का भाव जाग्रत करता है।
हमारे महापुरुषों ने अपने सदाचारी जीवन से अपना ही नहीं वरन् समाज व देश का कल्याण भी किया। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, राजा राममोहन राय, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, महात्मा बुद्ध, प्रभु यीशु, मदर टेरेसा आदि ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने न केवल समाज का उद्धार किया बल्कि समाज की अनेक कुरीतियों को भी समाप्त किया। सदैव सक्षम व्यक्ति ही इस प्रकार के कार्यों को पूर्ण करने में समर्थ होते हैं। सक्षम वे होते हैं जो संस्कारी एवं शिक्षित होते हैं। ऐसे लोग अपने सद्गुणों से सामाजिक परिवेश को स्वानुकूल बना लेते हैं। इस प्रकार वे अपनी तो उन्नति करते ही हैं, दूसरों का भी उत्कर्ष करने का श्रेय प्राप्त करते हैं।
(d)
“उधार लेना, देना दोनों ही गलत हैं।”
मैं इस विषय के पक्ष में अपने विचार व्यक्त करना चाहूँगी। एक कहावत है
“तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौरि”
अर्थात् अपने पैर उतने ही लम्बे फैलाइये जितनी लम्बी आपकी रजाई है। उससे बाहर पाँव पसारने पर मनुष्य को ठण्ड में सिकुड़ना पड़ता है। यही बात उधार लेने के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है। उधार लेना बुरी आदत है। जो लोग उधार लेते है, उन्हें इसकी लत पड़ जाती है। छोटी-छोटी आवश्यकताओं की पर्ति के लिए भी वे उधार लेते रहते हैं। ऐसा करके वे अपने स्वाभिमान को गिरवी रख देते हैं। समयावधि में उस उधार की भरपाई यदि वे नहीं कर पाते तो उन्हें अपशब्द सुनने पड़ते हैं। निगाहें नीची करके चलना पड़ता है। रातों की नींद उड़ जाती है। गलत कार्य करने पड़ते हैं। यदि वही उधार उन्होंने ब्याज पर लिया है तब तो कहने ही क्या? घर बिकने की नौबत आ जाती है। हर समय घर पर तगादे वाले खड़े रहते हैं। लोगों के बीच बदनामी होती है और लोग मजाक उड़ाते हैं। इन सब बातों को यदि ध्यान में रखा जाये तो किसी भले इन्सान को उधार नहीं लेना चाहिए। हाँ कभी-कभी इन्सान इतना विवश हो जाता है कि उसको उधार लेना आवश्यक हो जाता है, तब सोचसमझ कर एवं वापस करने की सामर्थ्य का ध्यान रखते हुए ही उधार लेना चाहिए। ऐसा करने पर इन्सान का सम्मान बना रहता है, परन्तु इसे आदत नहीं बनानी चाहिए।
उधार देना भी मनुष्य की गलत आदत है। ऐसा व्यक्ति अकारण ही अपने शत्रु उत्पन्न करता है। बुद्धिमान लोग कहते हैं कि यदि उधार किसी विवशता के कारण देना पड़ रहा है तो देकर भूल जाओ उसका कारण यह है कि मनुष्य जरूरत पड़ने पर रो-रोकर पैसा उधार माँगता है, परन्तु लौटाने के लिए उसकी नजर बदल जाती है। वह लडाई-झगडे पर उतारू हो जाता है। आजकल ये बातें बहत सुनाई देती हैं कि पैसा न वापस कर पाने के कारण उस व्यक्ति की हत्या कर डाली। इसलिए एक बार पैसा उधार देना, दुश्मनी मोल लेना है। पैसा उधार देना प्रेम को समाप्त करना है। उधार देने वाले व्यक्ति को जब अपनी मेहनत की कमाई वापस नहीं मिलती तो वह गलत हथकण्डे अपनाता है। इससे दोनों के बीच तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अत: उधार लेना जितना खतरनाक है। उतना खतरनाक उधार देना भी है।
(e)
समय का महत्त्व।
“का वर्षा जब कृषि सुखाने
समय चूकि पुनि का पछताने”
अर्थात् समय पर यदि चूक गये तो जीवन भर पछताना पड़ेगा ठीक उसी प्रकार जैसे खेती सूख जाये फिर वर्षा हुई तो उस वर्षा का कोई महत्त्व नहीं है। मनुष्य का जीवन अमूल्य है। उसके जीवन का एक-एक पल भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। अतः समय का ध्यान मनुष्य को धन से भी अधिक रखना चाहिए। धन तो आता जाता रहता है, परन्तु समय जो बीत जाता है उसे लौटाया नहीं जा सकता है। मानव जीवन में बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था और अन्त में वृद्धावस्था एक बार ही आती है। हर अवस्था का अपना अलगअलग महत्त्व होता है। एक बार बीत जाने पर पुनः उसे नहीं प्राप्त किया जा सकता यदि मनुष्य समय पर असावधान हो गया तो पछताने के अतिरिक्त उसके पास कुछ नहीं रहता। समय की गति बड़ी तीव्र होती है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम समय का सदपयोग करें। उसे पकड कर रखें।
हमें समय के महत्त्व का ज्ञान तब होता है जब स्टेशन पर दो मिनट की देरी के कारण हमारी गाड़ी छूट जाती है। हमें समय का महत्त्व तब समझ में आता है जब डॉक्टर के विलम्ब से पहुँचने पर हमारा कोई अपना मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। हम समय के मूल्य को तब समझ पाते हैं जब अध्ययन किये बिना समय गँवा देते हैं और परीक्षा में असफल हो जाते हैं। इन परिस्थितियों में हमारे पास पछताने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रह जाता। समय को खोकर कोई मनुष्य सुखी नहीं रहता। जूलियस सीज़र सभा में पाँच मिनट देर से पहुँचा और अपने प्राणों से हाथ धो बैठा। अपनी सेना में कुछ मिनट देर से पहुँचने के कारण ही नेपोलियन को नेल्सन से पराजित होना पड़ा था। समय किसी की राह नहीं देखता।
इस समस्या का एक ही समाधान है- हमें अपने कार्य निश्चित समय में पूरे करने चाहिए। काम में देरी हमारी समय के प्रति लापरवाही को दर्शाती है। निश्चित समय पर कार्य पूरा करने पर हमें आत्मसन्तोष तथा प्रसन्नता प्राप्त होती है। हम अपना कार्य पूर्ण करने के पश्चात् दूसरों की सहायता कर सकते हैं। इसके माध्यम से हम समाज का कल्याण कर सकते हैं। यदि हृदय में कोई कार्य करने की इच्छा उत्पन्न होती है तो उसके लिए प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। उसे तुरन्त कर डालना चाहिए। इसी सन्दर्भ में महान संत कबीरदास कहते है-
“काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलै होइगी, बहुरि करैगो कब ॥”
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भी समय के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है “मेरे विचार से एक वस्तु का महत्त्व सर्वाधिक है-वह है समय की परख। यदि आपने समय के सदुपयोग की कला सीख ली है तो पुनः आपको किसी प्रसन्नता या सफलता की खोज में मारे-मारे भटकने की आवश्यकता नहीं। वह स्वयं आपका द्वार खटखटायेगी।” वास्तव में समय का सदुपयोग ही जीवन में सफलता की कुंजी है।
आज तक संसार में जितने महापुरुष हुए सबने समय के महत्त्व को समझा और उन्होंने समय के एक-एक क्षण का सदुपयोग किया। शंकराचार्य का उदाहरण हमारे सामने है। उन्होंने अल्प समय में ही सम्पूर्ण वेद-वेदान्त का ज्ञान प्राप्त कर लिया। ऐसे उच्चकोटि के ग्रंथ लिखे जिन्हें समझने के लिए लोगों को जीवन भर साधना करनी पड़ती है।
यूरोप और पश्चिम के अन्य राष्ट्रों की उन्नति का रहस्य ही यह है कि वहाँ समय को व्यर्थ नहीं गँवाते। विद्यार्थियों के लिए समय अमूल्य निधि है। उनका प्रत्येक कार्य निश्चित समय पर होना चाहिए। बुद्धिमान विद्यार्थी कभी भी अपने समय को व्यर्थ नहीं गँवाते इसलिए उन्हें कभी पछताना नहीं पड़ता।
प्रत्येक व्यक्ति को समय के महत्त्व को समझ कर सदैव निश्चित समय पर कार्य करना चाहिए ताकि जीवन में पछताना न पड़े।
(f) (i)
“चढ़ते सूरज को सलाम”
उत्कर्ष सदैव पूजनीय और आदरणीय होता है। प्रात:काल जब सूर्य उदित होता है। हर व्यक्ति सूर्य के दर्शन कर ॐ सूर्याय नमः कहता है, क्योंकि यह सूर्य का उत्कर्ष काल है। संध्या समय ढलते सूर्य को कोई नमस्कार नहीं करता। यह संसार का शाश्वत नियम ही है कि यहाँ चमत्कार को नमस्कार किया जाता है।
इस उक्ति से सम्बन्धित एक कहानी अचानक मेरे मस्तिष्क में आयी। मेरी कॉलोनी में एक वैश्य परिवार रहता था। उनके चार पुत्र व एक पुत्री थी। अच्छे समृद्ध व सम्पन्न व्यक्ति थे। सबके साथ उनका सद्व्यवहार था। अचानक उनका व्यापार ठप्प हो गया। उन्होंने बहुत सँभालने की कोशिश की, किन्तु कोई उपाय नहीं निकला। परिवार के सभी सदस्य इस अचानक आयी आपदा से चिन्तित हो गये, परन्तु सेठ जी हिम्मत हारने वालों में से नहीं थे। उनके सभी पुत्र बहुत आज्ञाकारी थे साथ ही उनकी स्त्री बहुत संस्कारी एवं अन्य सदस्य भी अच्छे थे। सेठजी ने अपने दो बड़े पुत्रों को विदेश में कारोबार के लिए भेजा। दो छोटों को अपने स्थानीय कारोबार में ही मेहनत से कार्य पर लगा दिया। स्वयं भी किसी दूसरे व्यक्ति के यहाँ काम पर लग गये। जब लोगों को उनकी इस खराब हालत का पता चला तो वे सब उन्हें खराब निगाहों से देखने लगे, परन्तु सेठजी जानते थे कि यह सब दिनों का फेर है। मनुष्य के जीवन में सुख व दु:ख छाया माया की तरह आते ही रहते हैं, परन्तु उसे सुख में उछलना नहीं चाहिए और दुःख में विचलित नहीं होना चाहिए। उसे हर परिस्थिति में धीरज रखना चाहिए।
‘सेठ जी ने इस गरीबी को प्रभु का आशीर्वाद समझा और आनन्दपूर्वक परिश्रम में लग गये। भोजन मिलता तब भी प्रसन्न और नहीं मिलता तब भी प्रसन्न, परन्तु उनके मित्र और सम्बन्धियों के व्यवहार से वह बहुत दुःखी होते थे।
दिन बदले, परिस्थितियाँ बदलों। दोनों बड़े बेटों को व्यापार में लाभ हुआ वे बहुत सारा धन लेकर अपने पिताजी के पास आये। पिताजी ने उस धन को लेकर तिजोरी में रख दिया। धीरे-धीरे छोटे बेटों की भी उन्नति होने लगी। उनका कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा। फलस्वरूप पुन: उनका परिवार सम्पन्नता की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। उनके रहन-सहन, खान-पान, वेष-भूषा सबमें अन्तर दिखाई देने लगा।
अब आस-पास के लोग मित्रगण व सम्बन्धियों को भी अपनी भूल का अहसास होने लगा। अब वे सब सेठजी से मिलने के अवसर ढूँढ़ने लगे। सेठजी उनकी अवहेलना करते तब भी वे उनसे मिलने का प्रयास करते, क्योंकि अब उन्हें पता चला गया था कि सेठजी अब सम्पन्न हो गये हैं। सेठजी स्वभाव से सरल, सहनशील एवं बहुत ही धैर्यवान थे। रास्ते में लोग उन्हें सलाम, प्रणाम, राम– राम और नमस्कार करते, परन्तु सेठजी का एक ही उत्तर होता था-“ठीक है भैया कह देंगे। जब कई दिन इसी बात को बीत गये तब उनके एक मित्र ने उनसे पछा कि प्रणाम कहने पर तम ऐसा क्यों कहते हो कि “भैया कह देंगे।” सेठजी की इस मित्र से बहुत आत्मीयता थी, क्योंकि संकट की घड़ी में भी वह उनके साथ था। सेठजी ने बड़ी सरलता से उत्तर दिया भैया ! ये सब मुझे नहीं मेरी सम्पन्नता को प्रणाम कर रहे हैं। इसीलिए मैं उनसे कहता हूँ कि मैं तुम्हारी राम-राम नमस्ते, प्रणाम और सलाम सब तिजोरी से जाकर कह दूँगा। मित्र ! यह संसार बड़ा स्वार्थी है यह हमेशा चढ़ते सूरज को ही सलाम करता है।
(ii)
संयुक्त परिवार का लाभ।
परिवार न केवल मानव-जीवन के प्रवाह को जारी रखने वाला अखण्ड स्रोत है, बल्कि मानवोचित गुणों की प्रथम पाठशाला भी है। परिवार को “सामाजिक जीवन की अमर पाठशाला”, “सामाजिक गुणों का पालना” तथा “सब सामाजिक गुणों” का विद्यालय आदि कहा गया है इस प्रकार परिवार मानव समाज की आधारभूत एवं सार्वभौमिक सामाजिक संरचना है।
भारत में परिवार की प्रकृति आदिकाल से ही संयुक्त रही है। इसके अन्तर्गत समस्त कुटुम्बीजन सम्मिलित रूप से एक ही मकान में निवास करते थे वहाँ पर एक पितृसत्ता होती थी। बड़े-बूढों का सम्मान होता था। उस परिवेश में प्रेम, सहयोग, सहानुभूति एवं परस्पर त्याग की भावना पूरे कुटुम्ब को एक सूत्र में बाँधे रखती थी। परिवार की पुष्पवाटिका बच्चों, प्रौढ़ों और बूढ़ों से सदैव दमकती रहती थी।
ऐसे ही संयुक्त परिवार का जीता जागता उदाहरण मेरी ही कॉलोनी में मुझे देखने को मिला, जिसे देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है।
मेरे घर के सामने व्यवसायी परिवार रहता है। मेरे विचार से यह एक सुदृढ़, सन्तुष्ट व व्यवस्थित संयुक्त परिवार है। मुख्य रूप से इनके स्तम्भ समान माता-पिता बड़े बुद्धिमान, समदर्शी एवं समान व्यवहार करने वाले व्यक्ति हैं। उनके तीन पुत्र हैं। कोई पुत्री नहीं है। उनका व्यवसाय बहत बडा है। तीनों पत्रों का उसमें सबल सहयोग है। सबसे बड़े पुत्र के तीन पुत्र हैं। तीनों विवाहित हैं। दूसरे पुत्र के दो पुत्र एक पुत्री है। बड़े पुत्र का विवाह हो चुका है। तीसरे पुत्र के तीन पुत्रियाँ और एक पुत्र है। बड़े पुत्र के तीनों पुत्रों के पास एकएक बेटा व एक के पास एक बेटी है। कहने का अभिप्राय यह है कि उनकी तीसरी पीढ़ी के भी चार बच्चे हो चुके हैं। सेठजी का प्रबन्ध इतना सही है कि कभी किसी के चेहरे पर मनमुटाव की झलक दिखाई नहीं पड़ती।
परस्पर भाइयों में, नाती-पोतों में अपरिमित प्यार दिखाई देता है। घर में कोई उत्सव हो या विवाह आदि विशेष तौर पर घर की सभी स्त्रियाँ सजी-सँवरी और खिली-खिली दिखाई देती हैं। आये दिन उनके यहाँ धार्मिक आयोजन होते रहते हैं। सबमें एक अलग ही जोश दिखाई देता है। बड़ों के प्रति सम्मान की भावना छोटों के प्रति प्यार यहाँ बरसता दिखाई देता है। महाकवि तुलसीदास ने लिखा है”जहाँ सुमति तहँ संपत नाना, जहाँ कुमति तहाँ विपति निदाना” . इसका जीता जागता उदाहरण इस परिवार में देखने को मिलता है। इस परिवार के बड़े लोग हरेक की इच्छाओं का ध्यान रखते हैं।
सबको सब कुछ समान रूप से मिलता है, यही कारण है कि किसी में ईर्ष्या या भेदभाव नहीं है। परिवार के मुखिया स्वरूप माता-पिता ने सभी बच्चों को ऐसे संस्कार प्रदान किये हैं कि उनमें एक दूसरे के प्रति केवल आत्मीयता ही दिखाई देती है। घर में लगभग इक्कीस सदस्य हैं, लेकिन आपस में प्यार देखते ही बनता है। यही कारण है कि उनके घर में सदैव सुख-समृद्धि बनी रहती है। सुख का आनन्द भी सब मिलकर लेते हैं और दुःख को भी सब मिलकर बाँटते हैं… बस संयुक्त परिवार का यही लाभ होता है।
Question 2.
Read the following passage and answer the questions that follow : –
निम्नलिखित अवतरण को पढ़कर, अन्त में दिये गये प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
परोपकार प्रकृति का सहज स्वाभाविक नियम है। जलवायु, मिट्टी, वृक्ष, प्रकाश, पशु, पक्षी आदि प्रकृति के सभी अंग किसी न किसी रूप में दूसरों की भलाई में तत्पर रहते हैं।
अर्थात् वृक्ष परोपकार के लिये फलते हैं, नदियाँ परोपकार के लिये बहती हैं, गाय परोपकार के लिये दूध देती है। यह शरीर भी परोपकार के लिये है। वास्तव में जब प्रकृति के जीव-जन्तु निःस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई में तत्पर रहते हैं तब विवेकशील प्राणी होते हुए भी मनुष्य यदि मानव जाति की सेवा न कर सके तो जीवन सफलता के लिये कलंक स्वरूप है। मनुष्य होते हुए भी मनुष्य कहलाने का उसे कोई अधिकार नहीं है।
परोपकार ही मानवता का सच्चा आदर्श है। यही सच्ची मनुष्यता है। राष्ट्रकवि गुप्तजी ने यह कहा कि “वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिये मरे।” मनुष्य वही है जो केवल अपने सुख-दुःख की चिन्ता में लीन नहीं रहता, केवल अपने स्वार्थ की ही बात नहीं सोचता, जिसका शरीर लेने के लिये नहीं देने के लिये है। उसका हृदय सागर की भाँति विशाल होता है, जिसमें समस्त मानव समुदाय के लिये प्रेम से भरा स्थान रहता है। सारे विश्व को वह अपना परिवार समझता है।
सचमुच परोपकार ही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है। यदि किसी मनुष्य के हृदय में त्याग और सेवा की भावना नहीं है, उसका मन्दिरों में जाकर पूजा और अर्चना करना ढोंग और पाखण्ड है। प्रसिद्ध नीतिकार सादी का कथन है कि “अगर तू एक आदमी की तकलीफ को दूर करता है तो वह कहीं अधिक अच्छा काम है, बजाय कि तू हज को जाये और मार्ग की हर एक मंजिल पर सौ बार नमाज पढ़ता जाये।” सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि वह दूसरों के सुख-दुःख की चिन्ता करे, क्योंकि उसका सुख-दुःख दूसरों के सुख-दुःख के साथ जुड़ा हुआ है। इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने स्वार्थ साधन में लिप्त न रहकर दूसरों की भलाई के लिए भी कार्य करे।
बिना किसी स्वार्थ भाव को लेकर दूसरों की भलाई के लिये कार्य करना ही मनुष्यता है। इस परोपकार के अनेक रूप हो सकते हैं। यदि आप शरीर से शक्तिमान हैं तो आपका कर्त्तव्य है कि दूसरों के द्वारा सताये गये दीन-दुःखियों की रक्षा करें। यदि आपके पास धन-सम्पदा है तो आपको विपत्तियों में फँसे अपने असहाय भाइयों का सहायक बनना चाहिए। भूखों को रोटी और निराश्रितों को आश्रय देना चाहिए। यदि आप यह सब कुछ करने में भी असमर्थ हैं तो अपने दुःखी और पीड़ित भाइयों को मीठे शब्दों द्वारा धीरज और सांत्वना प्रदान कीजिए। यही नहीं, किसी भूले हुए को रास्ता दिखा देना, संकट में अच्छी सलाह देना, अन्धों का सहारा बन जाना, घायल अथवा रोगी की चिकित्सा करना, ये सब परोपकार के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। वास्तव में हृदय में किसी के प्रति शुभ विचार भी परोपकार का ही रूप है।
प्राचीनकाल में दधीचि नाम के प्रसिद्ध महर्षि थे। ईश्वर-प्राप्ति ही उनका जैसे लक्ष्य था, परन्तु परोपकार वश उन्होंने देवताओं को वज्र बनाने के लिए अपनी हड्डियाँ तक दान में दे दी थीं। गुरु तेग बहादुर ने परोपकार के लिए अपना शीश औरंगजेब को भेंट कर दिया था।
हमारा कर्तव्य है कि हम प्रकति से शिक्षा लें तथा अपने महापुरुषों के जीवन का अनुसरण करें। नि:स्वार्थ भाव से परोपकार के कार्यों में लगें।
Questions :
(a) परोपकार से आप क्या समझते हैं? गद्यांश के अनुसार किन महापुरुषों ने अपने जीवन का त्याग परोपकार के लिये किया?
(b) प्रकृति के अंग किस प्रकार हमें परोपकार की शिक्षा देते
(c) परोपकारी मनुष्य का स्वभाव कैसा होता है?
(d) परोपकार मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म किस प्रकार होता [4]
(e) गद्यांश के आधार पर बताइए कि परोपकार के महत्त्वपूर्ण अंग कौन-से हैं, किस-किस तरह से परोपकार किया जा सकता है? [4]
Answer 2.
(a) परोपकार प्रकृति का सहज स्वाभाविक नियम है। जलवायु, मिट्टी, वृक्ष, प्रकाश, पशु-पक्षी आदि प्रकृति के सभी अंग किसी-न-किसी रूप में दूसरों की भलाई में तत्पर रहते हैं। वृक्ष परोपकार के लिए फलते हैं, नदियाँ परोपकार के लिए बहती हैं। गाय परोपकार के लिए दूध देती है। यह शरीर भी परोपकार के लिए है। महर्षि दधीचि ने परोपकार वश देवताओं को वज्र बनाने हेतु अपनी अस्थियों का दान दे दिया था। गुरु तेग बहादुर ने परोपकार के लिए अपना शीश औरंगजेब को भेंट कर दिया था।
(b) प्रकृति के अंग जलवायु, मिट्टी, वृक्ष, प्रकाश, पशु-पक्षी आदि निःस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई में लगे रहते हैं।
(d) उदाहरणार्थ वृक्ष फल, नदी जल, सूर्य प्रकाश, वायु प्राणवायु आदि प्रदान कर परोपकार करते हैं।
(c) परोपकारी मनुष्य का स्वभाव नम्र तथा उसका हृदय सागर की भाँति विशाल होता है, जिसमें समस्त मानव समुदाय के लिए प्रेम से भरा स्थान रहता है। सारे विश्व को वह अपना परिवार समझता है। वास्तव में मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म परोपकार है। परोपकारी मनुष्य के हृदय में सच्ची सेवा और त्याग की भावना होती है। वह मन्दिरों में जाकर पूजा व अर्चना करने का ढोंग नहीं करता। इसकी जगह वह किसी असहाय की सहायता करने में अधिक विश्वास करता है। उसका विश्वास हज या तीर्थयात्रा से ज्यादा असहाय लोगों की मदद करने में होता है। बिना किसी स्वार्थ के दूसरों के लिए कार्य करना ही सच्ची मानवता है। यह अनेक रूपों में देखी जा सकती है। शक्तिशाली होने पर दूसरों के द्वारा सताये जाने वाले व्यक्तियों की दुष्टों से रक्षा करना परोपकार है। धनवान धन से, विद्यावान विद्या से, आश्रयवान् आश्रय प्रदान कर, भूखों को भोजन प्रदान करके, बीमारों को औषधि प्रदान कर, दुःखी व पीड़ित भाइयों को धैर्य व सान्त्वना प्रदान कर, किसी भूले को सन्मार्ग दिखाकर संकटग्रस्त व्यक्ति को अच्छी सलाह देकर और अन्धों की लाठी बनकर मनुष्य परोपकार कर सकते हैं।
Question 3.
(a) Correct the following sentences : [5]
निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करके लिखिए:
(i) तुम प्रातःकाल के समय उठकर क्या करते हो?
(ii) मेरी पढ़ाई में बहुत नुकसान हो रहा हैं।
(iii) वह विद्वान लड़की है।
(iv) हमने रात को खूब सोया।
(v) फूलों की सौन्दर्यता देखते ही बनती है।
(b) Use the following idioms in sentences of your own to illustrate their meaning :- [5]
निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ स्पष्ट करने के लिए उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए :
(i) बाल बाँका न होना
(ii) मैदान मारना।
(iii) हाथ तंग होना।
(iv) घर सिर पर उठाना।
(v) खाक में मिलना।
Answer:
(a) (i) तुम प्रात:काल उठकर क्या करते हो?
(ii) मेरी पढ़ाई का बहुत नुकसान हो रहा है।
(iii) वह विदुषी लड़की है।
(iv) हम रात में खूब सोये।
(v) फूलों का सौन्दर्य देखते ही बनता है।
(b) (i) जिसकी रक्षा स्वयं भगवान करते हैं उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।
(ii) यद्यपि मोहन गिरने के कारण पीछे रह गया था तथापि तीव्र गति से भाग कर उसने मैदान मार लिया।
(iii) अभी बहन का विवाह होने के कारण राम के मातापिता का हाथ तंग हो गया है।
(iv) बालक को मनपसन्द खिलौना न मिलने के कारण उसने घर सिर पर उठा लिया।
(v) कुसंगति में पड़कर मेरे मित्र का जीवन खाक में मिल गया।
Section B is not given due to change in present Syllabus.