आवारा मसीहा Summary – Class 11 Hindi Antral Chapter 3 Summary
आवारा मसीहा – विष्णु प्रभाकर – कवि परिचय
कथाकार विष्णु प्रभाकर पहले-पहले ‘प्रेमबंधु’ और ‘विष्णु’ नाम से लेखन करते थे। बाद में ‘प्रभाकर’ भी जुड़ गया। इनका जन्म 1917 ई. में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक गाँव में हुआ; लेकिन बाल्यकाल हरियाणा में गुजरा। वहीं पढ़ाई हुई, उसके बाद नाटक कंपनी में अभिनय से लेकर मंत्री तक का काम किया। मौलिक लेखन के अतिरिक्त विष्णु प्रभाकर 60 से अधिक पुस्तकों का संपादन भी कर चुके हैं। कहानी, उपन्यास, जीवनी, रिपोर्ताज, नाटक आदि विधाओं में रचना की। ‘आवारा मसीहा’ (जीवनी), ‘प्रकाश और परछाइयाँ’, ‘बारह एकांकी’, ‘अशोक’ (एकांकी संग्रह); नव प्रभात, डॉक्टर (नाटक); ढलती रात, स्वप्नमयी (उपन्यास); जाने-अनजाने (संस्मरण) आदि इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
विष्णु प्रभाकर की रचनाओं में स्वदेश प्रेम, राष्ट्रीय चेतना और समाज-सुधार का स्वर प्रमुख रहा जो कि सरकारी नौकरी छोड़ने का कारण बना। ‘आवारा मसीहा’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, दिल्ली में रहकर स्वतंत्र रूप से लेखन-कार्य में रत हैं।
Awara Masiha Class 11 Hindi Summary
1. किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा कि चलो पुराने बाग में घूम आएँ। उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी। शरत् का मन इस बात से बहुत भारी था कि अब वह यहाँ से चला जाएगा। मामा आयु में छोटा था, पर दोनों में मित्रता के बंधन गहराते जा रहे थे। शरत् ने विश्वास दिलाया कि वह यहाँ आता रहेगा। उसे भागलपुर बहुत अच्छा लगता है। “मैं यहाँ का झाऊ का वन नहीं भुला पाऊँगा।” शरत् ने पेड़ पर चढ़ना जरूरी बताया और वह पेड़ पर चढ़ गया।
शरत् को नाना के घर में रहते तीन वर्ष हो गए थे। वह अपनी माँ के साथ यहाँ आता रहता था। जब पहली बार उसकी माँ उसे लेकर आई थी तो नाना-नानी ने उस पर धन तथा आभूषणों की वर्षा की थी। नाना केदारनाथ ने कमर में सोने की तगड़ी पहनाकर उसे गोद में उठाया था। उस परिवार में इस पीढ़ी का वह पहला लड़का था। शरत् के पिता मोतीलाल यायावर (घुमक्कड़) प्रकृति के थे। वे किसी रोज़गार से बँधकर नहीं रह सके। वे अफसर से झगड़कर नौकरी छोड़ बैठते थे। उन्हें नाटक, उपन्यास, कहानी आदि लिखने का शौक था, चित्रकला में भी रुचि थी। उनका सौदर्य-बोध भी क्रम न था। वे मोती जैसे अक्षरों से रचना आरंभ करते थे, पर अंत महत्त्वहीन हो जाता था। उसे बीच में ही छोड़कर नई रचना आरंभ कर देते थे। उनका आदर्श बहुत ऊँचा था। वे कभी कोई रचना पूरी नहीं कर सके। परिवार का भरण-पोषण करना उनके लिए असंभव हो गया। शरत् की माँ भुवन-मोहिनी ने पहले तो पति से कहा-सुना की, पर फिर पिता केदारनाथ से याचना करके वहीं चली गई। मोतीलाल फिर से घर-जँवाई होकर रहने लगे।
2. भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम.ई. स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे। शरत् ने अब तक केवल ‘बोधोदय’ ही पढ़ा था। यहाँ आकर उसे ‘सीता-वनवासं’, ‘ चारुपाठ’, ‘सद्भाव-सद्गुरु’ और ‘प्रकांड व्याकरण’ पढ़ना पड़ा। शरत् का साहित्य से प्रथम परिचय आँसुओं के द्वारा हुआ। वह क्लास में बहुत पीछे था, अतः उसने परिश्रमपूर्वक पढ़ना आरंभ किया। देखते-देखते वह अच्छे बच्चों में गिना जाने लगा।
‘नाना लोग कई भाई थे और इकट्टे रहते थे। अतः मामाओं और मौसियों की संख्या काफी थी। छोटे नाना अघोरनाथ का बेटा मणींद्र उसका सढ़पाठी था। उन दोनों को पढ़ाने के लिए नाना ने अक्षय पंडित को नियुक्त कर दिया था। वे बीच-बीच में सिंह-गर्जना करते रहते थे। एक दिन पंडित जी को बुखार आ गया तो नाना लालटेन लेकर उसे देखने चल पड़े। वे स्कूल के मंत्री के साथ-साथ समाज के नेता भी थे। नाना के जाते ही बच्चे खुशी में अंग्रेजी कविता गाने लगे।
एक दिन एक चमगादड़ बच्च्चों के सिर पर मंडराने लगा। उसे देखकर शरत् और मणि के हाथ खुजलाने लगे। वे लाठी लेकर चमगादड़ पर दौड़े तो लाठी से दीया गिर पड़ा और नाना की आँख खुल गई। मुशाई ने बताया कि बत्ती को देवी ने गिराया है, अत: उसे अस्तबल में ले जाकर बंद कर दिया गया। अगले दिन मामा को प्रसन्न करने के लिए रिश्वत देनी पड़ी। शरत् के बड़े मामा ठाकुरदास सभी बच्चों की शिक्षा की देखभाल करते थे। वे गांगुली परिवार की कट्टरता और कठोरता के सच्चे प्रतिनिधि थे। शरत् शैतानी करने में आगे रहता था। वह स्कूल में भी दुष्टता करने से नहीं चूकता था। वह अन्य लड़कों के साथ मिलकर स्कूल की घड़ी को आगे सरका देता था। कभी-कभी वह एक घंटा आगे हो जाती थी। घड़ी का भार अक्षय पंडित पर था। जब वे तमाखू खाने जगुआ की पानशाला पर जाते तभी घड़ी में छेड़खानी करके उसे आगे कर दिया जाता। एक बार चोरी पकड़ में आ ही गई। शरत् घर में मामाओं का भी नेता बन गया था।
3. शरत् के शौक भी बहुत थे। जैसे-पशु-पक्षी पालना, उपवन लगाना, तितलियाँ पालना आदि। उन्होंने उपवन में तरह-तरह के फूल लगा रखे थे। परंतु उसे ये सब काम लुक-छिपकर करने पड़ते थे। नाना लोग इन्हें पसंद नहीं करते थे। बच्चों को केवल पढ़ने का अधिकार था। उन्हें घर के बरामदे में चिल्ला-चिल्लाकर पढ़ना चाहिए। नियम तोड़ने पर उन्हें दंड दिया जाता था। शरत् सबकी आँखों में धूल झोंकने की कला में कुशल था। छात्रवृत्ति की परीक्षा पास करने के बाद वह अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुआ। तब भी पतंग उड़ाने तथा गुल्ली-डंडा खेलने में रुचि लेता था। वह खिलाड़ी भी था। उसे विद्रोही भी कह सकते हैं। पिता की तरह उसमें सौंदर्य-बोध भी था।
वह पढ़ने के कमरे को खूब सजाकर रखता था। वह जीती हुई चीजों को छोटे बच्चों में बाँट देता था। वह बचपन से ही कम खाता था। अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते समय उसे अपने शरीर का बड़ा ध्यान रहता था। उसका विश्वास था कि तैरने से शरीर बन्ता है। एक बार वह मणि मामा के साथ ताल स्नान करने चला गया। लौटने पर मणि की जमकर पिटाई हुई। शरत् छोटी नानी के परामर्श पर घर के गोदाम में जा छिपा। शरत् को खेलने के साथ पढ़ने का भी शौक था। उसे एक पुस्तक से साँपों को वश में करने का मंत्र मिला था। उसने पुस्तक में बताई एक बेल की जड़ ढूँढ़ निकाली। साँप तो नहीं मिला, पर एक गोखरू साँप के बच्चे का पता चला। शरत् उसे छेड़ने लगा तो उसने अपना फन उठा लिया। तब मणि मामा ने लाठी से उस साँप को मारा।
एक दिन सुरेंद्र मामा के आग्रह करने पर शरत् उसे तपोवन दिखाने ले गया। घोष परिवार के मकान के उत्तर में गंगा के बिल्कुल पास एक कमरे के नीचे नीम और करौंदों के पेड़ों ने उस जगह को घेरकर अंधकार कर रखा था। मनुष्य का उसमें प्रवेश करना कठिन था। वे बड़ी मुश्किल से उसमें घुसे। यह स्थान तपोवन के समान था। शरत् ने अंकगणित में शत-प्रतिशत अंक पाए थे। स्कूल में एक छोटा सा पुस्तकालय था। शरत् ने वहीं से उस समय के प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएँ पढ़ डाली थीं। शरत् में आस-पास के वातावरण का सूक्ष्म अध्ययन की प्रतिभा थी। गांगुली के परिवार में उसकी सहज प्रतिभा को पहचचानने वाला कोई नहीं था।
कथा शिल्पी शरत् चंद्र के निर्माण में कुसुम कामिनी का बहुत योगदान था। शरत् जीवन के अंतिम क्षण तक उन्हें अपना गुरु मानते रहे। नाना के परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना संभव न हो सका। उनके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे। वे बच्चों की शरारतों में मददगार बन जाते थे। वे बच्चों को सुंदर अक्षर लिखना सिखाते थे। वे संवेदनशील थे। घर-जँवाई के रूप में उनकी स्थिति अच्छी न थी।
एक दुर्घटना हो गई। केदारनाथ की पत्नी विंध्यवासिनी को ताँगा उलट जाने से काफी चोट आई। डॉक्टर ने उन्हें कलकत्ता ले जाने को कहा। काफी खर्चे की बात थीप तब तक घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ चुकी थी। केदारनाथ ने मोतीलाल को बुलाकर कहा कि अब तुम्हारा यहाँ रहना संभव नहीं है। देवानंदपुर में जाकर कोई काम करने का प्रयत्न करो। इसीलिए शरत् ने एक दिन पाया कि वह फिर देवानंदपुर लौट आया है। लेकिन लौट आने से पूर्व उसका परिचय गांगुली परिवार के पड़ोस में रहने वाले मजूमदार परिवार के राजू से हो चुका था। राजू के पिता रामरतन मजूमदार डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर होकर भागलपुर आए थे, लेकिन मतभैद होने के कारण त्यागपत्र दे दिया। रामरतन मजूमदार ने अपने सातों बेटों के लिए सात कोठियाँ बनवाई थीं, पर कई कारणों से पुरातनपंथी बंगाली समाज उन्हें क्षमा नहीं कर सका। राजूू और शरत् में पतंग की प्रतियोगिता होती थी। दोनों में मित्रता थी।
4. मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहने वाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय संभ्रांत ब्राह्मण थे। वे जमींदारों के अत्याचारों के सामने दबे नहीं, बैकुंठनाथ ने जमींदार के कहने पर झूठी गवाही नहीं दी थी। एक दिन उनकी हत्या कर दी गई। उनकी पत्नी पति की अंतिम क्रिया करके रातों रात देवानंदपुर अपने भाई के पास चली गई। बड़े होने पर मोतीलाल का विवाह भागलपुर के केदारनाथ गंगोपाध्याय की दूसरी बेटी भुवनमोहिनी के साथ हो गया। मोतीलाल ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद की पढ़ाई के लिए वे पटना कॉलेज चले गए। उनके चचिया ससुर अघोरनाथ उनके सहपाठी थे। मोतीलाल कल्पनाशील थे तो अघोरनाथ कर्मठ, खरे और स्पष्टवादी थे। मोतीलाल की माँ साहसी थी। मोतीलाल की पत्नी शांत प्रकृति की थी। 15 सितंबर, 1876 को उनके घर एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया-शरतचन्द्र। देवानंदुुर एक साधारण सा गाँव है। बालक शरत् का बचपन अभावों में बीता।
5. शरत् जब पाँच वर्ष का हुआ तब उसे पंडित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया। वह स्कूल से कोई-न-कोई शरारत करके घर लौटता था। धीरे-धीरे ये शरारतें बढ़ती चली गई। पंडितजी गुस्सा करते रहते थे। शरत् की शिकायत लेकर जब पंडितजी घर गए तो माँ बोली-पंडितजी, न्याड़ा थोड़ा दुष्ट तो है, पर बड़ा होकर यह भलामानस बनेगा। शरत् की एक संगिनी थी-धीरू। वह करौदों की माला तैयार करती थी और शरत् को भेंट कर देती थी। धीरू उसे पंडित के क्रोध से बचाती थी। एक बार वह आँचल में मूड़ी बाँधकर शरत् के पास ले गई। शरत् मूड़ी खोलकर खाने लगा। उस समय शरत् हुक्का पी रहा था। उसने धीरू की पीठ पर घूँसा मार दिया था अतः शरत् को घर पर माँ के हाथों मार खानी पड़ी।
लगता है कि ‘देवदास’ की पारो, ‘बड़ी दीदी’ की माधवी और ‘श्रीकांत’ की राजलक्ष्मी ये सभी धीरू के ही विकसित रूप हैं। समय बीतता चला गया। बालक-बालिका के आमोद की सीमा नहीं थी। बीच-बीच में मछली का शिकार और नाव खेना भी चलता रहता था। उस दिन जब सरस्वती नदी के घाट पर पहुँचा तो सामने डोंगी पड़ी हुई थी। वह उसे खेता हुआ तीन-चार मील दूर कृष्गपुर गाँव जा पहुँचा। वहाँ रघुनाथ बाबा का प्रसिद्ध अखाड़ा था। वहीं जाकर कीर्तन में हाजिर हो गया। रात को घर लौटना संभव न हो सका। अगले दिन पता लगाते-लगाते मोतीलाल वहाँ जा पहुँचे। यह यात्रा अनायास नहीं थी। यह एक बड़ी यात्रा का आरंभ था।
इन्हीं दिनों गाँव में सिद्धेश्वर भट्टाचार्य ने एक नया बांग्ला स्कूल खोल।। अचानक मोतीलाल को एक जगह नौकरी मिल गई। शरत् भी पिता के साथ कुछ दिन रहा। देवानंदपुर लौटने पर उसे एक शौक और लग गया। उसे मछलियाँ पकड़ने का शौक लग गया। मोहल्ले का नयन बसंतपुर बुआ के पास गया। वहाँ उसकी खूब खातिर हुई। उसे गाय मिली और शरत् को मिली बाँस की कमचियाँ। लौटने में अँधेरा हो गया। बालक शरत् भय से काँपने लगा।
देवानंदपुर लौटकर पथभ्रष्टता और बढ़ गई। अनुशासन के नाम पर यहाँ कुछ नहीं था। फीस तक का जुगाड़ नहीं था। शरत् चोर नहीं था, पर घर में बेहद कंगाली थी। वैसे वह दुस्साहसी और परोपकारी था। उसका प्रमुख साथी था-सदानंद। सदानंद अपने अभिभावकों के मना करने के बावजूद शरत् से मिलता था। गल्प (कहानियाँ) गढ़कर सुनाने की शरत् की प्रतिभा खूब विकसित हो रही थी। 15; वर्ष की आयु में ही वह इस कला में पारंगत हो चुका था। उसकी ख्याति गाँव भर में फैल चुकी थी। शरत् ऐसी बढ़िया कहानी लिखता कि गोपालदत्त का पुत्र अतुल चकित रह जाता।
इस तरह उसने धीरे-धीरे मौलिक कहानी लिखनी शुरू कर दी। सूक्ष्स पर्यवेक्षण की प्रवृत्ति उसमें बचपन से थी ही। गाँव में एक प्राह्मे की विधवा बेटी थी-नीरू। वह बड़ी परोपकारी थी।’शरत् उसे दीदी कहकर पुकारते थे। एक बार इस 32 वर्षीय दीदी की गाँव के स्टेशन का परदेसी मास्टर कलंकित करके न जाने कहाँ भाग गया। गाँव वालों ने दीदी का बहिष्कार कर दिया। वह मरणांसन्न हो गई। शरत् छिपकर उसे देखने जाते थे। जब नीरू मरी तो गाँव के किसी व्यक्ति ने उसकी लाश को नहीं छुआ।
डोम उसे उठाकर जंगल में फेंक आए। सियार-कुत्ते उसे नोंच-नोंचकर खा गए। यहीं उसने ‘विलासी’ कढानी के कायस्थ मृत्युंजय को संपेरा बनते देखा था। वह उसी के स्कूल में पढ़ता था, पर तीसरी कक्षा: से आगे न बढ़ सका। शरत् छिप-छिपकर उसके पास जाता था। उसने साँप पकड़ना, जहर उत्तारने का मंत्र सभी कुछ उसी से सीखा था। पर एक काले नाग को पकड़ते हुए मृत्युंजय चूक गया और मर गया। बाद में विलासी ने आत्महत्या कर ली।
कहानी लिखने की प्रेरणा उन्हें एक अन्य मार्ग से भी मिली। उसने पिता की टूटी अलमारी से ‘हरिदास की गुप्त बातें’ और ‘भवानी पाठ’ निकालकर पढ़ डाली थीं। उसने अपने पिता की लिखी अधूरी कहानियाँ भी खोज निकालीं। पिता का यह अधूरापन उसकी प्रेरक शक्ति बन गया। शरत् के उपन्यास ‘ चरित्रहीन’ की घटनाएँ उसके अपने साथ घटी विधवा वाली घटना ही थी। शरत् की माँ की सहनशक्ति जब जवाब दे गई तो वह काका अघोरनाथ के पास चली गईं। शरत् फिर देवानंदपुर नहीं लौटा। यहाँ उसका सारा जीवन घोर दरिद्रता और अभावों में बीता। इसी दरिद्रता के भयानक चित्र शरत् ने ‘शुभदा’ में खींचे हैं। यातना की नींव में ही उसकी साहित्य-साधना का बीजारोपण हुआ। वह इस गाँव के ऋण से कभी मुक्त नहीं हो सका।
कठिन शब्दों के अर्थ :
- निस्तब्धता = खामोशी (Calmness)।
- यायावर प्रकृति = घुमक्कड़ी स्वभाव (Vagabond)।
- कृतार्थ = संतुष्ट = (Satisfied)।
- अपरिग्रही = किसी से कुछ ग्रहण न करने वाला (not acceptance)।
- स्वल्पाहारी = कम मात्रा में भोजन करने वाला (Less food eater)।
- आच्छन्न = घिरा हुआ (Covered)।
- स्निग्धहरित प्रकाश = ऐसा हरा प्रकाश जिसमें चमक और शीतलता हो (Shining light)।
- आँखें जुड़ाने लर्गीं = आँखों में तृप्ति का भाव (Satisfaction in eyes)।
- पुलक = प्रसन्नता (Happiness)।
- विदीर्ण = भेदना (To break)।
- मनस्तत्त्व = विद्या संबंधी (Relating to education)।
- पारितोषिक = पुरस्कार ( Prize)।
- शाद्वल = नई हरी घास से युक्त (New grass)।
- अपरिसीम = जिसकी कोई सीमा न हो (Unlimited)।
- आजानबाहु = घुटनों तक बाहें हों जिसकी (Hands upto knee)।
- हतप्रभ विमूढ़ = हैरान, कुछ समझ में न आना, आत्मोत्सर्ग, आत्मबलिदान (Sacrifice)।
- सरंजाम = तैयारी, प्रबंध (होना, करना), काम का नतीजा (Arrangement, Result)।
- मूड़ी = मुरमुरे, चावल का भुना रूप (Rice-baked)।
- निरुद्वेग = शांत, उद्वेग रहित (Calm)।
- खिरनियाँ = पीला फल, एक फलवृक्ष (A fruit)।
- कमचियाँ = बाँस की पतली टहनी (Bamboo)।
- निविड़ = घना, घोर (Dense)।
- स्फुरण = काँपना, हिलना, फड़कना (Shivering)।
- गल्प = कथा, कहानी (Story)।
- धर्मशीला = वह स्त्री जो धर्म के अनुसार आवरण करे (Religious woman)।
- पदस्खलन = अपने मार्ग से भटकना, पतन होना (Downfall)।
- अपाठ्य पुस्तकें = न पढ़ी जाने योग्य पुस्तके (Not readable books)।
- अभिज्ता = जानना (To know)।