Class 11 Hindi Antral Chapter 3 Question Answer आवारा मसीहा

NCERT Solutions for Class 11 Hindi Antral Chapter 3 आवारा मसीहा

Class 11 Hindi Chapter 3 Question Answer Antral आवारा मसीहा

प्रश्न 1.
उस समय वह सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य को दुःख पहुँचाने के अलावा भी साहित्य का कोई उद्देश्य हो सकता है।
लेखक ने ऐसा क्यों कहा? आपके विचार से साहित्य के कौन-कौन से उद्देश्य हो सकते हैं?
उत्तर :
लेखक ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि शरत् को छात्रवृत्ति क्लास में जो साहित्य पढ़ना पड़ा था उसका संबंध मनुष्य को केवल दुःख पहुँचाना प्रतीत होता था। उसे ‘सीता-वनवास’, ‘चारु-पाठ’, ‘सद्भाव-सद्गुरु’ और प्रकांड व्याकरण पढ़ना पड़ा। उसे प्रतिदिन पंडितजी के सामने खड़े होकर परीक्षा भी देनी पड़ती थी। इस प्रकार बालक शरत् का साहित्य से प्रथम परिचय आँसुओं फे माध्यम से ही हुआ। उस स्थिति को देखकर यही सोचना पड़ता था कि मनुष्य को दु:ख पहुँचाने के अलावा साहित्य का और कोई उद्देश्य नहीं हो सकता। हमारे विचार से साहित्य के निम्नलिखित उद्देश्य हो सकते हैं :

  • मानवीय गरिमा को स्थापित करना।
  • पहचान दिलाना और जीवन दृष्टि विकसित करना।
  • मानव समाज में संवेदनशीलता की जड़ें गहरी करना।

प्रश्न 2.
पाठ के आधार पर बताइए कि उस समय के और वर्तमान समय के पढ़ने-लिखने के तौर-तरीकों में क्या अंतर और समानताएँ हैं? आप पढ़ने-लिखने के कौन-से तौर-तरीकों के पक्ष में हैं और क्यों?
उत्तर :
अंतर-

  1. उस समय केवल आदर्शवादी पुस्तकें पढ़ाई जाती थीं जबकि वर्तमान समय में बहु-उपयोगी, ज्ञानवर्धक और मनोरंजक पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं।
  2. उस समय शिक्षा देंने वाला व्यक्ति यमराज का सहोदर होता था। तब यह माना जाता था कि विद्या का निवास गुरु के डंडे में है। वर्तमान समय में शिक्षक मार्गदर्शक होता है। वह डंडे का प्रयोग कतई नहीं करता।
  3. तब पढ़ाई के लिए कठोर अनुशासन की आवश्यकता समझी जाती थी।
  4. आज के समय में सहज अनुशासन पर बल दिया जाता है।
  5. आज की शिक्षा में बच्चे के सर्वांगीण विकास पर बल दिया जाता है।
  6. अब शारीरिक दंड देने पर प्रतिबंध है।

समानताएँ :

  1. अंकगणित तब भी महत्त्वपूर्ण विषय था और अब भी है।
  2. अनुशासन का पालन तब भी जरूरी था और वर्तमान समय में भी है।
  3. छात्र तब भी शरारस करते थे, अब भी करते हैं।

हम पढ़ने-लिखने का वर्तमान तरीका अपनाने के पक्ष में हैं, क्योंकि यह-

  1. समयानुकूल है।
  2. ज्ञानवर्धक है।
  3. मनोवैज्ञानिक है।
  4. यह बच्चों की प्रतिभा को निखारता है।

प्रश्न 3.
पाठ के अनेक अंश बाल-सुलभ चंचलताओं, शरारतों को बहुत रोचक ढंग से उजागर करते हैं। आपको कौन-सा अंश अच्छा लगा और क्यों? वर्तमान समय में इन बाल-सुलभ क्रियाओं में क्या परिवर्तन आए हैं?
उत्तर :
मुझे शरत् के स्कूल में घड़ी के आगे हो जाने की घटना वाला अंश अच्छा लगा है। इस घटना में शरारती शरत् स्कूली पढ़ाई की ऊब को अपने ही ढंग से दूर करता है। वह बच्चों के साथ मिलकर अपने स्कूल की घड़ी को दस मिनट से लेकर एक घंटा तक आगे कर देते हैं। परिणामस्वरूप एक घंटा पहले ही स्कूल से मुक्ति मिल जाती है। अध्यापक अक्षय पंडित स्कूल की घड़ी के आगे हो जाने का रहस्य पता भी लगा लेते हैं। उस समय भी शरत् अपनी अभिनय क्षमता और भोलेपन से कहता है-“पंडित जी आपके पैर छूकर कहता हूँ, मुझे कुछ नहीं मालूम। मैं तो मन लगाकर सवाल निकाल रहा था।” सवाल निकालने के बहाने से शरत् भी साफ बच निकलता है। आज के समय में इस तरह की शरारतें बच्चे नहीं करते। उनको खेलने-कूदने की सुविधा स्कूल में मिली है। इस कारण उनकी ऊर्जा वहाँ निकलती है।

प्रश्न 4.
नाना के घर किन-किन बातों का निषेध था? शरत् को उन निषिद्ध कार्यों को करना क्यों प्रिय धा?
उत्तर :
नाना के घर निम्नलिखित बातों का निर्षेध था

  1. वहाँ कोई अनुशासन भंग नहीं कर सकता था।
  2. नाना के घर में शौक पालने की मनाही थी; जैसे-पशु-पक्षी पालना, उपवन लगाना, तितली पकड़ना आदि। नाना की मान्यता थी कि बच्चों को केवल पढ़ने का अधिकार है। प्यार, आदर, खेल से उनका जीवन नष्ट हो जाता है।
  3. घर में चुपचाप पढ़ने की मनाही थी। बच्चों को स्कूल जाने से पहले घर के बरामदे में चिल्ला-चिल्लाकर पढ़ना चाहिए। नियम तोड़ने वाले को दंड दिया जाता था।
  4. नाना के घर में पतंग उड़ाना वर्जित था।

शरत् को इन निषिद्ध कार्यों को करने में विशेष आनंद आता था। उसे पतंग उड़ाना, लट्टू घुमाना, गोली और गुल्ली-डंडा खेलना प्रिय था। वह बाग से फल चुरा लाने की कला में भी माहिर था। वह मछली पकड़ने में भी रुचि लेता था। वह निषिद्ध कार्य करके घर में ही कहीं छिप जाता था।

प्रश्न 5.
आपको शरत् और उसके पिता मोतीलाल के स्वभाव में क्या समानताएँ नज़र आती हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
शरत् मोतीलाल का बेटा था। शरत् में कई विशेषताएँ पिता के स्वभाव से आई थीं। उनमें ये प्रमुख हैं-

  1. दोनों पुस्तक प्रेमी थे। पिता की सभी पुस्तकों को पुत्र शरत् ने प्रयास करके पा लिया और पढ़ डाला।
  2. दोनों आत्मसम्मानी थे। शरत् के पिता ने इसके लिए अपनी नौकरी तक छोड़ दी थी।
  3. दोनों को कहानी, उपन्यास, नटक आदि लिखने का शौक था।
  4. दोनों में सौंदर्य-बोध था। पिता सुंदर कलम में बढ़िया निब लगकर बढ़िया कागज़ पर मोती जैसे अक्षरों में लिखते थे। पुत्र शरत् ने भी अपने कमरे को खूब सजाकर रखा था।
  5. दोनों का जीवन दरिद्रता में बीता।

प्रश्न 6.
शरत् की रचनाओं में उनके जीवन की अनेक घटनाएँ और पात्र सजीव हो उठे हैं। पाठ के आधार पर विवेचना कीजिए।
उत्तर :
इस पाठ में बताया गया है कि शरत् की रचनाओं में उनके जीवन की अनेक घटनाएँ और पात्र सजीव हो उठे हैं।

कुछ उदाहरण-

1. ‘श्रीकांत’ और ‘विलासी’ रचनाओं में साँपों को वश में करने की घटना को सजीव किया गया है। ‘विलासी’ का पात्र मृत्युंजय साँप को जड़ी दिखाकर भगाता है। उसका मुँह गरम लोहे की सींक से दाग देता है। यह मणि मामा के साथ घटना के कारण संभव हुआ था।
2. तपोवन की घटना ने शरत् को जीवन-भर सौंदर्य का उपासक बना दिया था। उसने जीवन-भर अन्याय के विरुद्ध लड़ने का प्रण किया था।
3. धीरू द्वारा शरत् को करौदों की माला मेंट करना तथा दोनों का आपसी संबंध ‘देवदास’ पात्र के रूप में साकार हुआ।
4. शरत् ने अपने उपन्यासों की नायिकाओं का सृजन भी इसी प्रकार किया। ‘देवदास’ की पारो, ‘बड़ी दीदी’ की माधवी और ‘श्रीकांत’ की राजलक्ष्मी-ये सभी धीरू के ही विकसित और विराट् रूप हैं।

5. बीच-बीच में महुओं की नाव लेकर कभी अकेले, कमी मित्रों के साथ कृष्ण्पुर गाँव में खुनाथदास गोस्वामी के अखाड़े में पहुँच जाना शरत् नहीं ‘ूूला था। यहीं कहीं उसका मित्र गौइर रहता था। ‘श्रीकांत’ चतुर्थ पर्व का वह आधा पागल कवि कीर्तन भी करता था। मालूम नहीं वहाँ किसी वैष्णवी का नाम कमललता था या नहीं, पर यह सच है कि किशोर जीवन के ये चित्र उसके द्वदय पर सदा-सदा के लिए अंकित हो गए और आगे चलकर साहित्य-सुजन का आधार बने। न जाने कितने ऐसे चित्र उसने अपनी पुस्तकों में खींचे हैं।

6. नीरू नामक बाल विधवा की लाश को किसी ने नहीं छुआ था। उसे जंगल में फेंक दिया गया था। यहीं पर उसने ‘विलासी’ कहानी के कायस्थ मृत्युंजय को सँपेरा बनते देखा था। समाज के ठेकेदारों ने मृत्युंजय को समाज से बाहर निकाल दिया था और पीटकर अपमानित किया था।

7. एक विधवा के दो प्रेमियों की घटना कथाशिल्पी शरत् के उपन्यास ‘चरित्रहीन’ का आधार बनी। वह समझ गया था कि एक-दूसरे के विरोधी होते हुए भी लुच्चे-लफंगों में एका होता है।

प्रश्न 7.
“जो रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानता है वह साधारण बालक नहीं है। बड़ा होकर वह निश्चय ही मनस्तत्व के व्यापार में प्रसिद्ध होगा।” अघोर बाबू के मित्र की इस टिप्पणी पर अपनी टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
अघोर बाबू एक अवकाश प्राप्त अध्यापक थे। वह शरत् के साथ हुए अनुभव को अपने मित्र से बताते हैं। शरत् ने उनसे एक स्त्री के रोने के बारे में बताया कि वह स्त्री सचमुच रो रही है। शरत् बड़े लोगों और दु:खी लोगों के रोने के बीच अंतर भी बताता है। अघोर बाबू के मित्र इसके बारे में सुनकर भविष्यवाणी करते हैं कि “जो रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानता है वह साधारण बालक नहीं है। बड़ा होकर वह निश्चय ही मनस्तव के व्यापार में प्रसिद्ध होगा”। यह उनके द्वारा शरत् की सही पहचान थी। आमे चलकर शरत् विश्व प्रसिद्ध साहित्य शिल्पी बने।

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प्रश्न 1.
गांगुली परिवार के घर का वातावरण किस प्रकार का था ?
उत्तर :
गांगुली परिवार आरंप में बहुत निर्धन था। उनके परिवार ने समाज में संपन्नता और प्रतिष्ठा अपने परिश्रम और अनुशासित जीवन से प्राप्त की थी। गागुली परिवार अनुशासित था। उनके यहाँ खेलना, गप्पबाजी करना, तंबाकू पीना एवं साहित्य पढ़ना मना था। उनके यहाँ मान्यता थी कि बच्चों को केवल पढ़ने का अधिकार होता है, खेलने से बच्चे बिगड़ जाते हैं। इसलिए सवेरे स्कूल जाने से पहले बच्चे घर के बरामदे में चिल्ला-चिल्लाकर पढ़ते थे और संध्या को स्कूल से लौटकर रात्रि भोजन तक चंडी मंडप में दीये के चारों ओर बैठकर पढ़ते थे।

जो नियम तोड़ता था उसे आयु के अनुसार दंड दिया जाता था। दंड में चाबुक खाना ही नहीं था अस्तबल में भी बंद होना पड़ता था। नाना अघोरनाथ और मामा ठाकुरनाथ कट्टरता और कठोरता के सच्चे प्रतिनिधि माने जाते थे। एक बार शरत् और मणि गंगा-स्नान करने गए थे। नाना अघोरनाथ को इसका पता चल गया था। दोनों के घर लौटने पर मणि की बहुत पिटाई हुई। उसे ठीक होने में पाँच-सात दिन लग गए थे। शरत् को छोटी नानी ने कहीं छिपा दिया था। अतः कहा जा सकता है कि गांगुली परिवार के घर का वातावरण कठोर नियमों से बंधा हुआ था। नियमों को तोड़ने वाले को दंड अवश्य दिया जाता था।

प्रश्न 2.
“तीन वर्ष पहले का यह आना कुछ और प्रकार का था” लेखक ने ऐसा क्यों कहा ?
उत्तर :
शरत् को नाना के घर भागलपुर में अपनी माँ भुवनमोहिनी और पिता मोती लाल के साथ रहते हुए 3 वर्ष हो चुके थे। वह पहले भी अपनी माँ के साथ वहाँ आ चुका था। उस समय उसके नाना केदारनाथ और परिवार के अन्य सदस्य उसके आगे-पीछे घूमते थे। तीन वर्ष पहले का आना कुछ अलग प्रकार का था कि उसके पिता मोती लाल यायावर प्रकृति के स्वप्तदर्शी व्यक्ति थे। परिवार और जीविका का कोई साधन उन्हें एक स्थान पर अधिक देर के लिए बाँधकर नहीं रख सका था। नौकरी उनके शिल्पी मन को दासता लगती थी। वे कुछ दिन नौकरी करते थे फिर किसी बात पर बड़े साहब से झगड़ पड़ते थे जिस कारण नौकरी छोड़नी पड़ती थी। नौकरी छ्छेड़कर लिखने-पढ़ने बैठ जाते थे। उन्हें कहानी, उपन्यास और नाटक सभी कुछ लिखने का शौक था। वह रचना का आरंभ तो बहुत अच्छा करते थे परंतु अंत उतना ही महत्त्वहीन होता था। उन्होंने अंत की अनिवार्यता को भी माना ही नहीं था। इस तरह मोतीलाल के व्यवहार के कारण परिवार का भरण-पोषण असंभव हो गया था। परिवार की बिगड़ती स्थिति देखकर भुवन मोहिनी ने पहले तो अपने पति मोती लाल से काफी कुछ कहा-सुना परंतु मोती लाल पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो भुवनमोहिनी ने अपने पिता केदारनाथ से प्रार्थना की कि उसे भागलपुर रहने के लिए बुला लें। इस प्रकार तीन वर्ष पहले भुवनमोहिनी पति और पुत्र के साथ भागलपुर पिता के घर रहने चली गई थी।

प्रश्न 3.
इस पाठ में मोतीलाल के बारे में क्या बताया गया है? उनके व्यक्तित्व की क्या विशेषता थी?
उत्तर :
शरत् के पिता मोतीलाल यायावर प्रकृति के स्वप्नदर्शी व्यक्ति थे। जीविका का कोई भी धंधा उन्हें कभी बाँधकर नहीं रख सका। चारों ओर से लांछित होकर वह बार-बार काम-काज की दसाश करते थे। नौकरी मिल भी जाती थी तो उनके शिल्पी मन बौर दासता के बन्धन में कोई सामंजस्य न हो पाता। कुछ दिन उसमें मन लगाते, परन्तु फिर एक दिन अचानक बड़े साहब से झगड़ कर उसे छोड़ बैठते और पढ़ने में व्यस्त हो जाते या कविता करने लगते। कहानी, उपन्यास, नाटक सभी कुछ लिखने का शौक था। चित्रकला में भी रुचि थी।

उनका सौंदर्य-बोध भी कम नहीं था। सुंदर कलम में नया निब लगाकर बढ़िया कागज़ पर मोती जैसे अक्षरों में रचना आरंभ करते, परंतु आरंभ जितना महत्त्वपूर्ण होता, अंत होता उतना ही महत्त्वहीन। अंत की अनिवार्यता मानो उन्होंने कभी स्वीकार ही नहीं की। बीच में ही छोड़कर नई रचना आरंभ कर देते। शायद उनका आदर्श बहुत ऊँचा होता था या शायद अंत तक पहुँचने की क्षमता ही उनमें नहीं थी। वह कभी कोई रचना पूरी नहीं कर सके। एक बार बच्चों के लिए उन्होंने भारतवर्ष का एक विशाल मानचित्र तैयार करना आरंभ किया, परन्तु तभी मन में एक प्रश्न जाग आया, क्या इस मानचित्र में हिमाचल की गरिमा का ठीक-ठीक अंकन हो सकेगा? नहीं हो सकेगा। बस, फिर किसी भी तरह वह काम आगे नहीं बढ़ सका।

इस तरह मोतीलाल की सारी कला-साधना व्यर्थता में ही सफल हुई। परिवार का भरण-पोषण उनके लिए असंभव हो गया। यह देखकर शरत् की माँ भुवन-मोहिनी ने पहले तो पति को बहुत-कुछ कहा-सुना, फिर अपने पिता केदारनाथ से याचना की और एक दिन सबको लेकर भागलपुर चली आई। मोतीलाल एक बार फिर घर-जँवाई होकर रहने लगे।

प्रश्न 4.
भागलपुर आने पर शरत् को पढ़ाई के लिए कहाँ भर्ती कराया गया? उस स्थान को पढ़ाई के लिए क्या समझा जाता था तथा इसमें शरत् की क्या स्थिति थी?
उत्तर :
भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम.ई. स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहाँ तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने केवल ‘बोधोदय’ ही पढ़ा था। यहाँ उसे पढ़ना पड़ा ‘सीता-वनवास’, ‘ चारु पाठ’, ‘सद्भाव-सद्गुरु’ और ‘प्रकांड व्याकरण’। यह केवल पढ़ना ही नहीं था, बल्कि स्वयं पंडित जी के सामने खड़े होकर प्रतिदिन परीक्षा देना था। इसलिए यह बात निस्संकोच कही जा सकती है कि बालक शरत् का साहित्य से प्रथम परिचय आँसुओं के माध्यम से हुआ। उस समय वह सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य को दुख पहुँचाने के अलावा भी साहित्य का कोई उद्देश्य हो सकता है, लेकिन शीघ्र ही वह यह अवश्य समझ गया कि वह क्लास में बहुत पीछे है। यह बात वह सह नहीं सकता था, इसलिए उसने परिश्रमपूर्वक पढ़ना आरंभ कर दिया और देखते-देखते बहुतों को पीछे छोड़कर अच्छे बच्चों में गिना जाने लगा।

प्रश्न 5.
बचपन में शरत् के क्या-क्या शौक थे? उसके साथी इनमें कैसे मदद करते थे?
उत्तर :
शरत् के शौक भी बहुत तरह के थे, जैसे पशु-पक्षी पालना और उपवन लगाना। लेकिन उनमें सबसे प्रमुख था तितली-उद्योग। नाना रूप-रंग की अनेक तितलियों को उसने काठ के बक्स में रखा था। बड़े यत्न से वह उनकी देखभाल करता था। उनकी रुचि के अनुसार भोजन की व्यवस्था होती थी। उनके युद्ध का प्रदर्शन भी होता था। उसी प्रदर्शन के कारण उसके सभी साथी उसकी सहायता करके अपने को धन्य मानते थे। उनमें न केवल परिवार के या दूसरे बड़े घरों के बालक थे बल्कि घर के नौकरों के बच्चे भी थे। उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता था। ये बच्चे भी उसे प्रसन्न करके अपने को कृतार्थ अनुभव करते थे।

प्रश्न 6.
शरत् को अपने मनचाहे काम लुक-छिपकर क्यों करने पड़ते थे? शरत् किस बात में निष्णात था?
उत्तर :
शरत् को अपने सब मनपसंद कार्य लुक-छिपकर करने पड़ते थे, क्योंकि उसके नाना इन्हें पसंद नहीं करते थे। उनकी मान्यता थी कि बच्चों को केवल पढ़ने का ही अधिकार है। प्यार, आदर और खेल से उनका जीवन नष्ट हो जाता है। सवेरे स्कूल जाने से पहले घर के बरामदे में उन्हें चिल्ला-चिल्लाकर पढ़ना चाहिए और संध्या को स्कूल से लौटकर रात के भोजन तक चंडी-मंडप में दीवे के चारों ओर बैठकर पाठ का अभ्यास करना चाहिए। यही गुरुजनों की प्रीति पाने का गुर था। जो नियम तोड़ता था उसे आयु के अनुसार दंड दिया जाता था। कोई नहीं जानता था कि न जाने कब किसको घंटों तक एक पैर पर खड़े होकर आँसू बहाने पड़ें। इस अनुशासन के बीच खेलने का अवकाश पाना बड़ा कठिन था, परन्तु आँखों में धूल झोंकने की कला में शरत् निष्णात था।

प्रश्न 7.
इस पाठ में शरत् और साँपों के बारे में क्या बताया गया है?
उत्तर :
बड़े उत्साह के साथ शरत् ने बेल की जड़ बूँढ़ निकाली। साँपों की वहाँ कोई कमी नहीं थी लेकिन उस दिन शायद उन्हें इस मंत्र का पता लग गया था। इसलिए बहुत खोज करने पर भी कोई साँप. नहीं दिखाई दिया। अंत में अमरूद के एक पेड़ के नीचे मलबे में एक गोखरू साँप के बच्चे का पता लगा। खुशी से भरकर शरत् अपने दल सहित वहाँ जा पहुँचा और उसे बाहर निकलने को छेड़ने लगा। बालकों के इस अत्याचार से क्षुब्ध होकर साँप के उस बच्चे ने अपना फण उठा लिया। शरत् इसी क्षण की राह देख रहा था, तुरन्त आगे बढ़कर बेल की जड़ उसके सामने कर दी।

विश्वास था कि अभी वह साँप सिर नीचा करके सबसे क्षमा-प्रार्थना करेगा, लेकिन निस्तेज होना तो दूर वह साँप का बच्चा बार-बार उस जड़ को डसने लगा। यह देखकर बालक भयातुर हो उठे। तब मणि मामा कहीं से लाठी लेकर आए और उन्होंने सनातन रीति से उस बाल सर्प का संहार कर डाला। ऐसा लगता है, तब तक शरत् की भेंट ‘विलासी’ के ‘मृत्युंजय’ से नहीं हुई थी। जड़ दिखाने से पूर्व एक काम और भी तो करना होता है, “जिस साँप को जड़ी दिखाकर भगाना हो, पहले उसका मुँह गरम लोहे की सींक से कई बार दाग दो, फिर उसे चाहे जड़ी दिखाई जाए, चाहे कोई मामूली-सींक, उसे भागकर जान बचाने की ही सूझेगी।

प्रश्न 8.
घोष परिवार का मकान कहाँ था? वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
घोष परिवार का मकान गंगा के पास था। घोष परिवार के मकान के उत्तर में गंगा के बिल्कुल पास ही एक कमरे के नीचे नीम और करौंदे के पेड़ों ने उस जगह को घेरकर अंधकार से आच्छन्न कर रखा था। कई प्रकार की लताओं ने उस स्थान को चारों ओर से ऐसे ढक लिया था कि मनुष्य का उसमें प्रवेश करना बड़ा कठिन था। बड़ी सावधानी से एक स्थान की लताओं को हटाकर शरत् उसके भीतर गया। वहाँ थोड़ी-सी साफ-सुथरी जगह थी, हरी-भरी लताओं के भीतर से सूर्य की उज्ज्वल किरणें छन-छन कर आ रही थीं और उनके कारण स्निग्ध हरित प्रकाश फैल गया था। देखकर आँखें जुड़ाने लगीं और मन गद्गद होकर मानो किसी स्वप्नलोक में पहुँच गया।

प्रश्न 9.
मोतीलाल कहाँ के रहने वाले थे? उनके पिता कौन थे तथा उनकी हत्या क्यों कर दी गई थी?
उत्तर :
मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहने वाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय संप्रांत राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह युग था प्रबल प्रतापी ज़मींदारों के अत्याचार का, लेकिन वे कभी उनसे दबे नहीं। उन्होंने सदा प्रजा का पक्ष लिया। इसीलिए एक दिन उनके क्रोध का शिकार हो गए। सुना गया कि एक दिन ज्ञमींदार ने उन्हें बुलाकर किसी मुकदमे में गवाही देने के लिए कहा। उन्होंने उत्तर दिया, “मैं गवाही कैसे दे सकता हूँ? उसके बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता।”
ज़मींदार ने कहा, “गवाही देने के लिए जानना ज़रूरी नहीं है।”
झूठी गवाही आज भी दी जाती है। उस दिन भी दी जाती थी, लेकिन बैकुंठनाथ ने साफ इन्कार कर दिया। प्रबल प्रतापी ज़मींदार क्रुद्ध हो उठा परिणामस्वरूप उनकी हत्या कर दी गई।

प्रश्न 10.
मोतीलाल की माँ कैसी थी? उसके यहाँ शरत् का जन्म कब हुआ?
उत्तर :
मोतीलाल की माँ साहसी सुगृहिणी थी तो उनकी पत्नी शांत प्रकृति, निर्मल चरित्र और उदार वृत्ति की महिला थीं। वह सुंदर नहीं थीं परंतु वैदूर्य मणि की तरह अंतर के रूप में रूपसी निश्चय ही थीं। उनके सहज पतिव्रत्य और प्रेम की छाया में स्वप्नदर्शी, यायावर पति की गृहस्थी चलने लगी। यहीं पर 15 सितम्बर, 1876 ई. तदनुसार 31 भाद्र, 1283 बंगाब्द, आश्विन कृष्णा द्वादशी, संवत् 1933, शकाब्द 1798, शुक्रवार की संध्या को एक पुत्र का जन्म हुआ। वह अपने माता-पिता की दूसरी संतान था। चार-एक वर्ष पहले उसकी एक बहन अनिला जन्म ले चुकी थी। माता-पिता ने बड़े चाव से पुत्र का नाम रखा ‘शरत्चन्द्र’।

प्रश्न 11.
प्रस्तुत पाठ के आधार पर लेखक विष्णु प्रभाकर एवं शरत्चंद्र के कथाशिल्प का परिचय दीजिए।
उत्तर :
यह पाठ श्री विष्णु प्रभाकर द्वारा रचित ‘आवारा मसीहा’ के प्रथम पर्व ‘दिशाहारा’ का एक अंश है। विधा की दृष्टि से यह एक जीवनी है जिसमें महान कथा शिल्पी शरत्चंद्र के जीवन के विभिन्न रंगों को बहुत सूक्ष्मता से उकेरा गया है। इस पाठ में शरत्चंद्र के बचपन से किशोर वय तक की यात्रा के विविध पहलुओं को इस प्रकार वर्णित किया गया है जिससे शरत्चंद्र के जीवन के समस्त अनुभवों की गहराई और विस्तार को एक नया कैनवास प्राप्त हुआ है।

बचपन की शरारतों में भी एक अत्यंत संवेदनशील और गंभीर व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। उनके रचना-संसार के समस्त पात्र वस्तुतः उनके वास्तविक जीवन के ही पात्र हैं। फिर चाहे वह ‘देवदास’ की पारो हो ‘बड़ी तीरो’ की माधवी, काशीनाथ या ‘ श्रीकांत’ की राजलक्ष्मी। सभी पात्र रचनाओं में काल्पनिक प्रतीत होते हुए भी जीवंत हैं। पाठ में उन सभी ररिस्थितियों को भी उजागर किया गया है जो उनके रचनाकार बनने की आधारभूमि और प्रेरणास्नोत बने। संघर्षशील और अभाव ग्रस्त जीवन की हर चोट का सामना करते हुए उन्होंने एक जुझारू व्यक्तित्व का भी परिचय दिया है।

प्रश्न 12.
नीचे शरत्चंद्र के चरित्र की कुछ विशेषताएँ दी गई हैं, पाठ के आधार पर इन्हें सिद्ध कीजिएसंवेवनशील, प्रतिभाशाली, दुस्साहसी, प्रकृतिप्रेमी, परोपकारी, दृढ़निश्चयी।
उत्तर :
संवेदनशील – शरत् संवेदनशील प्रकृति के थे। शरत् बाल विधवा नीरू को अपनी दीदी मानते थे। वह सभी की सेवा-सुश्रूषा करती थी। पर 32 वर्ष की उम्र में उसका अचानक पदस्खलन हो गया तो समाज ने उसे पूरी तरह बहिष्कृत कर दिया। शरत् मनाही के बावजूद उसे मरणासन्न अवस्था में देखने जाता था। उसे फल खिला आता था।

प्रकृतिप्रेमी – शरत् प्रकृति के प्रेमी थे। शरत् को तपोवन में जाकर बड़ी शांति मिलती थी। उसे वहाँ के एकांत में बैठना, गंगा की धारा को निहारने आदि में बड़ा आनंद आता था।

प्रतिभाशाली – शरत् प्रतिभाशाली थे। उनके द्वारा रचा गया कथा-साहित्य उनकी प्रतिभा का परिचायक है। उसे अंकगणित में शत-प्रतिशत अंक मिलते थे। उसने अंग्रेजी स्कूल के प्रथम वर्ष में प्रथम स्थान पाया था।

परोपकारी – शरत् परोपकारी थे। वे दूसरों का भला करते रहते थे। उसने गरीबों के इलाज में मदद की तथा उनकी सेवा भी की। वे उपेक्षित-अनाश्रित रोगियों की स्वयं यथाशक्ति सेवा करते थे। दुस्साहसी-शरत् रॉबिनहुड के समान दुस्साहसी थे। अर्धरात्रि के निविड़ अंधकार में जब मनुष्य तो क्या, कुत्ते भी बाहर निकलने में डरते थे तब वे चुपचाप पूर्व निर्दिष्ट बाग में या ताल पर पहुँचकर अपना काम कर लाते थे।

दृढ़निश्चयी – शरत् जो निश्चय कर लेते थे उस पर दृढ़ता से चलते थे। वे किसी से डरते न थे। उन्होंने इसी के बल पर नीरू दीदी की सेवा अंत समय तक की।

प्रश्न 13.
शरत के नाना के घर में नियम तोड़ने पर क्या दंड दिया जाता था ? क्या आप उसे उचित मानते हैं ?
उत्तर :
शरत के नाना का परिवार गांगुली परिवार था। परिवार में अनुशासन का सख्ती से पालन किया जाता था। परिवार में खेलना, गप्पें मारना, तंबाकू पीना, वण-साहित्य पढ़ना मना था। घर के बरामदे में चिल्लाकर पढ़ना पड़ता था। जो भी नियम तोड़ता था उसे आयु के अनुसार दंड दिया जाता था। जो भी नियम तोड़ता था उसे आयु के अनुसार दंड दिया जाता था। दंड में चाबुक खाना तक ही नहीं था, बल्कि अस्तबल में बंद भी कर दिया जाता था। बच्चों की पिटाई की जाती थी।

हम इस प्रकार क दंड से कतई सहमत नहीं हैं। ये दंड अमानवीय हैं। बच्चों को समझाया जाना चाहिए, उन्हें शारीरिक दंड देने को कतई उचित नहीं कहा जा सकता। बच्चे तो थोड़ी बहुत शरारतें करते ही रहते हैं। यह उनका बाल स्वभाव होता है। उन्हें हर समय दंडित करना उचित नहीं है।

प्रश्न 14.
जो रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानता है वह साधारण बालक नहीं है। बड़ा होकर वह निश्चय ही मनस्तत्व के व्यापार में प्रसिद्ध होगा।”-अघोर बाबू के मित्र की इस टिप्पणी पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर :
एक दिन की बात है कि अवकाश प्राप्त अध्यापक अधोरबाबू स्नान के लिए गंगा घाट जा रहे थे। उनके पीछे-पीछे शरत चल रहे थे। तभी एक टूटे हुए घर के भीतर से एक स्त्री के रोने का करुण स्वर सुनाई दिया। अघोरनाथ ठिठक गए। बोले,

“यह कौन रोतां हे ? क्या हुआ इसे ?” शरत् ने उत्तर दिया, “मास्टर मुशाई, इस नारी का स्वामी अंधा था। लोगों के घरों में काम-काज करके यह उसको खिलाती थी। कल रात इसका वह अंधा स्वामी मर गया। वह बहुत दुःखी है। दुखी लोग बड़े आदमियों की तरह दिखाने के लिए जोर-जोर से नहीं रोते। उनका रोना दुख से विदीर्ण प्राणों का क्रंदन होता है। मास्टर मुशाई, यह सचमुच का रोना है।”

छोटी आयु के बालक से रोने का इतना सूक्ष्म विवेचनसुनकर अघोर बाबू विस्मित हो उठे। वे कोलकाता रहते थे। लौटकर उन्होंने अपने एक मित्र से इस घटना की चर्चा की। तब मित्र ने कहा, “जो रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानता है, साध रण बालक नहीं है। बड़ा होकर निश्चय ही मनस्तत्व के व्यापार में प्रसिद्ध होगा।”

अघोरबाबू के उस मित्र ने शरत् की सही पहचान की थी। यही बालक आगे चलकर प्रसिद्ध व्यक्ति बना। इस पर हमारी टिप्पणी यह है कि पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं शरतचंद्र बचपन से ही संवेदनशील थे। उनमें वातावरण को परखने की अद्भुत क्षमता थी। वे मानवीय भावनाओं की अनुभूति करने की कला में पारंगत थे।

प्रश्न 15.
लेखक के नाना की यह मान्यता थी कि बच्चों को केवल पढ़ने का अधिकार है। प्यार, आवर और खेल से उनका जीवन नष्ट हो जाता है।”
क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? आपके मतानुसार बच्चों के क्या-क्या अधिकार होने चाहिएँ ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
लेखक के नाना पुरानी मान्यताओं वाले व्यक्ति थे। उनके विचार भी पुराने थे। बच्चों को पढ़ने का अधिकार है, यह बात तो ठीक हे, पर वे इसके साथ केवल शब्द भी जोड़ते थे। वह ठीक नहीं। कोई बच्चा सारे दिन पढ़ता ही रहेगा, यह बात गले नहीं उतरती। बच्चों के लिए खेलना-कूदना भी अति आवश्यक है। बाल-मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है। खेलना बच्चों की स्वाभाविक क्रिया है। इसे रोका नहीं जाना चाहिए। यह एक भ्रांत धारणाएँ है कि खेलने से बच्चों का जीवन नष्ट हो जाता है। खेल तो बच्चे के सर्वांगीण विकास में सहायक होते हैं।

बच्चों को खेलने से वंचित करके हम उनका बचपन छ्छीनने का पाप करने के लिए भागी बनेंगे। बच्चे प्रेम-प्यार के भूखे होते है। जब उन्हें आदर देंगे तभी वे हमारा तथा अन्य बड़ों का आदर करना सीखेंगे। ये बातें थोपी नहीं जाती, बल्कि व्यवहार से बच्चा स्वयं सीखता है। हमारे विचार से बच्चों को पढ़ने के साथ-साथ खेलने-कूदने तथा मनोरंजन के पर्याप्त अवसर दिए जाने चाहिए। हमें उनके साथ प्यार और आदर का व्यवहार करना चाहिए। इसी से उनका सवांगीण विकास हो सकेगा।

प्रश्न 16.
शरत एक महान साहित्यकार थे, पर बचपन में उनमें अनेक बुराइयाँ भी थी। इसके बावजूू लोग उनें पकड़कर दंड वेने में स्वयं को असमर्थ पाते थे। ऐसा क्यों था ?
उत्तर :
यह सच है कि शरद चंद्र आगे चलकर एक महान साहित्यकार बने, पर बचपन में उनमें भी अनेक बुराइयाँ थीं। इसका मूल कारण यह था कि उनका बचपन घोर दरिजता में बीता। वे अपने नाना के घर रहते थे। नाना की बहुत सारी पारंदियाँ रहती थीं। शरत् उन पाबंदियों को तोड़ कर अनुशासन भंग करते रहते थे। बचपन में वे खूब शरारतें करते थे। उनकी यह प्रवृत्ति देवानंद पुर जाकर और भी बढ़ गई थी।

वे स्कूल की फीस तक नहीं भर पाते थे, अतः स्कूल न जाकर रास्ते में ही रुक जाते थे और शरारती लड़कों की संगति में दिन बिता देते थे। उन दिनों वे लोगों के बागों से फल चोरी करके गरीबों और दोस्तों में बाँट देते थे। एक बार एक गरीब आदमी के इलाज के लिए बहुत-सी मछलियाँ पकड़ कर बेच दीं। बालक की इसी प्रवृत्ति को देखकर लोग उनसे परेशान होकर भी उनसे प्यार करते थे, दंड नहीं दे पाते थे। वे तो रॉंबिहुड के समान दुस्साहसी थे। उनमें स्वार्थ नहीं था।

प्रश्न 17.
गाँगुली परिवार का वातावरण कैसा था ?
उत्तर :
गाँगुली परिवार आरंभ में बहुत गरीब था। इस परिवार ने अपने परिश्रम और अनुशासनप्रियता के बलबूते पर सम्पन्नता और सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल की थी। गाँगुली परिवार अनुशासनप्रिय था। गांगुली परिवार में शरत् के नाना-मामा थे। इस परिवार में खेलना, गप्पबाजी करना, तंबाकू पीना, वण-साहित्य पढ़ना पूर्णतः वर्जित था। परिवार की यह मान्यता थी कि बच्चों को केवल पढ़ने का अधिकार है। खेलने और प्यार से बच्चे बिगड़ जाते हैं।

बच्चे सवेरे स्कूल जाने से पहले चिल्ला-चिल्लाकर पढ़ते थे। रात को चंडी मंड़प में दीए जलाकर बैठकर पढ़ते थे। जो बालक नियम तोड़ता था उसे उसकी आयु के अनुसार दंड दिया जाता था। दंड में चायुक खाना तथा अस्तबल में बंद होना तक शामिल था। नाना अघोरनाथ तथा मामा ठाकुरदास कट्ट्रता और कठोरता के पर्याय माने जाते थे। इस प्रकार कहा जा सकता है कि गांगुली परिवार का वातावरण कठोर नियमों में बँधा रहता था। नियम तोड़ने पर दंड का विधान था।

प्रश्न 18.
पाठ के आधार पर शत् चंद्र की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
पाठ में शतरचंद्र के जीवन का विशद चित्रण किया गया है। इस पाठ के आधार पर शरत्चंं्र की निम्नलिखित चारित्रिक विशेषताएँ उभरती हैं :
संवेदनशील : शरत्चंद्र संवेदनशील प्रकृति के व्यक्ति थे। यह संवेदनशीलता उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली थी। वे किसी को दुःखी नहीं देख सकते थे।
प्रकृति प्रेमी : शरत को प्रकृति से बहुत प्रेम था। उन्हें तितलियाँ पकड़ना बहुत अच्छा लगता था। उन्होंने अपने लिए तपोवन बना रखा था वहाँ एकांत में बैठकर उन्हें शांति मिलती थी। प्रतिभाशाली : शरत् में बचपन से ही प्रतिभा कूट-कूट कर भरी हुई थी। वे पढ़ने में भी होशियार थे। उन्हें अंकगणित में शत-प्रतिशत अंक मिलते थे। कथा-साहित्य में उनकी रुचि थी।
परोपकारी : शतचंद्र परोपकारी स्वभाव के थे। वे गरीबों की मदद करते रहते थे। अनाभ्रित व्यक्तियों की मदद करना उन्हें अच्छा लगता था।
दृळ निश्चयी : शरतचंद्र एक बार जो निश्चय कर लेते थे, उसे हर कीमत पर अवश्य पूरा करते थे। वे किसी से डरते न थे। डुस्साहसी : शरद बचपन से ही दुस्साहसी थे। वे गांगुली परिवार के नियमों को तोड़ते रहते थे। वे बाग से फल चुरा लाते थे। गंगा-घाट से मछलियाँ पकड़ लाते थे।

प्रश्न 19.
राजू के परिवार को बंगाली समाज से क्यों बहिष्कृत कर दिया गया था ? राजू और शरत् की मित्रता कैसे हुई ?
उत्तर :
राजू का पूरा नाम राजेन्द्रनाथ था। उसके पिता रामरतन मजूमदार डिस्ट्रिक इंजीनियर होकर भागलपुर आए थे, लेकिन उन्होंने मतभेद होने के कारण त्यागपत्र दे दिया था। उनका घर गांगुली परिवार के पास था। दोनों परिवारों में आसपास की जमीन को लेकर मन-मुटाव हो गया। रामरतन ने अपने सात बेटों के लिए सात कोठियाँ बनवाई, परन्तु कुछ ऐसी बातें थीं कि जिनके कारण पुरातन बंगाली समाज उन्हें कभी क्षमा नहीं कर सका। वे लोग चीनी मिट्टी के प्यालों में खाना खा लेते थे और काँच के गिलास में पानी पी लेते थे।

उन्हें छोटे भाई की विधवा पत्नी से भी बातें करने में कोई आपत्ति नहीं थी। राजू भी इन्हीं आजाद ख्यालों के बीच पला था। पिता की स्वाधीन चेतन को राजू ने चरम सीमा पर पहुँचा दिया था। वह पतंगबाजी में शरत् की तरह पारंगत था। राजू के पास पैसे की ताकत थी। राजू असाधारण प्रवृत्ति का बालक था। राजू और शरत् में पतंगबाजी को लेकर संघर्ष छोता रहता था। बाद में शरत् मतमेदों की मोटी दीवार को लाँषकर राजू से मित्रता का आतुर हो उठा। दोनों में मित्रता का एक अन्य कारण था-दोनों का संगीत तथा अभिनय में समान रुचि लेना।

प्रश्न 20.
पाठ के आधार पर ‘आवारा मसीहा’ का उदेश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘आवारा मसीहा’ पाठ विष्णु प्रभाकर द्वारा रचित है। शरतचंद्र के जीवन पर आधारित ‘ आवारा मसीहा’ का प्रथम पर्व ‘दिशाहारा’ वाकई दिशाहारा है। जाहिर है जो आवारा होगा वह दिशाहारा तो होगा ही। इस पाठ में लेखक का उद्देय महान् साहित्यकार शरत्चंद्र के बाल्यकाल की घटनाओं का वर्णन कर यह दर्शाना है कि ‘सदुधुद्धि चीथड़ों में चमकती है।’ अभावों के बावडूद शरत्चंद्र का व्यक्तित्व इतना सार्थक और सटीक बन पड़ा है कि ताज्डुब होता है। शरत् ने प्रतिज्ञा की थी-“मैं सूर्य, गंगा और हिमालय को साद्षी करके प्रतिज्ञा करता हूँ कि में जीवनभर सौँदर्य की उपासना करूँगा, कि मैं जीवन भर अन्याय के विरद्ध लड्ड़ँगा, कि मैं कमी छोटा काम नहीं करूँगा।” इसी संकल्प ने उन्हें महान बनाया। इस पाठ का उद्देय भी शरत्चंद्र के जीवन की उन घटनाओं पर प्रकाश डालना है जिनके कारण बे महान साढित्यकार बन सके। इसे पढ़कर पाठकों विशेषकर विद्यार्थियों को बड़ा बनने की प्रेणा मिलेगी। लेखक ने मार्रदर्शक की भूमिका का निर्यात किया है। इसमें वह पूरी तरह से सफल भी रहा है।

प्रश्न 21.
बालक शत् का तपोवन कैसा था ?
उत्तर :
बालक शत् खेलते-खेलते कई बार गायब हो जाता था। जब बच्चे दूँढने लगते तब कहीं नहीं मिलता अपितु स्वयं ही प्रकट हो जाता था। तब वह बताता था कि वह तपोवन में था। फिर शरत् अपने तपोवन के बारे में बताता था। घोष परिवार के मकान के उत्तर में गंगा के बिल्कुल पास ही एक कमरे के नीचे नीम और करोंदे के पेड़ों ने उस जगह को घेकर अंधकार से ढक रखा था। नाना लताओं ने उस स्थान को ऐसे ढक लिया था कि उसमें प्रवेश करना तक कठिन था। शरत् इन लताओं को हाकाकर उसमें प्रवेश करता था। हरी-भरी लताओं के बीच से सूर्य की उन्जवल किरणें छनकर आती थीं। इसी कारण वहाँ हरित प्रकाश फैला रहता था। वही शत् का तपोवन था। वहाँ पूँँचकर शर् को ऐसा लगता था मानो वह स्वपलोक में आ गया है। वहीं नीचे गंगा बहती थी। थके-हारे व्यक्ति को यहाँ शीतलता का अनुभव होता था

प्रश्न 22.
कुमुपकामिनी कौन थी ? उसके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
कुमुदकामिनी शरत के सबसे छोटे नाना अघोरनाथ की पत्नी थी। छात्रवृत्ति की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर उसे ईश्वरचंद्र विद्यासागर के हाथों पुरस्कार मिला था। यद्यपि उन दिनों रसोई बनाना तथा घर को संभालना ही स्त्रियों का काम होता था, पर कुमुदकामिनी यह सब नहीं कर पाती थी। जिस दिन रसोई बनाने की बारी नहीं होती थी उस दिन उनकी बैठक या गोष्ठी छत के ऊपर जमती थी। वहाँ वे बंगदर्शन के अतिरिक्त ‘मृणालिनी’, ‘वीरांगना’, ‘मेघनादवध’ और नीलदर्पण पढ़कर सुनाती थीं। उनकी पढ़ने की शैली अत्यंत मर्मस्पर्शी होती थीं। वास्तव में मणि और शरतृ की शिक्षा की शुरूआात कुमुदकामिनी की पाठशाला से हुई थी। अपराजेय कथा शिल्पी शरत्चंद्र के निर्माण में कुमुदकामिनी का जो योगदान रहा, उसे भुलाया नहीं जा सकता। दुर्भाग्य से अमरनाथ बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सके। बच्चों को अपार कला में डुबोकर वे स्वर्गवासी हो गए थे। उनकी कमी को किसी सीमा तक मोतीलाल और कुमुदकामिनी ने ही पूरा किया।

11th Class Hindi Book Antra Questions and Answers