खानाबदोश Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 6 Summary
खानाबदोश – ओमप्रकाश वाल्मीकि – कवि परिचय
प्रश्न :
ओमप्रकाश वाल्मीकि के जीवन एवं रचनाओं का उल्लेख करते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय – ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म 1950 ई. में बरला, जिला मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) में हुआ। उनका बचपन सामाजिंक एवं आर्थिक कठिनाइयों में गुजरा। शिक्षा प्राप्त करने में उन्हें आर्थिक, सामाजिक और मानसिक कष्ट झेलने पड़े। उन्होंने हिंदी में एम.ए, की डिग्री प्राप्त की।
वाल्मीकि जी कुछ समय तक महाराष्ट्र में रहे। वहाँ वे दलित लेखकों के संपर्क में आए और उनकी प्रेरणा से डॉ. भीमराव अंबेडकर की रचनाओं का अध्ययन एवं चिंतन-मनन किया। इससें उनकी रचना दृष्टि में बुनियादी परिवर्तन हुआ। आजकल वे देहरादून की आार्डिनेंस फैक्टरी में अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं।
रचनाएँ – उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं-सदियों का संताप, बस! बहुत हो चुका (कविता संग्रह), सलाम (कहानी-संग्रह), जूठन (आत्मकथा)।
साहित्यिक विशेषताएँ – हिंदी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने अपने लेखन में जातीय अपमान और उत्पीड़न का वर्णन किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने रखा है। वे मानते हैं कि दलित ही दलित की पीड़ा को बेहतर ढंग से समझ सकता है तथा वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। उन्होंने सृजनात्मक साहित्य के साथ-साथ आलोचनात्मक लेखन भी किया है। उनकी भाषा सहज, तथ्यपरक और आवेगमयी है। ‘ंग्य का गहरा पुट भी उसमें देखा जा सकता है। नाटकों में अभिनय और निर्देशन में भी उनकी रुचि है। अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ के कारण उहें हिंदी साहित्य में पहचान और प्रतिष्ठा मिली। वाल्मीकि जी को ‘डॉ. अंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार’ (1993) और ‘परिवेश सम्मान’ (1995) से सम्मानित किया जा चुका है।
Khanabadosh Class 11 Hindi Summary
कहानी ‘खानाबदोश’ में मज़दूरी करके किसी तरह गुज़र-बसर कर रहे मज़दूर वर्ग के शोषण और यातना को चित्रित किया गया है। मज़दूर वर्ग यदि ईमानदारी से मेहनत-मज़दूरी करके इज्ज़त के साथ जीवन जीना चाहता है, तो सूबे सिंह जैसे समृद्ध और ताकतवर लोग उन्हें जीने नहीं देते। कहानी इस बात की ओर भी संकेत करती है कि हमारे समाज की जातिवादी मानसिकता से मज़दूर वर्ग नहीं उबर पाया है। कहानी में वास्तविकता और यथार्थ उत्पन्न करने में इसके राजस्थानी संवाद सहायक बने हैं।
कहानी ईंट के भट्टे पर काम करने वाले मज़दूरों की व्यथा-कथा कहती है। अपनी ज़मीन से उखड़े लोग मज़दूरी करने के लिए बाहर आते हैं और तरह-तरह के शोषण-चक्र में फँस जाते हैं। लेखक ने थोड़े-से पात्रों के माध्यम से इस शोषण-चक्र को बेनकाब करके रख दिया है।
शब्दार्थ (Word Meanings) :
- पाथना = साँचे की सहायता से या यों ही हाथों से थोप-पीटकर ईंट या उपला तैयार करना (To prepare)
- मुआयना = निरीक्षण (Inspection)
- प्रतिध्वनि = गूँज, किसी शब्द के उपरांत सुनाई पड़ने वाला उसी से उत्पन्न तद्नुरूप शब्द (Echo)
- दड़बा = मुर्गी इत्यादि को रखने के लिए बनाया गया छोटा घर (A place for hen)
- तसल्ली = ढाँढ़स, दिलासा (consolation)
- अंटी = गाँठ (Knot)
- स्याहपन = कालापन (Blackish)
- ज़ेहन = मन, मस्तिष्क (Mind)
- शिद्दत से = कठिनाई से, कष्ट से (Difficulty)
- पुख्ता = मज़बूत पक्का (Firm)
- अंज़ाम = परिणाम (Result)
- कातरता = विवशता, विवश आँखें (Helplessness)
- खसम = पति (Husband)
- सूत्र = धागा (Thread)
- दहशत = भय, डर, आतंक (Terror)
- आत्मिक = आत्मा का (Relating to soul)
- तरतीब = क्रम (Serially)
- मोरियों = नालियों (Drains)
- असावधानी = लापरवाही (Carelessness)
- कतार = लाइन (Row)
- दुश्चिता = बुरी बात का भय (Fear)
- अनिश्चित = जो निश्चित न हो (Uncertain)
- सूरमा = वीर (Brave)
- गति = तेजी (Speed)
- निगरानी = देखभाल (To watch)
- राह = रास्ता (Path)
- अवसाद = दुख (Sediment)
कहानी का सार –
इस कहानी में भट्ठे पर काम करने वाले मजदूरों के माध्यम से शोषक वर्ग की अत्याचार और शोषित वर्ग की व्यथा का चित्रण किया गया है। सुकिया और उसकी पत्नी मानो एक भट्टे पर काम करते हैं। वे ईंट पाथते हैं। कुछ मजदूर मोरियों से भटे में कोयला, बुरादा डालते हैं। यह काम सबसे खतरनाक है। भट्टे का मालिक मुखतारसिंह हैं। मानो और सुकिया इस भटे पर एक महीना पहले ही आए हैं। वे दिहाड़ी मज़दूर हैं। ईंटों की संख्या गिनकर मजदूरी का भुगतान होता है। भटे मजदूरों ने छोटी-छोटी झोंपड़ियाँ बना रखी हैं। इन दड़बेनुमा झोंपड़ियों में उन्हें झुककर जाना पड़ता है। दिन भर के थके-हारे मजदूर रात को इन दड़बों में घुस जाते हैं। सुकिया और मानो की जिंदगी एक निश्चित ढरें पर चलने लगी थी। उनके साथ एक तीसरा मजदूर भी आ गया था-जसदेव वह छोटी उम्र का लड़का था और फुर्ती से काम करता था।
एक दिन मालिक मुखतारसिंह कहीं बाहर चले गए तो उनका बेटा सूबेसिंह भट्टे पर आने लगा। वह रौब-दौब से भुटे का माहौल ही बदल देता था। उसके सामने असगर ठेकेदार भीगी बिल्ली बन जाता था। एक दिन सूबेसिंह की नजर किसनी (मजदूरनी) पर पड़ गई। किसनी और उसका पति महेश तीन महीने पहले ही यहाँ आए थे। सूबेसिंह ने किसनी को अपने पास बुलाने के बहाने दफ्तर में सेवा-टहल का काम दे दिया। इससे मजदूरों में फुसफुसाहट शुरू हो गई। अब किसनी हैंडपंप के नीचे बैठकर साबुन से रगड़-रगड़ कर नहाने लगी। इस हालत को देखकर महेश गुमसुम रहने लगा। किसनी का व्यवहार भी उसके प्रति बदलता चला जा रहा था। उसे समझाना बेकार था। किसनी और सूबेसिंह की कहानी काफी आगे बढ़ गई थी। सूबेसिंह के अर्दली ने महेश को शराब पीने की लत लगा दी थी। महेश शराब पीकर झोंपड़ी में पड़ा रहता था। किसनी ट्रांजिस्टर पर फिल्मी गीत सुनती रहती थी।
भटे के खुलने पर सभी की सांसों को राहत मिलती थी। भट्टे से लाल-लाल पकी इंटों को निकलते देख सुकिया और मानो की खुशी देखते बनती थी। मानो इन लाल ईटों से अपने लिए मकान बनाने का सपना संजोने लगी थी। सुकिया ने उसे बहुत समझाया कि इसमें बहुत खर्च लगता है, पर मानो अपने घर की कल्पना में खोई रहती थी। मानो और ज्यादा काम करके ज्यादा रुपए जोड़ लेना चाहती थी ताकि उसका भी घर बन सके। सुकिया और मानो को एक लक्ष्य मिल गया था। सूबेसिंह किसनी को शहर भी लेकर जाने लगा। किसनी के रंग-ढंग में बदलाव आ गया था। महेश शराब पीकर झोंपड़ी में पड़ा रहता था। किसनी कई-कई दिनों तक शहर से नहीं लौटती थी। जब लौटती तो थकी और निढाल अवस्था में।
एक दिन सूबेसिंह ने भटे पर आते ही असगर ठेकेदार से मानो को दप्तर में भेजने को कहा। असगर ने उसे रोकने का प्रयास किया पर उसे सूबेसिंह की फटकार मिली। उसकी घिघ्घी बँध गई। उसने मानो को छोटे बाबू के पास जाने को कहा। मानो और सुकिया घबरा गए। वे जान गए कि मछली को फँसाने के लिए जाल फेंका जा रहा है। जसदेव सुकिया की मन:स्थिति भाँप गया और वह मानो के स्थान पर सूबेसिंह के यहाँ चला गया। सूबेसिंह ने जसदेव को अपशब्द कहे तथा पिटाई कर दी। सुकिया और मानो जसदेव को उठाकर झोंपड़ी में ले गए। मानो ने उसकी चोटों पर हल्दी लगा दी। भुटे पर और किसी प्रकार की दवा का इंतजाम नहीं था।
मानो ने बेमन से चूल्हा जलाया और रोटियाँ बनाकर सुकिया को खिलाई। फिर वह जसदेव के लिए रोटी लेकर चल पड़ी। सुकिया ने उसे समझाया था कि वह ब्राह्मण है अतः वह तेरे हाथ की रोटी नहीं खाएगा पर मानो नहीं मानी। और हुआ भी यही, जसदेव ने उससे रोटी नहीं ली। मानो अपनी झोपड़ी में लौट आई और बिना कुछ खाए-पिए लेट गई। सभी ने भय के वातावरण में रात काटी। असगर ठेकेदार ने सुबह जसदेव को सुकिया और मानो के चक्कर में न पड़ने की सलाह दी। जसदेव का व्यवहार बदलता चला गया। सूबेसिंह ने असगर ठेकेदार को हिदायत दे दी कि मानो और सुकिया को परेशान रखा जाए, उनके साथ किसी भी प्रकार की रियायत की जरूरत नहीं है। सूबेसिंह उन्हें तंग करने के नित्य नए बहाने दूँढ लेता था। सुकिया से इंट पाथने का साँचा वापस ले लिया गया। वह साँचा जसदेव को दे दिया गया। अब तो जसदेव उन पर हुक्म चलाने लगा।
एक दिन मानो ने ईंट पाथने की जगह पर जाकर देखा कि उसकी सारी ईटें टूटी-फूटी पड़ी हैं। ईंटों की ऐसी दुर्शाा देखकर वह दहाड़े मारकर रोने लगी। उसे लगा कि किसी ने उसके पक्की ईंटों के मकान के सपने को धराशायी कर दिया है। सुकिया भी वहाँ आया तो वह भी हक्का-बक्का रह गया। असगर ठेकेदार ने साफ-साफ कह दिया कि हम टूटी-फूटी ईंटों की मजदूरी नहीं देंगे क्योंकि ये हमारे काम की नहीं हैं। सुकिया सारा माजरा समझ गया और मानो का हाथ पकड़कर बोला कि ये लोग हमारा घर नहीं बनने देंगे। वे दोनों उस भुटे को छोड़कर खानाबदोश की तरह एक दिशाहीन यात्रा पर चल पड़े। जसदेव की चुप्पी ने उनके विश्वास को टुकड़े-टुकड़े कर दिया था।
खानाबदोश सप्रसंग व्याख्या
1. भटठ का काम खत्म होते ही औरतें चूल्हा-चौका संभाल लेती थीं। कहने भर के लिए चूल्हा-चौका था। इटों को जोड़कर बनाए चूल्हे में जलती लकड़ियों की चिट-पिट जैसे मन में पसरी दुश्चिताओं और तकलीफों की प्रतिध्वनियाँ थीं जहाँ सब कुछ अनिश्चित था। मानो अभी तक इस भटे की जिंदगी से तालमेल नहीं बैठा पाई थी। बस, सुकिया की ज़िद के सामने वह कमज़ोर पड़ गई थी। साँझ होते ही सारा माहौल भाँय-भाँय करने लगता था। दिन-भर के थके-हारे मज़दूर अपने-अपने दड़बों में घुस जाते थे। साँप-बिच्छू का डर लगा रहता था। जैसे समूचा जंगल झोंपड़ी के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया है। ऐसे माहौल में मानो का जी घबराने लगता था। लेकिन करे भी तो क्या! न जाने कितनी बार सुकिया से कहा था मानो ने, “अपने देस की सूखी रोटी भी परदेस के पकवानों से अच्छी होती है।”
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा रचित कहानी ‘खानाबदोश’ से अवतरित है। इसमें भ्टे पर काम करने वाले मजदूरों के घरों की दयनीय दशा पर प्रकाश डाला गया है।
व्याख्या – भट्डे का काम दिन भर चलता था। सायंकाल काम खत्म होते ही औरतें खाना बनाना शुरू कर देती थीं। चूल्हा-चौका तो केवल नाम लेने भर के लिए था। ईंटों को जोड़कर चूल्हा बनाया जाता था। उसमें लकड़ियाँ जलती रहती थीं। वे लकड़ियाँ चिट-पिट करती रहती थीं। ये आवाजें मन की चिंताओं और कष्टों को बताती जान पड़ती थीं। यहाँ कुछ भी निश्चित नहीं था। भुटे पर काम करने वाली मानो अभी तक भटे की जिंदगी से ताल-मेल नहीं बिठा पाई थी, अर्थात् उसका मन यहाँ अभी तक नहीं लगा था। वह सुकिया की जिद के कारण यहाँ रह रही थी।
दिन भर तो चहल-पहल रहती थी, पर शाम होते ही यहाँ के वातावरण में सन्नाटा पसर जाता था। सारा दिन मेहनत-मजदूरी करने के बाद शाम को अपने दड़बेनुमा झोंपड़ियों में अंदर घुस जाते थे। यहाँ पर साँप-बिच्छू का भी डर बना रहता था। अंधेरे में ऐसा प्रतीत होता था कि मानो सारा जंगल वहीं झोंपड़ियों के इर्द-गिर्द आकर खड़ा हो गया हो। इस प्रकार के सुनसान वातावरण में मानो का मन घबराने लगता था। उसने तो अपने पति सुकिया से अनेक बार कहा था कि परदेश के अच्छे पकवानों से अपने गाँव की सूखी रोटी भी अच्छी होती है, पर वह इस तर्क को नहीं मानता था।
विशेष :
1. भूटे पर काम करने वाले मजदूरों की बस्ती का यथार्थ अंकन किया गया है।
2. सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।
2. समूचा दिन अवृश्य भय और दहशत में बीता था। जसदेव को हलका बुखार हो गया था। वह अपनी झोंपड़ी में पड़ा था। सुकिया उसके पास बैठा था। आज की घटना से मजदूर डर गए थे। उन्हें लग रहा था कि सूबे सिंह किसी भी वक्त लौटकर आ सकता है। शाम होते ही भडेे पर सन्नाटा छा गया था। सब अपने-अपने खोल में सिमट गए थे। बूढ़ा बिलसिया, जो अकसर बाहर पेड़ के नीचे देर रात तक बैठा रहता था। आज शाम होते ही अपनी झोंपड़ी में जाकर लेट गया था। उसके खाँसने की आवाज भी आज कुछ धीमी हो गई थी। किसनी की झोंपड़ी से ट्रांजिस्टर की आवाज भी नहीं आ रही थी।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा रचित कहानी ‘खानाबदोश’ से अवतरित है। मानो पर भ्टु मालिक मुखतार के बेटे सूबेसिंह की बुरी नज़र को भापंकर उसके साथ काम करने वाला जसदेव सूबेसिंह के पास चला गया था। इस पर सूबेसिंह को क्रोध चढ़ गया और उसने जसदेव को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया था। यहाँ उसी घटना के बाद की स्थिति का वर्णन है।
व्याख्या – जसदेव की पिटाई के बाद मजदूरों में डर पैदा हो गया था। उस दिन सारे समय डर और दहशत का वातावरण बना रहा। लोगों के मन में अज्ञात भय समाया हुआ था। मार की वजह से जसदेव को हलका बुखार भी हो गया था। वह अपनी झोंपड़ी में लेटा हुआ था। सुकिया उसके पास बैठा था। आज की इस मारपीट की घटना ने सभी मजदूरों को डरा दिया था। तब तो सूबेसिंह चला गया था, पर उन्हें यह डर था कि वह कभी लौट कर आ सकता है, शाम होते ही सारा भट्डा सुनसान एवं शांत हो गया। सभी अपनी-अपनी झोंपड़ियों में सिमट कर रह गए। बूढ़ा बिलसिया भी शाम होते ही अपनी झोंपड़ी में जाकर लेट गया। यद्यपि वह रात देर तक पेड़ के नीचे बैठा रहता था। आज वह खुलकर खंस भी नहीं रहा था। हर ओर चुप्पी थी, किसनी की झोंपड़ी से ट्रांजिस्टर की आवाज भी नहीं आ रही थी, अर्थात् चारों ओर शांति थी।
विशेष :
1. जसदेव की पिटाई के बाद के वातावरण का सजीव चित्रण किया गया है।
2. सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।
3. कड़ी मेहनत और विन-रात भटे में जलती आग के बाद जब भटुा खुलता था तो मज़दूर से लेकर मालिक तक की बेचैन साँसों को राह? मिलती थी। भुडे से पकी इटटों को बाहर निकालने का काम शुरू हो गया था। लाल-लाल पक्की इंटों को देखकर सुकिया और मानो की खुशी की इंतहा नहीं थी। खासकर मानो तो ईंटों को उलट-पुलटकर देख रही थी। खुव के हाथ की पथी इँटों का रंग ही बवल गया था। उस बिन ईंटों को देखते-वेखते ही मानो के मन में बिजली की तरह एक खयाल कौंधा था। इस खयाल के आते ही उसके भीतर जैसे एक साथ कई-कई भडे जल रहे थे। उसने सुकिया से पूछा था, “एक घर में कितनी ईंटें लग जाती हैं?”
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा रचित कहानी ‘खानाबदोश’ से लिया गया है। कच्ची इंटों को भुटे में पकाकर जब बाहर निकाला जाता है तब उस समय की स्थिति का चित्रण यहाँ किया गया है।
व्याख्या – ईटों को पाथने में कड़ी मेहनत करने के बाद उन्हें भुटे की दिन-रात जलने वाली आग में पकाया जाता है। इसके बाद भाटे को खोला जाता है। भुटा खोलने के समय मजदूर से लेकर मालिक तक बेसब्री से इंटों के बाहर निकलने की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। भुटे में इट पक गई थीं और उन्हें बाहर निकालने का काम शुरू हो गया था। भुटे से लाल-लाल पक्की इंें निकल रही थी। इन्हें देखकर मानो और सुकिया को बहुत प्रसन्नता हो रही थी। मानो उन ईंटों को उलट-पुलट कर देख रही थी। उसी ने उन इंटें को बनाया था। अब उन ईंटों का रंग ही बदल गया था। अब वे पककर लाल हो गई थी। उस दिन उन पक्की ईटें को देखकर मानो के मन में एक विचार तेजी से आया था। वह अनुभव कर रही थी कि उसके मन में एक साथ कई भूटे जल उठे हैं। वह उन ईटों से अपना घर बनाना चाहती थी। वह सुकिया से जानना भी चाहती है कि एक घर के बनाने में कितनी इंटें लग जाती हैं। वह उतनी ईंटों की व्यवस्था करके अपना घर बनाना चाहती थी।
विशेष :
1. भडे की क्रिया-प्रणाली के बारे में बताया गया है।
2. मानो के मन में पनपी इच्छा का संकेत किया गया है।
3. भाषा सरल एवं सुबोध है।
4. सुकिया के पीछे-पीछे चल पड़ने से पहले मानो ने जसवेव की ओर देखा था। मानो को यकीन था, जसदेव उमका साथ देगा। लेकिन जसदेव को चुप देखकर उसका विश्वास टुकड़े-दुकड़े हो गया था। मानो के सीने में एक टीस उभरी थी। सर्द साँस में बदलकर मानो को छलनी कर गई थी। उसके होंठ फड़फड़ाए थे कुछ कहने के लिए लेकिन शब्द घुटकर रह गए थे। सपनों के काँच उसकी आँख में किरकिरा रहे थे। वह भारी मन से सुकिया के पीछे-पीछे चल पड़ी थी, अगले पड़ाव की तलाश में, एक दिशाहीन यात्रा पर।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कहानी खानाबदोश’ से अकतरित है। इसके रचयिता ओमप्रकाश वाल्मीकि हैं। मानो और सुकिया भुटा मजदूर हैं। वे भुटा मालिक के बेटे सूबेसिंह के दुर्व्यवहार से तंग होकर भड़ा छोड़कर कहीं और चलने के लिए उद्यत होते हैं।
व्याख्या – मानो अपने पति सुकिया के पीछे-पीछे चलने को तैयार हुई, तो उसने जसदेव की ओर देखा। उसे यह भरोसा था कि जसदेव उनके साथ अवश्य आएगा। उनका यह भरोसा निरर्थक सिद्ध हुआ क्योंकि जसदेव चुप खड़ा रहा। न वह आया और न उसने कुछ भी कहा। मानो के हृदय में दुख अवश्य हुआ था। यह वही जसदेव था जिसने उसे बचाने के लिए सूबेसिंह से मार खाई थी। मानो का दिल छलनी होकर रह गया। वह कुछ कहना तो चाहती थी, पर कुछ कह नहीं पाई। उसके शब्द उसके भीतर ही रह गए। उसका मकान बनाने वाला सपना टूट कर चकनाचूर हो गया था। अब तो उस टूटे काँच (सपने रूपी) के टुकड़े मानो की आँखों में चुभ रहे थे। वे किरकिरी की तरह प्रतीत हो रहे थे। अब वह निराश होकर विवशता में सुकिया के पीछे-पीछे चलने लगी। उसे पता नहीं था कि वह कहाँ जा रही है। उसकी यात्रा की कोई निश्चित दिशा नहीं थी। वह अब नया पड़ाव ढूंढ़ने चल पड़ी थी। विशेष-भूटे से चलते समय मानो की मनःस्थिति का मार्मिक चित्रण किया गया है।
5. साँझ होते ही सारा माहौल भाँय-भाँय करने लगता था। विन भर के थके-माँचे मजदूर अपने-अपने वड़बों में घुस जाते थे। साँप-बिच्छू को डर लगा रहता था। जैसे समूचा जंगल झोंपड़ी के दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया है। ऐसे माहौल में मानो का जी घबराता था। लेकिन करें भी तो क्या, न जाने बार सुकिया से कहा था मानो ने “अपने देश की सूखी रोटी भी परवेश के पकवानों से अच्छी होती है।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा रचित कहानी ‘खानाबदोश’ से लिया गया है। इसमें भट्टे पर काम करने वालों की जिंदगी का यथार्थ चित्रण किया गया है।
व्याख्या : भट्ठे का काम तो दिनभर चलता रहता था। सायंकाल सभी मजदूर अपनी-अपनी झोंपड़ी में लौट आते थे। स्त्रियाँ ईंटों के बनाए चूल्हे पर रोटियाँ बनाने में जुट जाती थीं। सायंकाल सारा वातावरण सूना हो जाता था। भाँय-भाँय सा सन्नाटा व्याप्त हो जाता था। ऐसा वातावरण डर पैदा करता था। सभी मजदूर अपनी-अपनी झोंपड़ी में घुस जाते थे। ये झोंपड़ियाँ दड़बों जैसी छोटी जोति हैं। यहाँ साँप-बिच्छू निकल आने का डर भी बना रहता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो पूरा का पूरा जंगल झोंपड़ी के दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया है। इस वातावरण में सुकिया की पत्नी का जी बहुत घबराता लेकिन कोई अन्य उपाय भी तो उनके पास नहीं हैं। मानो वे अपने पति सुकिया से कई बार कहा भी है कि चलो अपने देश लौट चलते हैं। अपने देश की सूखी रोटी परदेश के पकवान से भी अच्छी होती हैं अर्थात् हम वहाँ सूखी रोटी खाकर गुजर कर लेंगे। यहाँ कुछ नहीं देखा।
विशेष :
1. भट्ठे पर काम करने वालों की दयनीय दशा का चित्रण किया गया है।
2. सरल भाषा-शैली अपनाई गई है।