बादल को घिरते देखा है Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 17 Summary
बादल को घिरते देखा है – नागार्जुन – कवि परिचय
प्रश्न :
कवि नागार्जुन के जीवन एवं साहित्य का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर :
श्री नागार्जुन का वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। इनका जन्म बिहार के दरभंगा जिले के तरौनी नामक ग्राम में सन् 1911 में हुआ था। एक रूढ़िवादी मैथिल ब्राह्मण के घर में जन्मे और वहीं पालित-पोषित हुए। नागार्जुन और ‘यात्री’ नाम से उन्होंने साहित्य-सुजन किया है। इनकी माता का देहावसान उनकी चार वर्ष की अल्पायु में ही हो गया था। अपने जीवन के कटु संघर्षों की झांकी उन्होंने इस प्रकार व्यक्त की है-
पैदा हुआ था मैं दीन-हीन अपठित किसी कृषक-कुल में
आ रहा हूँ पीता अभाव का आसव ठेठ बचपन से
कवि! मैं रूपक हूँ दबी हुई दूब का
जीवन गुजरता प्रतिपल संघर्ष में!!
मेरा क्षुद व्यक्तित्व
रुद्ध है सीमित है-
आटा दाल नमक लकड़ी के जुगाड़ी में।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय संस्कृत पाठशाला में हुई। नागार्जुन के जीवन की प्रमुख विशेषता फक्कड़पन और घुमक्कड़ी रही। उन्होंने कई बार संपूर्ण भारत का भ्रमण किया। 1936 ई. में बाबा श्रीलंका यए और वहाँ पर उन्होंने बौद्ध धर्म में दीक्षा ली। वहाँ से 1938 में स्वदेश लौट आए। राजनीतिक कार्यकलापों के कारण कई बार उनको जेल-यात्रा भी करनी पड़ी। अपने परिवार के अतिरिक्त बाह़र के लोगों के भी वे प्रिय ‘बाबा’ हैं और नागा बाबा की स्नेह-वर्षा सब पर समान रूप से होती है। कलम के बल पर उन्होंने अपने परिवार का बोझ संभाला है और फिर भी अपने भीतर के रचनाकार को सप्राण बनाए रखा। 15 नवंबर, 1998 को आपका स्वर्गवास हो गया।
व्यक्तित्व – एक सच्चे मानववादी के रूप में नागार्जुन ने अपने और दूसरे लोगों के जीवन में व्याप्त दरिद्रता, अज्ञान और निष्क्रियता के कारणों को देखा। उन्होंने समाज में व्याप्त अंतर्विरोधों को पहचाना और यह समझा कि समाज में दो तरह के प्राणी हैं, एक वे जो खुद परिश्रम करते हैं और दूसरे वे जो खुुद परिश्रम नहीं करते। उन्होंने अपनी बहुत सी कविताओं में इस अन्तर्विरोध पर तीखी चोट की है और भावी समाज में जनता के प्रति न्याय करने के लिए यह आधार सुझाया है कि बड़े-बड़े जमींदारों-व्यापारियों और ठेकेदारों की संपत्ति जब्त करके सब पर जनता का स्वामित्व लागू किया जाए।
मजदूरी करने वाले को बेकार न रखा जाए, सब प्रकार के भेदभाव का अंत किया जाए। जहाँ वे जनता को अपनी दुर्दशा के खिलाफ संघर्ष करते देखते हैं वहाँ वे पूरे उत्साह से उसका स्वागत और समर्थन करते हैं और उसे वह राह दिखाते हैं कि वह किस तरह आगे बढ़कर इतिहास की रचना कर सकता है। जनसंघर्ष में अडिग आस्था, जनता से गहरा लगाव और एक न्यायपूर्ण समाज का सपना-ये तीन गुण नागार्जुन के व्यक्तित्व में ही नहीं, उनके साहित्य में भी अभिन्न रूप में घुले-मिले हैं।
खुद नागार्जुन ने किसान आंदोलनों में सक्रिय तौर पर भाग लेकर, जेल जाने से लेकर जनसंगठन करने तक, आंदोलन के सभी पक्षों का हिस्सेदार बनकर जो शक्ति और ऊर्जा पाई है, वह आज तक उनकी सारी कविताओं में मौजूद है। उनके बारे में डॉ॰ रामविलास शर्मा ने ठीक लिखा है कि “नागार्जुन जितने क्रांतिकारी सचेत रूप से हैं, उतने ही अचेत रूप से भी हैं।” इस क्रांतिकारिता का आधार है, जनता और उसके आंदोलनों के साथ कवि नागार्जुन का अटूट संबंध। इस संबंध ने नागारुुन को और उनकी कविता को एक विशेष स्वर और चरित्र प्रदान किया। उनकी यह विशेषता सबसे अधिक उनकी व्यंग्य कविताओं में प्रकट होती है-खासकर राजनीतिक व्यंग्य में।
जनता से अटूट संबंध कायम करके नागार्जुन ने जनता की मनोभावनाओं को समझने की अद्भुत शक्ति विकसित की है और भारतीय जनता की सांस्कृतिक परंपराओं को गहराई से हृदयंगम किया है। यही कारण है कि अपनी राजनीतिक कविताओं में भी वे पौराणिक प्रतीकों का ऐसा सधा हुआ उपयोग करते हैं कि वे प्रयल्लूर्वक अलग से लाए हुए नहीं मालूम पड़ते-
‘महँगाई की सूपनखा को कैसे पाल रही हो
सत्ता का गोबर जनता के मत्थे डाल रही हो’
सन् 1935 में उन्होंने ‘दीपक’ (हिंदी मासिक) तथा 1942-43 में ‘विश्वबंधु’ (साप्ताहिक) पत्रिका का संपादन किया। अपनी मातृभाषा मैधिली में वे वैद्यनाथ मिश्र ‘ यात्री’ के नाम से रचना करते रहे। मैथिली में नवीन भावबोध की रचना का प्रारंभ उनके महत्त्वपूर्ण कविता-संग्रह ‘चित्रा’ से माना जाता है। ‘पत्रहीन नग्न ग़ध’ मैधिली कविता संग्रह के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और बाद में वे भारत-भारती, राजेंद्र प्रसार शिखर सम्मान आदि कई पुरस्कारों से सम्मानित किए गए। नागार्जुन ने संस्कृत तथा बंगला में भी काव्य-रचना की है।
साहित्यिक वैशिष्ट्य-लोकजीवन और प्रकृति उनकी रचनाओं की नस-नस में रची-बसी है। विषय की जितनी विराटता और प्रस्तुति की जितनी सहजता नागार्जुन के रचना-संसार में है, उतनी शायद ही कहीं और हो। छायावादोत्तर काल के वे अकेले कवि हैं जिनकी कविता ग्रामीण चौपाल से लेकर विद्वानों की बैठक तक में समान रूप से आदर पाती है। जटिल से जटिल विषय. पर लिखी गई उनकी कविताएँ इतनी सहज, संप्रेषणीय और प्रभावशाली होती हैं कि वे पाठकों के मानस लोक में बस जाती हैं।
नागार्जुन की कविता की सर्वर्रमुख विशेषता मानव-जीवन से उनका गहन भाव से संयुक्त होना है। संसार के सघन, संपूर्ण और वैविध्यपूर्ण प्रसार को ही कवि ने अपनी कविता में चित्रित किया है। वे साहित्य और राजनीति में समान रूप से रुचि रखनेवाले प्रगतिशील साहित्यकार हैं। वे धरती, जनसामान्य और श्रम के गीत गाने वाले संवेदनशील कवि हैं। उनके काव्य में कबीर की-सी सहजता है। उनकी रचनाओं में तीक्ष्ण व्यंग्य पाया जाता है। उन्होंने कई आंदोलन-धमी कविताएँ भी लिखी हैं, जिन्हें ‘पोस्टर-कविता’ कहा जाता है।
नार्गार्जुन चाहे जिस विधा में रचना करें गरीब, शोषित समाज ही उनकी रचनाओं का केंद्रबिंदु है। वे देश के बिगड़ते माहौल और उसके कारणों की पड़ताल करते हैं। यद्यपि उन्हें आंचलिक उपन्यासकार की संज्ञा दी जाती है, परंतु उनके द्वारा निरूपित ग्राम्य समाज केवल मिधिला प्रदेश का ही ग्राम्य समाज नहीं है, वह भारत के सभी गाँवों का, उनकी अच्छाइयों-बुराइयों का प्रतििनिधित्व करते गैं। उन्हें आंचलिक कथाकार न कहकर ‘भारतीय गाँवों का चितेरा’ कहना अधिक समीचीन होगा। वे सामान्य जीवन जीना पसंद करते हैं। उनके पुत्र शोभाकांत अपने पिता के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए कहते हैं-“ बावूजी ने शुरू से अब तक संपन्न खास बनने के बजाय महज सामान्य आदमी बनना चाहा।”
भाषा-शैली – कवि नागार्जुन का मैथिली और हिंदी पर समान अधिकार था। उन्होंने बंगला और संस्कृत में भी कविताएँ रची हैं। सामान्यतः उनके काव्य की भाषा खड़ी बोली है। कहीं-कहों अरबी व फारसी के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इनकी भाषा में सरलता, सरसता तथा चित्रात्मकता देखते ही बनती है।
नागार्जुन की कविता में धारदार व्यंग्य मिलता है। लोक मंगल, उनकी कविता की मुख्य विशेषता है। उन्होंने विभिन्न छंदों में काव्य रचना की है और मुक्त छंद में भी। उनकी काव्य भाषा में संस्कृत काव्य परंपरा की प्रतिध्वनि मिलती है तो दूसरी ओर बोलचाल की भाषा की रवानी।
रचनाएँ – उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं-युगधारा, प्यासी पथराई आँखें, सतरंगे पंखों वाली, तालाब की मछलियाँ, हजार-हजार बाँहों वाली, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, रतगर्भा, ऐसे भी हम क्या ऐसे भी तुम क्या, पका है कटहल, मैं मिलटरी का बूढ़ा घोड़ा, भस्मांकुर (खंडकाव्य)। मैथिली में उनकी कविताओं के दो संकलन हैं: चित्रा, पत्रहीन नग्न गाछ, वलचनमा, रतिनाथ की चाची, कुभी पाक, उग्रतारा, जमनिया का बाबा, वरुण के बेटे (हिंदी), पारो, नवतुरिओ, बलचनमा (मैथिली) जैसे उनके उपन्यास विशेष महत्त्व के हैं।
Badal Ko Ghirte Dekha Hai Class 11 Hindi Summary
कविता का संक्षिप्त परिचय :
यहाँ उनकी प्रसिद्ध कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ दी गई है। इस कविता के माध्यम से उन्होंने हिमालय की पहाड़ियों, दुर्गम बर्फीली घाटियों, झीलों, झरनों तथा देवदारु के जंगलों के बीच दुर्लभ वनस्पतियों, जीव-जंतुओं, किन्नर-किन्नरियों तथा वहाँ व्याप्त समस्त जीवन-जगत का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है। ऐसा लगता है कि कवि उनके बीच जिया है और जो जिया है वही कवि-सत्य बनकर कविता में अभिम्यक्त हुआ है। साहित्य परंपरा में बादल का कोमल रूप ही अब तक सामने आया था, किंतु नागार्जुन ने उसके साथ ही बादल की विकरालता, बीहड़ता यानी जिन-जिन रूपों में देखा, जिया उन-उन रूपों का विशद, विस्तृत वर्णन किया है। सही मायने में कालिदास की परंपरा से नागार्जुन आगे बढ़ते हैं, उनसे अलग होते हैं, यह कविता उसका प्रमाण है।
कविता का सार :
यह कविता नागार्जुन के कविता संग्रह ‘युगधारा’ से संकलित है। यह कविता प्रकृति चित्रण का सुंदर उदाहरण है। वर्षा ऋतु आने पर सारी प्रकृति जैसे अपनी विरहाग्नि शांत करती नजर आती है, इसी भाव को कवि ने विविध बिम्ब्रों से व्यक्त किया है। पावस की उमस को शांत करते हुए हंस, चकवा-चकई का प्रणय-कलह, हिमालय की गोद में विचरण करते हुए हिरण, गगनचुंबी कैलाश शिखर पर मेष, किन्नर-किन्नरियों के बिम्ब अत्यंत आकर्षक बन पड़े हैं।
कवि बताता है कि जब स्वच्छ और धवल शिखरों पर वर्षाकालीन मेष छा जाते हैं तो संपूर्ण प्रकृति उल्लास से भर जाती है। मानसरोवर के सुनहरे कमलों पर ओस कण मोतियों के समान झलकते हैं। पावस की उमस से व्याकुल समतल प्रदेशों के हंस झील में तैरते मृणाल दंडों को खोजते हुए यहाँ तक आ जाते हैं। रात भर विरह की पीड़ा झेलने वाले चकवा-चकवी उषाकाल होते ही अपनी केलि-क्रड़़ा में मग्न हो जाते हैं। सैंकड़ों-हजारों फुट दुर्गम बर्फीली घाटी में अपनी ही नाभि से उउने वाले मादक परिमल को न पा सकने पर युवा मृग खीझता रहता है।
पर्वतों पर छाई घटा कालिदास की काव्यकृति ‘ मेघदूत’ की याद दिला देती है। कवि ने भीषण जाड़ों में कैलाश पर्वत पर गरजते मेघों को झंंशावात से भिड़ते देखा है। पर्वतीय शोभा पर मु’्ध कवि को किन्नर-किन्नरियों का विलासपूर्ण जीवन याद आ जाता है। वे मस्ती के वातावरण में द्राक्षासव तथा संगीत का आनंद उठाते दिखाई देते हैं।
बादल को घिरते देखा है सप्रसंग व्याख्या
बादल को घिरते देखा है –
1. अमल-धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शब्दार्थ :
- अमल = स्वच्छ, निर्मल (Clean, pure)।
- धवल = सफेद (White)।
- गिरि = पर्वत (Mountain)।
- शिखर = चोटी (Peak)।
- तुहिन = बर्फ (Snow)।
- स्वर्णिम = सुनहरी (Golden)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश श्री नागार्जुन द्वारा रचित कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ से लिया गया है।.कवि ने इस कविता में पर्वत के शिखरों पर उमड़ने-घुमड़ने वाले मेघों की विविध छवियों के सजीव एवं आकर्षक बिम्ब चित्रित किए हैं। इन पंक्तियों में कवि ने पर्वतों की प्राकृतिक सुषमा को व्यक्त किया है।
व्याख्या-वर्षा ऋतु का स्वानुभूत वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि मैंने वर्षा ऋतु में स्वच्छ और श्वेत हिमालय पर्वत पर बादलों को घिरते हुए देखा है, पर्वत शिखर पर घिरा हुआ बादल अत्यंत मनोहर प्रतीत होता है। मैंने बादलों को मोती के समान शीतल बर्फ के कणों के रूप में मानसरोवर के सुनहरे कमलों पर गिरते हुए देखा है। इन पर्वत शिखरों पर घिरे बादल अत्यंत सुंदर एवं मनमोहक दृश्य उपस्थित कर देते हैं।
काव्य-सौंदर्य-पर्वतीय प्रदेश में ऊँची-ऊँची चोटियों की उज्ज्वल और निर्मलता तथा ओस कणों के सौददर्य का सजीव चित्रण हुआ है। ‘छोटे-छोटे मोती’ जैसे में उपमा अलंकार है। ‘छोटे-छोटे’ में पुनरक्ति प्रकाश अलंकार है। ‘अमल धवल’ में अनुप्रास अलंकार है।
2. तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर बिसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
शब्दार्थ :
- तुंग = ऊँचे (High)।
- हिमालय के कंधे = हिमालय की घाटियाँ (Shoulder of Himalayas)।
- श्यामल = सांवला (Blackish)।
- सलिल = पानी (Water)।
- समतल देश = मैदानी इलाके।
- ऊमस = गमीं में वर्षा की घुटन (Extreme Summer)।
- पावस = वर्षा (Rainy Season)।
- तिक्त = तीखे (Sharp)।
- मधुर = मीठा (Sweet)।
- विषतंतु = कमलनाल (Lotus)।
प्रसंग-पूर्ववत्।
व्याख्या-कवि कहता है कि ऊँचे हिमालय की घाटियों में अनेक छोटी-बड़ी झीलें हैं। इन झीलों के सांवले-नीले जल में वर्षा ऋतु की उमस की घुटन से ऊबकर मैदानी इलाकों से कई हंस तैरने चले आते हैं। तीखे-मीठे-स्वाद वाले कमल-नालों को खोजते हुए तैरने वाले इन हंसों की जल-क्रीड़ा का दृश्य अत्यंत आकर्षक लगता है।
भाव यह है कि हंस वर्षा ऋतु में मैदानी उमस से तंग आकर उड़कर हिमालय की शीतल झीलों में चले आते हैं, जहाँ वे नीले जल में तैरते हुए सुंदर लगते हैं।
काव्य-सौंदर्य :
- शांत और गहरी झीलों में नीले पानी में तैरते हुए हंसों का सजीव चित्रण हुआ है। श्यामल नील, विशेषण साभिप्राय है, इनसे जल की गहराई ध्वनित होती है।
- प्रकृति का मानवीकरण किया गया है। हिमालय को एक उदार पुरुष मानकर उसके कंधों पर कई झीलों की कल्पना की गई है। अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है।
- झीलों की श्यामलता और नीलिमा क्रमशः जल की सघनता और निर्मलता की प्रतीक है।
- भाषा संस्कृतनिष्ठ प्रसादगुण युक्त है।
3. ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णिम शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा काल से चिर अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
शब्दार्थ :
- अनिल = वायु (Air)।
- बालारुण = प्रभात का सूर्य (Morning sun)।
- विरहित = अलग होकर (Departed)।
- निशाकाल = रात्रि का समय (Night)।
- चिर-अभिशापित = बहुत समय से शाप का दुख भोगने वाला।
- चकवा-चकई = चक्रवाक और चक्रवाकी का जोड़ा जो रात्रि होने पर बिछुड़ जाता है।
- क्रंदन = चीत्कार (Cry)।
- सरवर = तालाब (Pond)
- शैवाल = काई (Algae)।
- प्रणय-कलह = प्रेम भरी तकरार (Love)।
प्रसंग-पूर्ववत्।
व्याख्या – कवि वसंत के एक सुंदर दृश्य को प्रस्तुत करते हुए कहता है-वसंत ऋतु का एक सुहावना प्रभात था, वायु मंद-मंद बह रही थी। प्रातःकालीन सूर्य की किरणें सर्वत्र फैली हुई थीं, जिसके कारण आस-पास की चोटियाँ सुनहरी हो गई थीं और शोभित हो रही थीं। ऐसे वातावरण में एक अनोखा दृश्य देखने को मिला।
चकवा-चकवी जिन्हें भाग्य के अभिशाप से एक-दूसरे से बिद्छुड़ कर सारी रात बितानी होती है, जो वियोग में रात्रि भर क्रंदन करते हैं, वे अब सूर्योंदय होने के कारण शांत एवं प्रसन्नचित्त हैं। रात्रि भर का वियोग सहने के पश्चात् प्रातः होते ही चकवा-चकवी पुन: मिल जाते हैं। कवि उन दोनों को मानसरोवर के तट पर हरी-हरी काई रूपी दरी पर बैठकर प्रेम भरी तकरार करते हुए देखता है। चिर अभिशापित चकवा-चकवी का पुनर्मिलन अत्यन्त प्रिय प्रतीत होता है।
काव्य-सौंदर्य :
- चकवा-चकवी के प्रणय-कलह का दृश्य सजीव बन पड़ा है।
- वसंत ऋतु मादक होती है। यह प्रेम-केलि के लिए प्रेरित करती है। उनका मिलन प्रातः ही हो पाता है।
- चकवा-चकवी में अनुप्रास अलंकार है।
4. दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शब्दार्थ :
- दुर्गम = जहाँ जाना कठठिन हो (Difficult to go)।
- अलख नाभि = न दिखाई देने वाली नाभि।
- उन्मादक = मस्त कर देने वाली (Citing)।
- परिमल = सुगंध (Smell)।
- धावित = दौड़ते हुए (Running)।
प्रसंग-पूर्ववत्।
व्याख्या-कवि कहता है कि उसने दुर्गम बर्फीली घाटी में सैकड़ों-हजारों फुट ऊँचाई पर चंचल हिरणों को दौड़ते हुए देखा है। यह चंचल और युवा हिरण अपनी ही नाभि में बसी हुई कस्तूरी की मस्त कर देने वाली सुगन्ध के पीछे दौड़-दौड़कर भागता है और उसे कहीं भी न पाकर खीझ उठता है, उसे स्वयं पर ही चिढ़ हो जाती है। वास्तव में कस्तूरी की गंध उसकी नाभि से ही निसृत होती है, लेकिन भोला हिरण इस सत्य से अपरिचित होता है। वह उस गंध को पाने के लिए इधर-उधर दौड़ता फिरता है। कवि ने यह दृश्य अपनी आँखों से देखा है और उसकी कल्पना आँखों में संजोए हुए है।
काव्य-सौंदर्य :
- ‘कस्तूरी मृग’ के आचरण का सहज स्वाभाविक वर्णन किया गया है। वह अपनी अज्ञानता के कारण अपनी ही विशेषता से अनभिज्ञ रहता है। वह खीझता और दौड़ता है।
- ‘हो-होकर’ में अनुप्रास अलंकार है।
5. कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत परंतु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो, वह कवि-कल्पित था
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शब्दार्थ :
- धनपति = धन का स्वामी (God of wealth)।
- कुबेर = यक्षों का राजा।
- अलका = कुबेर की वैभवशाली नगरी।
- व्योम-प्रवाही = आकाश में प्रवाहित होने वाली (आकाश गंगा)।
- कल्पित = कल्पनापूर्ण (Imaginary)।
- नभचुंबी = आकाश को चूमने वाले (Very High)।
- कैलाश शीर्ष = कैलाश पर्वत की चोटी।
- महामेघ = विशाल बादल (Thick Clouds)।
- झंझानिल = तूफानी हवा (Storm)।
प्रसंग – पर्वत शिखरों पर छाई मेघमाला कवि के हृदय में कालिदास द्वारा रचित विरह-काल्य ‘मेघदूत’ का स्मरण करा देती है। कवि पर्वतीय प्रदेश में ‘मेघदूत’ के पात्रों एवं स्थानों को खोजने का प्रयास करता है, जिसमें उसे निराशा ही हाथ लगती है।
व्याख्या – कवि निराशा के स्वर में कहता है कि न जाने वह धनपति कुबेर, जिसने यक्ष को निर्वासन का दंड दिया था, कहाँ चला गया? उसकी वैभव नगरी अलकापुरी का भी कोई चिह्न दिखाई नहीं देता। कालिदास ने अपने प्रसिद्ध विरह-काव्य ‘मेघदूत’ में जिस आकाश गंगा का वर्णन किया है, वह भी न जाने कहाँ बहती है? उस आकाश गंगा का जल कहीं भी दिखाई नहीं देता। ‘मेघदूत’ के पात्रों एवं स्थलों को प्रयास करने के उपरांत भी कवि नहीं खोज पाता है! जो मेत्र यक्ष का दूत बनकर अलकापुरी भेजा था वह मेघदूत भी न जाने कहाँ गया? संभवतः वह इसी पर्वत पर बरस पड़ा हो।
कवि कहता है कि ‘मेघदूत’ की चर्चा जाने दो। बादलों ने प्रेम-संदेश दिया हो या न दिया हो। शायद वह कालिदास की कल्पना में ही उपजा था। लेकिन मैंने इस पर्वत-प्रदेश में भीषण सर्दी में गगनचुंबी कैलाश शिखर पर मेघखंडों को तूफानों से टकराते हुए देखा है। मैंने पर्वतीय प्रदेश में घिरने वाली सघन मेघमाला को घहराते हुए स्वयं देखा है।
काव्य-सौंदर्य :
- कालिदास द्वारा रचित ‘मेघदूत’ में धनपति कुबेर ने यक्ष को एक वर्ष का निर्वासन-दंड दिया था। इस निर्वासन अवधि में यक्ष ने मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रिया के पास संदेश भिजवाया था। कवि ने पौराणिक घटना का उल्लेख किया है।
- महामेघ और झंझानिल का बिम्ब प्रभावशाली बन पड़ा है।
- ‘कवि कल्पित’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
6. शत-शत निईर-निईर्रणी कल
मुखरित देवदारु कानन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों से कुंतल को साजे,
इंदनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघढ़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल श्रेणी में,
रजत-रचित मणि-खचित कलामय
पान पात्र द्कक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपदी पर,
नरम निदाग बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आँखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अंगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शब्दार्थ :
- शत-शत = सैकड़ों (Hundreds)।
- निईर = झरने (Spring)।
- निईरणी = नदियाँ (Rivers)।
- कल = ध्वनि (Sound)।
- कानन = जंगल (Forests)।
- शोणित = लाल (Red)।
- कुवलय = नील कमल (Blue Lotus)।
- शतदल = कमल (Lotus)।
- रजत-रचित = चाँदी से निर्मित (Made of Silver)।
- मणि खचित = मणि जटित।
- द्राक्षासव = अँगूरी शराब (As wine)।
- पूरित = पूर्ण (Full)।
- लोहित = लाल (Red)।
- निदाग = दाग रहित।
- मदिरारुण = मदिरा के कारण लाल।
- उन्मद = मस्त।
- धवल = श्वेत (White)।
- कुंतल = बालों की लट।
- इंद्रनील = नीलमणि।
- सुघड़ = सुंदर (Beautiful)
प्रसंग-पूर्ववत्।
व्याख्या – कवि बताता है कि पर्वतीय प्रदेश में बहने वाले सैकड़ों झरने अपने जल-प्रवाह से देवदार के वनों में ध्वनि करते रहते हैं। वही देवदार के वृक्षों के नीचे लाल और श्वेत भोजपत्रों से निर्मित कुटी के भीतर, रंग-बिरंगे फूलों से सुगंधित किए केशों को सजाकर, – सुंदर शंख के समान गलों में इंद्र नीलमणियों के हार पहनकर, कानों में नील कमल और वेणी में शतदल लाल कमल टाँग कर, लाल चंदन की तिपाई पर चाँदी से बने हुए और मणियों से जड़े हुए कलापूर्ण मदिरा-पात्रों में अंगूरी शराब (द्राक्षासव) भरकर अपने सामने रखे हुए हैं। कवि ने नरम-नरम और बेदाग के छोटे कस्तूरी मृगों की छालाओं पर पालथी मारकर बैठकर, मदिरापान के कारण लाल – नेत्रों से मस्त किन्नर और किन्नरियों को वंशी पर अपनी कोमल और मनोहर अंगुलियों को फेरते हुए देखा है। कवि ने बादल को घिरते हुए देखा है।
काव्य-सौंदर्य :
- किन्नर-किन्नरियों के विलासमय जीवन का बिम्ब सजीव बन पड़ा है।
- उनके रहन-सहन, शृंगार एवं मौज-मस्ती के रूप का सुंदर एवं सजीव चित्रण हुआ है। चित्रण में कलात्मकता एवं सजीवता है।
- ‘शत-शत’, ‘अपने-अपने’ में पुनरुक्ति प्रकाश है।
- ‘निईर्रिर्ईरणी’, ‘शंख सरीखे’, ‘नरम निदाघ’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
- ‘शंख सरीखे सुघड़ गलों में’ में उपमा अलंकार है।
- भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं सरस है।