Class 11 Hindi Antra Chapter 14 Summary - Sandhya Ke Baad Summary Vyakhya

संध्या के बाद Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 14 Summary

संध्या के बाद – सुमित्रानंदन पंत – कवि परिचय

प्रश्न :
सुमित्रानंदन पंत के जीवन एवं साहित्य पर प्रकाश डालते हुए उनकी काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। उत्तर-जीवन-परिचय-पंत जी का जन्म अल्मोड़ा जिले के कौसानी गाँव में सन् 1990 को हुआ था। इनके पिता का नाम पं. गंगादत्त पंत तथा माता का नाम सरस्वती देवी था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई। नवीं कक्षा तक गवर्नमेंट हाई स्कूल अल्मोड़ा में तथा हाई स्कूल तक जय नारायण हाई स्कूल काशी में अध्ययन किया। इंटर में पढ़ने के लिए ये इलाहाबाद आ गए। म्योर कॉलेज इलाहाबाद में इंटर तक अध्ययन किया, परंतु परीक्षा पास न कर सके। 1922 ई. में पढ़ना बंद हो जाने पर ये घर लौट गए तथा स्वतंत्र रूप से बंगाली, अंग्रेजी तथा संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया।

प्रकृति की गोद, पर्वतीय सुरम्य वन स्थली में पले हुए पंत जी को बचपन से ही प्रकृति से अगाध अनुराग था। विद्यार्थी जीवन में ही ये सुंदर रचनाएँ करते थे। संत साहित्य और रवंद्र साहित्य का इन पर बड़ा प्रभाव था। पंत जी का प्रारम्भिक काव्य इन्हीं साहित्यिकों से प्रभावित था। पंत जी 1938 ई. में कालाकांकर से प्रकाशित ‘रूपाभ’ नामक पत्र के संपादक भी रहे। आप आकाशवाणी केंद्र, प्रयाग में हिंदी विभाग के अधिकारी भी रह चुके हैं। पंत जी जीवन भर अविवाहित रहे। हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि सरस्वती का वरद पुत्र 28 दिसंबर, 1977 की मध्यरात्रि में इस मृत्युलोक को छोड़कर स्वर्गवासी हो गया।

रचनाएँ – वीणा, ग्रंधि, पल्लव, गुंजन, युगवाणी, उत्तरा, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि आदि पंत जी के काव्य ग्रन्थ हैं। ज्योत्ना नामक इन्होंने एक नाटक भी लिखा है। कुछ कहानियाँ भी लिखी हैं। इस प्रकार पद्य और गद्य क्षेत्रों में पंत जी ने साहित्य सेवा की है, परंतु इनका प्रमुख रूप कवि का ही है।

साहित्यिक विशेषताएँ – प्राकृतिक सौंदर्य के साथ ही पंत मानव सौंदर्य के भी कुशल चितेरे हैं। छायावादी दौर के उनके काव्य में रोमानी दृष्टि से मानवीय सौंदर्य का चित्रण है, तो प्रगतिवादी दौर में ग्रामीण जीवन के मानवीय सौदर्य का यथार्थवादी चित्रण। कल्पनाशीलता के साथ-साथ रहस्यानुभूति और मानवतावादी दृष्टि उनके काव्य की मुख्य विशेषताएँ हैं। युग परिवर्तन के साथ पंत की काव्य चेतना बदलती रही है। पहले दौर में वे प्रकृति सौदर्य से अभिभूत छायावादी कवि हैं, तो दूसरे दौर में मानव-सौंदर्य की ओर आकर्षित और समाजवादी आदर्शों से प्रेरित कवि। तीसरे दौर की उनकी कविता में नई कविता की कुछ प्रवृत्तियों के दर्शन होते हैं, तो अंतिम दौर में वे अरविंद दर्शन से प्रभावित कवि के रूप में सामने आते हैं।

काव्यगत विशेषताएँ-भाव पक्ष –

प्रकृति-प्रेम
“छोड़ दुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया।
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन।
भूल अभी से इस जग को।”

उपर्युक्त पंक्तियाँ यह समझने के लिए काफी हैं कि पंत जी को प्रकृति से कितना प्यार था। पंत जी को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है। यद्यपि पंत जी का प्रकृति चित्रण अंग्रेजी कविताओं से प्रभावित है फिर भी उनमें कल्पना की ऊँची उड़ान है, गति और कोमलता है, प्रकृति का सौंदर्य साकार हो उठता है। प्रकृति मानव के साथ मिलकर एकरूपता प्राप्त कर लेती है और कवि कह उठता है-

‘सिखा दो ना हे मधुप कुमारि, मुझे भी अपने मीठे गान।’

प्रकृति प्रेंम के पश्चात् काव ने लौकिक प्रेम के भावात्मक जगत् में प्रवेश किया। पंत जी ने यौवन के सौंदर्य तथा संयोग और वियोग की अनुभूतियों की बड़ी मार्मिक व्यंजना की है। इसके पश्चात् कवि छायावाद और रहस्यवाद की ओर प्रवृत्त हुआ और कह उठा-

“न जाने नक्षत्रों से कौन, निमंत्रण देता मुझको मौन।”

आध्यात्मिक रचनाओं में पंत जी विचारक और कवि दोनों ही रूपों में आते हैं। इसके पश्चात् पंत जी जन-जीवन की सामान्य भूमि पर प्रगतिवाद की ओर अग्रसर हुए। मानव की दुर्दशा को देखकर कवि कह उठा-

“शव को दें हम रूप-रंग आदर मानव का
मामव को हम कुत्सित चित्र बनाते शव का।”
× × × ×
“मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति।
आत्मा का अपमान और छाया से रति॥”

गांधीवाद और मार्क्सवाद से प्रभावित होकर पंत जी ने काव्य रचना की है। सामाजिक वैषम्य के प्रति विद्रोह का एक उदाहरण देखिए-

“जाति-पाँति की कड़ियां दूटें, मोह, दोह, मत्सर छूटे,
जीवन के वन निई्ईर फूटे वैभव बने पराभव।”

कला-पक्ष

भाषा-पंत ज़ी की भाषा संस्कृत प्रधान, शुद्ध परिष्कृत खड़ी बोली है। शब्द चयन उत्कृष्ट है। फारसी तथा ब्रज भाषा के कोमल शब्दों को ही इन्होंने ग्रहण किया है। पंत जी का प्रत्येक शब्द नादमय है, चित्रमय है। चित्र योजना और नाद संगति की व्यंजना करने वाली कविता का एक चित्र प्रस्तुत है –

“उड़ गया, अचानक लो भूधर!
फड़का अपार वारिद के पर!
रव शेष रह गए हैं निई्रा।
है टूट पड़ा भू पर अम्बर!”

उनकी कविताओं में काव्य, चित्र और संगीत एक साथ मिल जाते हैं –

“सरकाती पट-
खिसकाती पट-
शरमाती झट
वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट?”

बिम्ब योजना-बिम्ब कवि के मानस चित्रों को कहा जाता है। कवि बिम्बों के माध्यम से स्मृति को जगाकर तीव्र और संवेदना को बढ़ाते हैं। ये भावों को मूर्त एवं जीवन्त बनाते हैं। पंत जी के काव्य में बिम्ब योजना विस्तृत रूप में उपलब्ध होती है।

स्पर्श बिम्ब-इसमें कवि के शब्द प्रयोग से छूने का सुख मिलता है –

“फैली खेतों में दूर तलक
मखमल सी कोमल हरियाली।”

वृश्य बिम्ब-इसे पढ़ने पर एक चित्र आँखों के सामने आ जाता है –

“मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग सुमन फाड़
अवस्ोेक रहा है बार-बार
नीचे के जल में महाकार।”

शैली, रस, छंद, अलंकार-इनकी शैली ‘गीतात्मक मुक्त शैली’ है। इनकी शैली अंग्रेजी व बंगला शैलियों से प्रभावित है। इनकी शैली में मौलिकता है और वह स्वतंत्र है।

पंत जी के काव्य में शृंगार एवं करुण रस का प्राधान्य है। शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सुंदर चित्रण हुआ है। छंद के क्षेत्र में पंत जी ने पूर्ण स्वच्छंदता से काम लिया है। उनकी ‘परिवर्तन’ कविता में ‘रोला’ छंद है-

“लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे।”

तो वहाँ मुक्त छंद भी मिलता है। ‘ग्रन्थि’ ‘राधिका’ छंद में सजीव हो उठी है-

“इन्दु पर, उस इन्दु मुख पर, साथ ही।”

पंत जी ने अनेक नवीन छंदों की उद्भावना भी की है। लय और संगीतात्मकता इन छंदों की विशेषता है।
अलंकारों में उपमा, रूपक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग जै। अनुप्रास की शोभा तो स्थान-स्थान पर दर्शनीय है। शब्दालंकारों में भी लय को ध्यान में रखा गया है। शब्दों में संगीत लहरी सुनाई देती है।
“लो छन, छन, छन, छन
छन, छन, छन, छन
थिरक गुजरिया हरती मन।”
सादृश्य मूलक अलंकारों में पंत जी को उपमा और रूपक अलंकार प्रिय हैं। उन्होंने मानवीकरण और विशेषण-विपर्यय जैसे विदेशी अलंकारों का भी भरपूर प्रयोग किया है।

Sandhya Ke Baad Class 11 Hindi Summary

‘संध्या के बाद’ कविता ‘ग्राम्या’ (1940) संकलन से ली गई है। ‘ग्राम्या’ संग्रह का मूल स्वर ग्रामीण जन-जीवन के विविध सामाजिक यथार्थ को उद्घाटित करता है। ‘संध्या के बाद’ कविता सांझ की जाती हुई लाली के विविध प्राकृतिक चित्र प्रस्तुत करती है। इन चित्रों में तरु-शिखर, स्वर्णिम-निझर एवं नील-लहरियों पर सांझ का प्रभाव गहरी व्यंजना के साथ दिखाया गया है। मंदिर में बजते शंख, घंट तथा दीपशिखा के नभ में ज्वलित कलश भी संध्या की लाली में आलोकित हुए हैं। शाम के समय घर लौटते पशु-पक्षियों और कृषकों के चित्रों ने कविता में सामाजिकता का विस्तार किया है। कविता अपने उत्तरांश की ओर बढ़ते हुए समाज के निम्न-मध्यवर्गीय जीवन की विडंबना की ओर उन्मुख हो जाती है। कवि ने दैन्य, दुख, अपमान, गाली जो जीवन की परिभाषा बन चुके हैं, को विफल जीवन के उत्पीड़न-रूप में चित्रित किया है। लाला, बनियों और महाजन आदि के मन में आलोचना के भाव को जागृत करते हुए व्यवस्था परिवर्तन की आकांक्षा को भी कवि ने स्वर दिया है।

कविता का सार :

‘संध्या के बाद ‘ शीर्षक कविता सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित है। इसमें कवि संध्या होने के बाद के ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण करता है। पहले वह संध्या के बाद की प्रकृति का चित्रण करता है। छिपते सूर्य की लालिमा पेड़ों के ऊपरी भाग पर ही दृष्टिगोचर होती है। सूर्य की किरणें पीपल के पत्तों के समान सुनहरी झरनों की धाराएँ बहाती हैं। तब गंगा नदी का जल चितकबरा लगता है। धूप-छाँह के वातावरण में नदी-तट की रेत सर्प जैसी आकृति की लगती है। शाम के समय में मंदिरों में आरती होने लगती है। वहाँ शंख-घंटों की ध्वनि होती है तथा मंदिर के कलश अनोखी छटा प्रस्तुत करते हैं। नदी के तट पर बूढ़ी-विधवाएँ जप-तप में लीन दिखाई देती हैं। दूर आकाश में विभिन्न प्रकार के पक्षी उड़ते हैं।

संध्या के समय पक्षी और गाएँ घर की ओर लौट पड़ती हैं। किसान भी सारा दिन परिश्रम करके घर लौटते हैं। गाँव की पैंठ से माल बेचकर छोटा व्यापारी भी नाव में बैठकर घर लौट रहा होता है। उनके साथ ऊँट, घोड़े भी होते हैं। वे खाली बोरों पर बैठकर हुक्का पी रहे होते हैं। संध्या के हल्के प्रकाश का प्रभाव सभी पर पड़ता है। खेत, बाग, घर, तट आदि सभी अंधकार में डूबते-से लगते हैं। गाड़ीवान बिरहा गाते हुए चलते हैं और सियार हुआँ-त्दुआँ करने लगते हैं। माली की मंडई से आग का धुआँ उठने लगता है। गाँव की छोटी-छोटी दुकानों में दुकानदार टीन की ढिबरी जलाकर रोशनी करते हैं। यह ढढबरी रोशनी तो कम करती है, पर धुआँ अधिक देती है।

गाँव में लेन-देन के तो सपने थोथे ही होते हैं। सारी,बस्ती पर अंधकार छा जाता है। गाँव का लाला निराशा में डूब कर ब्याज और मूलधन का हिसाब लगाना ही भूल जाता है। उसकी परचून की दुकान छोटी-से-छोटी होती चली जाती है। उस समय लाला का मन अपने छोटेपन का अहसास करने लगता है। उसकी अत्यधिक कम आमदनी ही उसके दुखों का कारण बन जाती है। इसी कारण वह छोटी-छोटी बात पर झूठ बोलता है। इसके बावजूद वह अपने परिवार का ठीक प्रकार से पालन-पोषण नहीं कर पाता है। उसके

कंधों से फटे कपड़ों से बनाई गुदड़ी भी खिसक जाती है और वह सर्दी से काँपता रहता है। वह सोचता है कि वह भी शहरी बनियों की तरह ऊँचा क्यों नहीं उठ पता? इस संसार की व्यवस्था में कुछ भी परिवर्तन क्यों नहीं हो पाता? क्या ही अच्छा हो कि सारा समाज शोषण से मुक्त हो जाए। धन पर सभी का समान अधिकार हो। यह गरीबी ही सभी पापों का मूल है। श्रम और धन का उचित बँटवारो होना ही चाहिए। लेकिन वही छोटा दुकानदार उस समय बेईमानी करता है जब एक बूढ़ी स्त्री उससे आध पाव आटा खरीदने आती है। यही कथनी-करनी का अंतर है।

संध्या के बाद सप्रसंग व्याख्या

संध्या के बाद –

1. सिमटा पंख साँझ की लाली
जा बैठी अब तरु शिखरों पर
तास्तपर्ण पीपल से, शतमुख
झरते चंचल स्वर्णिम निईर!
ज्योति स्तंभ-सुा धँस सरिता में
सूर्य क्षेतिज पर होता ओझल,
बृहद् जिन्दा विश्लथ केंचुल-सा
लगता चितकबरा गंगाजल!
धूपछाँह के रंग की रेती
अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
नील लहरियों में लोड़ित
पीला जल रजत जलद से बिंबित!
सिकता, सलिल, समीर सदा से
स्नेह पाश में बँँधे समुज्चल,
अनिल पिघलकर सलिल, सलिल
ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल

शब्दार्थ :

  • साँझ = संध्या (Evening)।
  • तरु शिखा = वृक्ष का ऊपरी हिस्सा (Top of the tree)।
  • ताम्रपर्ण = ताँबे की तरह लाल रंग के पत्ते (Copper red leaves)।
  • शतमुख = सैंकड़ों मुँह (Hundred mouths)।
  • स्वर्णिम = सुनहरी (Golden)।
  • निईर = झरने (Waterfalls।
  • ज्योति = प्रकाश (Light।
  • स्तंभ = खंभा (Pole।
  • सरिता = नदी (River।
  • ओझल = गायब (Disappear।
  • जिद्न = वक्र, टेढ़ा अजगर (not straight, snake)।
  • विश्लथ = थका हुआ सा (Tired।
  • अनिल = वायु (Air)।
  • ऊर्मियों = किरणों (Rays)।
  • सर्पांकित = सर्प सा अंकित (Like snake)।
  • लोड़ित = मथित (Churning)।
  • रजत = चाँदी (Silver)।
  • जलद = बादल (clouds।
  • बिंबित = परछाई (Shadow।
  • सिकता = बाएु रेत (Dust)
  • संलिल = पानी (Water।
  • स्नेह-पाश = प्रेम का बंधन (Attached with love)
  • लवोपल = बर्फ के टुकड़े, छोटे ओले (Snow balls)।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध प्रगतिवादी कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित हैं। इस में कवि संध्या होने के बाद ग्रामीण वातावरण के प्राकृतिक दृश्य का चित्रांकन करता है।

व्याख्या – कवि संध्या को एक पक्षी के रूप में चित्रित करते हुए बताता है कि यह संध्या रूपी पक्षी अपने पंखों को समेटकर अपनी लाली के साथ पेड़ की ऊपरी शाखाओं पर जा बैठता है अर्थात् संध्या की लाली अब पेड़ की फुनगियों प्र ही दिखाई दे रही है। ताँबे के रंग के पीपल के पत्तों के समान सैकड़ों मुख वाले झरन सुनहरी धाराओं में बह रहे हैं। झरनों के जल पर पीला प्रकाश पड़ रहा है। क्षितिज पर छिपता सूर्य नदी में प्रतिबिंबित होता ज्योति (प्रकाश) क! जं-सा जान पड़ता है। गंगा के जल को चितकबरा बताते हुए कवि कहता है कि यह ऐसे लगता है कि मानो कोई बड़ा अजगर थका हुआ लेटा हो।

नदी तट की रेती धूप-छाँह के रंग की है। वह हवा के चलने पर सर्प की सी आकृति ले लेती है। नदी के नीले जल पर सूर्य का प्रतिबिंब पड़कर उसे पीला बना देता है तथा उस पर बादलों की सफेदी पड़ रही है। रेत, पानी तथा हवा सदा से आपस में प्रेम बंधन में बँधे हुए हैं। इस समय के दृश्य को देखकर ऐसा लगता है कि हवा पिघलकर पानी बनती है और पानी अपनी गति को खोकर छोटे-छोटे बर्फ के कण (ओले) बन जाते हैं। इस तरह प्रकृति में तरह-तरह के परिवर्तन होते रहते हैं।

विशेष :

  1. संध्याकालीन प्रकृति का मनोहारी चित्रण किया गया है।
  2. संध्या को पक्षी के रूप में चित्रित किया गया है।
  3. अनेक स्थलों पर उपमा अलंकार का प्रयोग है-ज्योति स्तंभ-सा, केंचुल-सा।
  4. तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।

2. शंख घंट बजते मंदिर में
लहरों में होता लय कंपन,
दीप शिखा-सा ज्वलित कलश
नभ में उठकर करता नीरांजन!
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन!
दूर तमस रेखाओं-सी,
उड़ती पंखों की गति-सी चित्रित
सोन खगों की पाँति
आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित!
स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
किरणों की बादल-सी जलकर,
सनन् तीर-सा जाता नभ में
ज्योतित पंखों कंठों का स्वर!

शब्दार्थ :

  • लय कंपन = आवाज का काँपना (Wavering sound)।
  • दीप-शिखा = दीपक की लौ (Flame oflight)।
  • ज्वलित = जलता हुआ (Burning)।
  • कलश = घड़ा, ऊपरी भाग (Top)।
  • नभ = आकाश (Sky)।
  • नीरांजन = आरती (Prayer)।
  • तट = किनारे (Bank of river)।
  • वृद्धाएँ = बूढ़ी स्त्रियाँ (Old women)।
  • मंधर = धीमी (Slow)।
  • गति = चाल (Speed)।
  • अंतर रोदन = हृदय का रोना (Cryof heart)।
  • तमस = अंधकार (Darkness)।
  • खगों = पक्षियों (Birds)।
  • आर्द = नम (Wet)।
  • नीरव = चुप (Calm)।
  • मुखरित = आवाज करना (Sound)।
  • स्वर्ण = सोना (Gold)।
  • गोरज = धूल (Dust)।
  • कंठ = गला (Throat)।
  • स्वर = आवाज (Sound)।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित है। यह कविता उनके प्रगतिवादी दौर की कविता है। कवि ग्रामीण वातावरण में संध्या के प्रभाव को चित्रित करता है।

व्याख्या – कवि बताता है कि संध्या के समय मंदिरों में आरती होने की तैयारी शुरू हो जाती है। वहाँ शंख और घंटे बजने लगते हैं, इससे नदी के जल की लहरों में कंपन होने लगता है। मंदिर का कलश भी सूर्य की लालिमा के प्रभावस्वरूप दीपक की लौ की भाँति आकाश में ऊपर उठकर आरती करते से जान पड़ते हैं।

नदी के किनारे पर बूढ़ी-विधवा स्त्रियाँ बगुलों के समान प्रतीत होती हैं। वे जप-तप में मग्न रहती हैं। उनके दिल में तो दुख है और उनका हुदय रोता रहता है। उनके मंन की पीड़ा नदी की धीमी धारा में बह जाती है। उनके हृदय का दुख बाहर से दिखाई नहीं पड़ता।

दूर आकाश पर पक्षियों की उड़ती पंक्ति अंधकार की रेखाएँ जैसी लगती हैं। पक्षियों की पंक्ति अपने चहचहाहट से शांत आकाश में गुंजार करती चली जाती है। संध्या के समय जब गाएँ घरों की ओर लौटती हैं तो उनके खुरों से धूल उड़ती है। यह सूर्य के प्रकाश से सुनहरी हो जाती है। ऐसा लगता है कि बादल की ये किरणें जल गई हैं। जब आकाश में पक्षियों के कंठ का तेज स्वर गूँजता है तो वह आकाश में तीर के समान सनन करते हुए निकल जाता है।

विशेष :

  1. सांध्यकालीन वातावरण का सजीव चित्रण किया गया है।
  2. मंदिर के, नदी-तट के तथा आकाश में उड़ते पक्षियों का सजीव अंकन किया गया है।
  3. अनेक स्थलों पर उपमा अलंकार का प्रयोग है-दीप-शिखा-सा, बगुलों-सी, स्वर्ण चूर्ण-सी आदि में।
  4. तत्सम शब्द बहुल खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

3. लौटे खग, गायें घर लौटीं
लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर
छिपे गृहों में म्लान चराचर
छाया भी हो गयी अगोचर,
लौट पैंठ से लापारी भी
जाते घर, उस पार नाव पर,
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
खाली बोरों पर, हुक्का भर!
जाड़ों की सूनी द्वाभा में
झूल रही निशि छाया गहरी,
डूब रहे निष्रभभ विषाद में
खेत, बाग, गृह, तरु, तट, लहरी!
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
भूँक-भूँककर लड़ते कूकर,
हुँआ-हुँआ करते सियार
देते विषण्ण निशि बेला को स्वर!

शब्दार्थ :

  • खग = पक्षी (Bird)।
  • कृषक = किसान (Farmer)।
  • श्रांत श्लथ = थके हुए (Tired)
  • डग = कदम (Foot)।
  • गृहों = घरों (Houses)।
  • म्लान = फीके (Faded)।
  • अगोचर = अदृश्य (Not visible)।
  • द्वाभा = दोहरी चमक, संध्या का प्रकाश (Double shades, Evening)।
  • निशि = रात (Night)।
  • निष्ट्रभ = बिना चमक के (Without lust)।
  • विषाद = दुख-निराशा (Distress)।
  • बिरहा = विरह का गीत (Song of sadness)।
  • कूकर = कुत्ते (Dogs)।
  • विषणण = दुखी (Full of sorrow)।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध प्रगतिवादी कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रंचत कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित हैं। कवि गाँव के वातावरण में संध्या के प्रभाव को चित्रित करता है।

व्याख्या – कवि बताता है कि संध्या के समय पक्षी और गाएँ अपने घरों को लौट रहे हैं। किसान भी सारा दिन परिश्रम करके थक गए हैं और वे थके कदमों से घर लौट रहे हैं। वे सभी अपने-अपने घरों में घुसकर छिप गए हैं। अब तो अंधकार के कारण उनकी छाया भी दिखाई नहीं देती। गाँव की पैठ (बाजार) से व्यापारी भी अपने घर नाव पर बैठकर लौट आए हैं। वे ऊँट, घोड़ों के साथ हैं। वे खाली बोरों पर बैठकर हुक्का पी रहे हैं।

यह सर्दियों की रात है। चारों ओर सूनापन है। संध्या के धीमे प्रकाश में रात की छाया गहराती जा रही है। इस अंधकार में सभी कुछ डूबता जा रहा है। उनकी चमक घटती जा रही है। इसका प्रभांव खेत, भग, घर, पेड़, तट तथा लहरों पर भी पड़ रहा है। ये सभी अंधकार में डूबते जा रहे हैं।

इस रात के वातावरण में गाड़ीवान बिरह का गीत गाते हुए चले जा रहे हैं। रास्ते में कुत्ते भी भौंक-भौंक कर लड़ते दिखाई देते हैं। रात की बेला में सियार हुआँ-हुआँ कर रहे हैं। इनके स्वरों में दुखी रात को भी मानो आवाज मिल रही है।

विशेष :

  1. कवि ने पशु-पक्षियों के साथ-साथ मनुष्यों को भी घरों की ओर लौटते दर्शाया है।
  2. सरल भाषा का प्रयोग किया गया है।
  3. भूँक-भूँक तथा हुआँ-हुआँ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

4. माली की मँड़ई से उठ, नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
मंद पवन में तिरती
नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
बत्ती जला दुकानों में
बैठे सब कस्बे के व्यापारी,
मौन मंद आभा में
हिम की ऊँघ रही लंबी अधियारी!
धुआँ अधिक देती है
टिन की ढबरी, कम करती उजियाला,
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
आँखों के आगे बुनती जाला!
छोटी-सी बस्ती के भीतर
लेन देन के थोथे सपने
दीपक के मंडल में मिलकर
मैंडराते घिर सुख-दुख अपने!

शब्दार्थ :

  • नभ = आकाश (Sky)।
  • पवन = हवा (Wind)।
  • मंद = धीमी (Slow)।
  • आभा = चमक (Glittering)।
  • हिम = बर्फ (Snow)।
  • अवसाद = दुख (Pain, agony)।
  • धूमाली धुएँ की पंक्ति (Line of smoke)।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित है। इसमें कवि ने संध्या के बाद रात्रि के प्रथम प्रहर में गाँव के वातावरण का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है।

व्याख्या – संध्या होते ही गाँव के माली के कच्चे घर से आकाश के नीचे धुआँ सा उठने लगता है। शायद घर में खाना पकाने के लिए आग जलाई जा रही है। यह धुएँ की लकीर हवा में ऐसे तैरती जान पड़ती है जैसे नीले रेशम की हल्की जाली हो। इसी समय गाँव-कस्बे का दुकानदार रोशनी के लिए बत्ती जला देता है। इसका प्रकाश बहुत धीमा है। सर्दी की रात में यह लौ ऊँघती जान पड़ती है। वहाँ टिन की ढ़िबरी में बत्ती लगाकर जलाई जाती है। यह बत्ती रोशनी तो बहुत कम देती है, पर धुआँ अधिक देती है। इससे रोशनी भी बहुत कम होती है। तब मन का दुख आँखों के सामने जाला बुनता-सा प्रतीत होता है। गाँव का दुकानदार दुखी रहता है। यह एक छोटी-सी बस्ती है। इसमें लेन-देन की बातें करना व्यर्थ है। यहाँ ग्राहक न के बराबर हैं, आज भी बहुत सीमित है। दीपक की लौ के मंडल के इर्द-गिर्द ही सुख-दुख मँडराते रहते हैं।

विशेष :

  1. संध्याकालीन वातावरण का सजीव चित्रण किया गया है।
  2. कई स्थलों पर उपमा अलंकार का प्रयोग है।
    नभ-सी धूमाली, रेशम की-सी हल्की जाली
  3. अनुप्रास अलंकार-माली की मड़ई, मौन मंद।
  4. सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग है।

5. कँप-कँप उठते लौ के संग
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों
गोपन मन को दे दी हो भाषा!
लीन हो गयी क्षण में बस्ती,
म्टिडी खपरे के घर आँगन, –
भूल गये लाला अपनी सुधि,
भूल गया सब ब्याज, मूलधन!
सकुची-सी परचून किराने की ढेरी
लग रहीं ही तुच्छतर,
इस नीरव प्रदोष में आकुल
उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
अनुभव करता लाला का मन,
छोटी हस्ती का सस्तापन,
जाग उठा उसमें मानव,
औ’ असफल जीवन का उत्पीड़न!

शब्दार्थ :

  • कातर = दुखी (Sad)।
  • उर = हृदय (Heart)।
  • मूक = चुप (Silent)।
  • क्षीण = कमजोर (Weak)
  • ज्योति = प्रकाश की लौ (Light)।
  • गोपन = छिपा (Hidden)।
  • लीन = मिल जानां, गायब हो जाना (Disappear)।
  • सुधि = याद (Memory)।
  • तुच्छतर = छोटी से छोटी (Small)
  • नीरव = शांत (Calm)।
  • आकुल = बेचैन (Restless)
  • अंतर = हृदय (Heart)
  • उत्पीड़न = दुख (Vaxation, trouble)।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध प्रगतिवादी कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित हैं। इसमें कवि संध्या के समय गाँव के वातावरण का चित्रण करता है।

व्याख्या – कवि बताता है कि गाँव में दरिद्रता का साम्राज्य है। इसी कारण उनके ह्रदयों में क्रंदन होता रहता है। उनमें निराशा की भावना व्याप्त है, पर इसे वे प्रकट नहीं कर पाते, चुप होकर रह जाते हैं। इस समय जो हल्का प्रकाश हो रहा है, वही उसके मन में समाई गुप्त बातों को प्रकट करता सा जान पड़ता है। थोड़ी ही देर में सारी बस्ती अंधकार में डूब जाती हैं। उनके कच्चे घर-आँगन सब अंधकार में विलीन हो जाते हैं। इस निराशा भरे वातावरण में गाँव का छोटा दुकानदार अपनी याद तक भूल जाता है। वह मूलधन और ब्याज का हिसाब लगाना भी भूल जाता है। उसकी परचून की दुकान सकुची-सी लगती है। उसमें सामान भी बहुत कम है। वह छोटी-से-छोटी होती चली जा रही है। इस अंधकार के वातावरण में उसके मन का दुख उमड़ रहा है। अन्य लोग भी दुखी एवं परेशान हैं। इस समय याँव की दुकान का लाला अपने अंदर हीन भावना (छोटेपन) का अहसास करता है। उसमें भी मनुष्यता की भावना है। उसे जीवन असंफल प्रतीत होता है। उसका जीवन दुख की कथा बनकर रह गया है।

विशेष :

  1. गाँव की गरीबी का यथार्थ चित्रण हुआ है।
  2. ‘कँप-कँप’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  3. सरल भाषा का प्रयोग है।

6. दैन्य दुःख अपमान ग्लानि
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
बिना आय की क्लांति बन रही
उसके जीवन की परिभाषा!
जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
वह दिन-भर बैठा गद्री पर
बात-बात पर झूठ बोलता
कौड़ी-की स्पर्धा में मर-मर!
फिर भी क्या कुटुंब पलता है?
रहते स्वच्छ सुघर सब परिजन?
बना पा रहा वह पक्का घर?
मन में सुख है? जुटता है धन?
खिसक गयी कंधों से कथड़ी
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
सोच रहा बस्ती का बनिया
घोर विवशता का निज कारण!

शब्दार्थ :

  • दैन्य = दीनता का भाव (Humbleness)।
  • अपमान = बेइज्जती (Insult)।
  • ग्लानि = अपने ऊपर घृणा (Lassitude)।
  • क्लांति = दुख (Sorrow)।
  • जड़ = बेजान (Lifeless)।
  • सदृश = साफ (Clean)।
  • कथड़ी = पुराने कपड़ों से बनाई गई गुदड़ी (A bedsheet made by old clothes)
  • तन = शरीर (Body)।
  • विवशता = मजबूरी (Helplessness)।
  • निज = अपना (Own)

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित है। इसमें कवि गाँव के जीवन में व्याप्त दरिद्रता का यथार्थ चित्रण करता है।

व्याख्या – गाँव के लोग घोर दरिद्रता में जीवन बिता रहे हैं। वे दीनता, दुख, बेइज्जती और घृणा के भावों को झेलते हैं। वे – भूखे-प्यासे रहते हैं। उनकी इच्छाएँ मर गई हैं क्योंकि वे पूरी नहीं हो पाती। उनकी आय (आमदनी) भी बहुत कम है। उनका जीवन तो दुख की परिभाषा बनकर रह गया है। गाँव का दुकानदार निर्जीव अनाज की ढेरी के समान दिन भर दुकान की गद्दी पर बैठा रहता है। उसकी बिक्री बहुत कम है। यही कारण है कि वह पैसा कमाने की होड़ में बात-बात पर झूठ बोलतता है।

इतना सब करने के उपरांत भी उनके परिवार का भरण-पोषण नहीं हो पाता है, न उनको पहनने के लिए साफ कपड़े ही मिल पाते हैं। वह अपने रहने के लिए पक्का घर भी नहीं बना पाता। न उसके मन में कोई सुख है और न वह धन जुटा पाता है। वह हर मोर्चे पर असफल रहता है। वह कंधों पर फटे कपड़ों से बनाई कथड़ी डाले हुआ था, अब इस सोच-विचार में वह भी नीचे खिसक गई। अब उसका शरीर सर्दी के कारण काँप रहा है। अब वह सोचता है कि वह ऐसा विवशता भरा जीवन जीने के लिए क्यों मजबूर है? उसे भी वे सभी चीजें क्यों नहीं मिल पाती जो शहर के दुकानदार को मिलती हैं।

विशेष :

  1. कवि ने प्रश्न शैली का प्रयोग कर अपने कथ्य को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है।
  2. कई स्थलों पर अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है-दैन्य दुख, मर-मर।
  3. सरल भाषा का प्रयोग है।

7. शहरी बनियों-सा वह भी उठ
क्यों बन जाता नहीं महाजन?
रोक दिए हैं किसने उसकी
जीवन उन्नति के सब साथन?
यह क्या संभव नहीं
व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
कर्म और गुण के समान ही
सकल आय-व्यय का हो वितरण?
घुसे घरौंदों में मिट्टिी के
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
क्या ऐसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
मिलकर जन निर्माण करे जग,
मिलकर भोग करें जीवन का,
जन विमुक्त हो जन-शोषण से,
हो समाज अधिकारी धन का?

शब्दार्थ :

  • साधन = तरीके, उपाय (Measures)
  • जग = संसार (World)।
  • सकल = सारी (Total)।
  • विमुक्त = स्वतंत्र (Free)।
  • शोषण = दबाना (Exploitation)

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध प्रगतिवादी कवि सुमित्रानंदन पंत द्वरा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित हैं। इसमें कवि संध्याकालीन वातावरण की पृष्ठभूमि में गाँव की गरीबी का चित्रण करता है।

व्याख्या – गाँव का छोटा दुकानदार अपने में यह सोचता है कि वह भी शहरी बनियों अर्थात् व्यापारियों के समान बड़ा क्यों नहीं बन पाता। उसे भी महाजन बनने का अधिकार है, पर वह ऐसा बन नहीं पा रहा है, ऐसा क्यों है? उसे यह बात समझ में नहीं आती कि उसकी तरक्की के साधन किसने रोक रखे हैं? उसके जीवन की उन्नति क्यों नहीं हो पाती है? उसका जीवन भी उन्नत होना चाहिए। आजकल संसार की जो व्यवस्था चल रही है उसमें परिवर्तन अवश्य होना चाहिए। यह परिवर्तन ही हमारे जीवन की दशा को सुधार पाएगा। गुणों के समान ही सारी आमदनी और खर्च का बँटवारा भी होना चाहिए, जबकि ऐसा हो नहीं रहा है। गाँव के लोग अपने-अपने कच्चे घरों में घुसकर अपने-अपने बारे में सोच रहे हैं कि किस प्रकार लोगों में सामूहिक जीवन आए अर्थात् सभी लोग एक समान सुविधाओं का भोग करें। इस नए संसार का निर्माण सभी लोग मिलकर करें तथा जीवन के सुख का उपभोग भी सभी मिलकर कर सकें। लोगों को शोषण से मुक्ति दिलाना बहुत आवश्यक है। धन पर समस्त समाज का समान अधिकार है। ऐसा होने से ही लोगों का जीवन सुखी हो सकेगा।

विशेष :

  1. कवि लोगों के मन में छिपी इच्छ-आकांक्षा को अभिव्यक्ति प्रदान करने में सफल रहा है।
  2. उपमा अलंकार-शहरी बनियों सा।
  3. अनुप्रास अलंकार-घुस घौंदे।
  4. पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार-अपनी-अपनी।
  5. सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग हुआ है।

8. दरिद्रता पापों की जननी,
मिटें जनों के पाप, ताप, भय,
सुंदर हों अधिवास, वसन, तन,
पशु पर फिर मानव की हो जय?
व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दुःख क्लेश की,
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश देश की!
टूट गया वह स्वप्न वणिक का,
आयी जब बुढ़िया बेचारी,
आध-पाव आटा लेने
लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
चीख उठा घुघ्यू डालों में
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
निगल रहा बस्ती को थीरे,
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!

शब्दार्थ :

  • वरिद्रता = गरीबी (Poverty)।
  • जननी = माँ (Mother)।
  • भय = डर (Fear)।
  • अधिवास = मकान (House)।
  • वसन = वस्त्र (Clothes)।
  • जग = संसार (World)।
  • परिपाटी = परंपरा (Tradition)।
  • श्रम = मेहनत (Labour)।
  • स्वप्न = सपना (Imagination)।
  • वणिक = बनिया, व्यापारी (Businessman)।
  • पट = किवाड़ (Door)।
  • द्वार = दरवाजा (Door)।
  • अजगर = साँप (Snake)।

प्रसंग – प्रस्तुत काष्यांश सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित है। यहाँ कवि ग्रामीण जीवन में व्याप्त निर्धनता पर अपनी चिंता प्रकट कर रहा है।

व्याख्या – कवि का कहना है कि गरीबी ही सब पापों की जड़ है। यही गरीबी सभी प्रकार के पाप कराती है। कवि चाहता है कि लोगों के जीवन से पाप, दुख, भय आदि मिटने चाहिए। लोगों को रहने के लिए सुंदर मकान, कपड़े और स्वस्थ शरीर मिलना चाहिए। इससे पशुता की भावना पर मानवता की भावना की जय हो सकेगी। कोई एक व्यक्ति इस स्थिति के लिए दोषी नहीं है, वर्न संसार की पूरी परिपाटी अर्थात् व्यवस्था ही इसके लिए जिम्मेदार है। लोग दुखी हैं तथा क्लेश को मन:स्थिति में हैं। यदि लोगों की मेहनत का फल लोगों के बीच ही बँट जाए तो सारे देश की जनता सुखी हो जाएगी।

गाँव का छोटा दुकानदार इसी प्रकार का स्वप्न देखता है, पर व्यवहार में इसे नहीं उतारता। जब गाँव की एक बूड़ी स्त्री उससे आधा-पाव (थोड़ा-सा) आटा खरीदने आती है तो यही दुकानदार उसे कम तौलकर आटा देता है अर्थात् इस असमान अर्थक्यवस्था के लिए वह स्वयं भी दोषी है। इसी स्थिति का प्रतीक घुघ्घू जब चीखता है तो लोग अपने घर के दरवाजे बंद कर लेते हैं। शोषक वर्ग की एक घुड़की इन्हें चुप करा देती है। धीरे-धीरे सारी बस्ती नींद की गोद में डूब जाती है। ऐसा लगता है कि नींद का अजगर उन्हें निगल रहा है।

विशेष :

  1. गाँव के वातावरण का सजीव चित्रण किया गया है।
  2. ‘डंडी मारना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है।
  3. ‘पशु पर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  4. भाषा सरल एवं सुबोध है।

Hindi Antra Class 11 Summary