हँसी की चोट, सपना, दरबार Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 12 Summary
हँसी की चोट, सपना, दरबार – देव – कवि परिचय
प्रश्न :
देव के ज़ीवन-परिचय का उल्लेख करते हुए उनकी रचनाओं एवं साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय – रीतिकाल के प्रमुख कवि देव का पूरा नाम देवदत्त था। ये इटावा के रहने वाले थे। इनका जन्म संवत् 1730 (सन् 1673 ई.) माना जाता है। इनकी रचनाओं के अध्ययन से प्रतीत होता है कि ये किसी एक आश्रयदाता के पास नहीं रहे। इनकी चित्तवृत्ति एक स्थान पर नहीं लगी। अधिक घूमने के कारण ही ये सर्वतोमुखी प्रतिभा के व्यक्ति हो गए थे।
इनके प्रमुख आश्रयदाता : राज भोगीलाल थे। औरंगजेब के पुत्र आजमशाह के दरबार में भी देव कुछ समय तक रहे थे। ये संवत् 1824 (सन् 1767) तक जीवित रहे। रचनाएँ-वैसे तो कवि देव के ग्रंथों की संख्या 52 या. 72 बताई जाती है, परंतु अभी तक इनके 27 ग्रंथों का पता लगा है। रीतिकाल के कवियों में इतनी अधिक रचनाएँ किसी दूसरे कवि की नहीं मिलतीं। इनके प्राप्य ग्रन्थों में भावविलास, अष्टयाम भवानी-विलास, सुजान-विनोद, प्रेमतरंग, रागरत्नाकर, रसविलास, प्रेम चन्द्रिका, रसानन्दहरौ तथा प्रेमदीपिका आदि बहुत प्रसिद्ध हैं। इनकी रचनाओं में अनेकानेक विषय हैं। यौवन, शृंगार आदि से लेकर इनका झुकाव ज्ञान और वेदान्त की ओर भी रहा।
विशेषताएँ – रीतिकालीन कवियों में देव बड़े प्रतिभाशाली कवि थे। दरबारी अभिरुचि से बँधे होने के कारण उनकी कविता में जीवन के विविध दृश्य नहीं, मिलते, किंतु उन्होंने प्रेम और सौंदर्य के मार्मिक चित्र प्रस्तुत किए हैं। अनुप्रास और यमक के प्रति देव में प्रबल आकर्षण है। अनुप्रास द्वारा उन्होंने सुंदर ध्वनिचित्र खींचे हैं। ध्वनि-योजना उनके छंदों में पग-पय पर प्राप्त होती है। उनकी स्वाभाविक रुचि शृंगार में है। श्रृंगार के उदात्त रूप का चित्रण भी देव ने किया है।
देव हमारे सामने कवि और आचार्य दोनों रूपों में आते हैं। इन्होंने रस, अलंकार, शब्द-शक्ति और काव्यांगों का खूब वर्णन किया। देव में कवित्व-शक्ति और मौलिकता खूब थी। इनका सर्वोपरि गुण इनकी रससिक्तता है। इनकी रचना में रसहीन पद्य मिलना कठिन है। इनकी रचचि श्रृंगार रस की ओर अधिक थी। देव ने रसों के संबंध में अपनी. प्रतिभा खूब दिखाई है। कहीं-कहीं तो देव की कल्पना बहुत ही सूक्ष्म और गूढ़ हो गई है। देव बहुज्ञ और विविध विषयों के पंडित थे। अक्षर मैत्री पर विशेष ध्यान रखते थे। भाषा-शैली-देव की भाषा मंजी हुई और कोमल ब्रजभाषा है। यह प्रवाहमयी है। इस भाषा में अनुप्रासों की अनुपम छटा और प्रसाद गुण तथा गाम्भीर्य है। इन्होंने जहाँ-तहाँ मुहावरों का भी प्रयोग किया है। इनका एक उदाहरण देखिए-
साँसन ही मैं समीर गयो अरु
आँसुन ही सब नीर गयो बरि;
तेज गयो गुन लै अपनी अरु,
भूमि गई तनु को तनुता करि।
‘देव’ जिय मिलिबेई क़ा आस कै,
आसहु पास अकास रह्यो. भरिं;
जा दिन तें मुख फेरि हरै हँँसि,
हेरि हियो जू जियो हरिज़ हरि॥
बहुत से विद्वान इन्हें आचार्य कोटि में रखते हैं, परंतु इन्हें कवि कहना ही अधिक उचित होगा। देव अपनी अत्यधिक विद्वता, यात्रा और अनुभवों के कारण उस काल के काव्य संबंधी प्रत्येक क्षेत्र में उतरे। यह निश्चय ही कहा जा सकता है कि देव का स्थान हिंदी साहित्य में पर्याप्त ऊँचा है। यदि बिहारी सूक्ष्मता और अर्ध-गौरव के धनी थे, तो देव विषयों और शैलियों की विविधता के । वास्तव में देव रीतिकाल के प्रगल्भ और प्रतिभासंपन्न कवि थे।
Hansi Ki Chot, Sapna, Darbar Class 11 Hindi Summary
देव के कवित्त-सवैयों में प्रेम और सौदर्य के इंद्रधनुषी चित्र मिलते हैं। संकलित सवैयों और कवित्तों में एक ओर जहाँ रूप-सॉदर्य का अलंकृत चित्रण हुआ है, वहीं रागात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी संवेदनशीलता के साथ की गई है। यहाँ उनकी छोटी-छोटी तीन कविताएँ दी गई हैं।
1. ‘हँसी की चोट’ कविता विप्रलंभ का अच्छा उदाहरण प्रकट करती है। कृष्ण के मुँह फेर लेने से गोपियाँ हँसना भूल गई हैं। वे कृष्ण को खोज-खोज कर हार गई हैं। अब तो वे कृष्ण के मिलने की आशा पर ही जीवित हैं।
2. ‘सपना’ कविता में गोपी स्वप्न देख रही है। स्वप्न में वह कृष्ण को देखती है कि कृष्ण उससे झुला झूलने को कह रहे हैं। कृष्ण-मिलन के इस स्वप्न में वह फूली नहीं समा रही है। तभी उसकी नींद दूट जाती है और उसका शृंगार खंडित हो जाता है। वह कहती है कि स्वप्न से जाग कर उसके भाग्य सो गए हैं। फिर भी उसमें वियोग की स्थिति में भी सुख की अनुभूति बनी रहती है। इस पद में संयोग-वियोग का मार्मिक चित्रण हुआ है।
3. ‘दरबार’ सवैया में कला और सौंदर्य से विहीन तकालीन समाज और दरबारी वातावरण के भोग-विलास पर देव ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। देव रीतिकाल के कवि थे। देव के द्रय में अपने युग की परिस्थितियों के प्रति सूक्ष्म असंतोष का भाव है। सोग भोग-विलास में डूबे हैं। लोग अकर्मण्य हो चुके हैं। न कोई किसी की सुनता है और न समझता है। उनकी मति भोग-विलास के कारण बिगड़ चुकी है। वे नट की तरह रात-दिन नाचते हैं। देव कहते हैं कि वे लोग भोग-विलास के पीछे पागल हैं।
हँसी की चोट, सपना, दरबार सप्रसंग व्याख्या
1. हँसी की चोट
साँसनि ही सौं समीर गयो अरु, आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।
तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तन की तनुता करि॥
‘देव’ जियै मिलिबेही की आस कि, आसहू पास अकास रहयो भरि,
जा दिन तै मुख फेरि हरै हँसि, हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि॥
शब्दार्थ :
- समीर = हवा (Air)।
- नीर = पानी (Water)।
- तन = शरीर (Body)।
- तनुता = कृशता, दुबलापन (Weakness)।
- आसहू = आशा में (Hope)।
- अकास = आकाश (sky)।
- मुख = मुँह (Mouth)।
- हेरि = देखकर (To see)।
- हियो = हदय (Hearl)।
- हरि = कृष्ण, प्रिय (Krishna)।
- हरि = हरना (To take away)।
प्रसंग – प्रसुत सवैया रीतिकाल के श्रोष्ठ कवि देव द्वारा रचित है। इसमें कवि ‘हँसी की चोट’ से व्यथित है। कृष्ण के मुँह फेर लेने से गोपी चरम विरह अवस्था में है। उसी दशा का वर्णन यहाँ हुआ है।
व्याख्या – एक बार कृष्ण ने एक गोपी की ओर मुस्करा कर देखा तो गोपी उस क्षण में ही जीने लगी। बाद में कृष्ण ने उसकी ओर से मुँह फेर लिया तो उसके मुख की हँसी ही गायब हो गई। अब वह नियोगावस्था में है। वह दिन-प्रतिदिन दुर्रल होती जली जा रही है। विरहावस्था में वह तेज-तेज साँसे छोड़ती है इससे उसका वायु तत्व समाप्त होता चला जा रहा है। वह कृष्ण के वियोग में रोती रहती है। इन आँसुओं में उसका जल तत्व ढर कर समाप्त हो गया है।
गोपी के शरीर की गम्मी भी चली गई है। इस प्रकार तेज (अगिन) तत्व अपना प्रभाव समाप्त करेता गया। वियोग की पीड़ा झेलते-झेलते उसका शरीर अत्यंत क्षीण (कमजोर) हो गया है। इस निर्बलता में उसका भूमि तत्त्व चला गया है। इस प्रकार पाँच तत्वों (भूमि, जल, वायु, अग्न (तेज), आकाश) में से केवल आकाश तत्व बचा है। वह इसी तत्व के बलबूते पर मन में कृष्ण-मिलन की आशा पाले हुए है। वह मिलन-आशा पर ही जीवित है। जिस दिन से श्रीकृष्ण ने उसकी ओर से मुँह फेर लिया है तभी से उसका दिल तो कृष्ण के पास चला गया है और मुँह की हँसी गायब हो गई है। वह कृष्ण को दूँढ़-दूँढ़ कर थक गई है।
विशेष :
- हमारा शरीर पंच तत्वों से निर्मित है (वायु, जल, अगिन, पृथ्वी, आकः) यहाँ उन्हीं की ओर संकेत है।
- अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग है।
- अनेक स्थलों पर अनुप्रास अलंकार का प्रयोग द्रष्टव्य है’तनु की तनुता’, हरै हँसि, हेरि हियो’ आदि में
- ‘हरि’. शब्द का भिन्न अर्थों में प्रयोग है अतः यमक अलंकार है।
- ‘मुख फेर लेना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है।
- वियोग शृंगार का मार्मिक चित्रण है।
- ब्रज भाषा का प्रयोग है।
- सवैया छंद प्रयुक्त है।
2. सपना
झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो,
घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कहूयो स्याम मो सौं ‘चलौ झूलिबे को आज’
फूली न समानी भई ऐसी हौं मगन मैं।
चाहत उठ्योई उठि गई सो निगोड़ी नींद,
सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में।
आँख खोलि देखौं तौ न घन हैं, न घनश्याम,
वेई छाई बूँदें मेरे आँसु ह्वै दृगन में॥
शब्दार्थ :
- झीनी = बारीक (Thin)।
- घटा = बादलों की घटा (Clouds)।
- गगन = आसमान (Sky)।
- आनि = आकर (T ocome)।
- फूली न समानी = खुश होना (Overjoyed)।
- मगन = मग्न, खुश (Happy)।
- निगोड़ी = निर्दयी (Cruel)।
- जगन = जगना (wake up)।
- घन = बादल (Clouds)।
- घनश्याम = कृष्ण (Krishna)।
- दृगन = आँखों (Eyes)।
- हूवै = है (Are)।
प्रसंग – प्रस्तुत कवित्त रीतिकाल के रीतिबद्ध कवि देव द्वारा रचित हैं। इस कवित में एक गोपी की स्वप्नावस्था का चित्रण है। वर्षा ऋतु है और सावन का महीना है। बूँदे पड़ रही हैं और झूला झूलने का मौसम है।
व्याख्या – वर्षा ऋतु में झर-झर करके बारीक बूँदें पड़ रही हैं। आकाश में घने बादलों की घटाएँ घिर कर आ रही हैं। ऐसे मनमोहंक वातावरण में एक गोपी निद्रामग्न है। वह स्वप्न देख रही है। सपने में वह कृष्ण को देखती है। कृष्ण ने उसके पास आकर कहा-‘ चलो, आज साथ-साथ झूला झूलने चलें।’ यह सुनते ही वह गोपी फूली नहीं समाती अर्थात् उसे अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव होता है। वह इस स्वप्न और उससे मिली खुशी में ही मग्न हो गई। उसने कृष्ण के प्रस्ताव पर उठने का प्रयास किया तो यह निगोड़ी नींद ही चली गई।
उसकी आँखें खुल गई और वह जाग गई। यह जागना ही उसके भाग्य को सुला गया अर्थात् इधर वह जागी उधर कृष्ण-मिलन का सुख गायब हो गया। यह जागना गोपी को बड़ा कष्टप्रद प्रतीत हुआ। गोपी ने जब आँख खोलकर देखा तो न तो घन अर्थात् बादल थे और न घनश्याम (कृष्ग) थे। गोपी की आँखों में बादलों की वे ही बूँदें आँसू बनकर तैर गई। भाव यह है कि गोपी संयोगावस्था से वियोगावस्था में आ गई। यह जागना उसे बहुत भारी पड़ा।
विशेष :
- प्रस्तुत कवित में श्रृंगार रस के दोनों पक्षों (संयोग और वियोग) का परिपाक भली प्रकार हुआ है।
- ‘झहरि-झहरि’ तथा ‘घहरि-घहरि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग है।
- ‘सोए गए …… जगन में’ विरोधाभास अलंकार है।
- ‘निगोड़ी नींद’, ‘घहरि घहरि घटा घेरी’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ब्रजभाषा एवं कवित्त छंद का प्रयोग है।
3. दरबार
साहिब अंघ, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो।
भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूढ़िबे को काहू कर्म न बाच्यो॥
भेष न सूझ़यो, कह्यो समझ्यो न, बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो।
‘देव’ तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो।
शब्दार्थ :
- साहिब = स्वामी, राजा (Master, King)।
- मुसाहिब = मुँह लगे कर्मचारी, दरबारी (courtiers)।
- मूक = गूँगे (Dumb)।
- बहिरी = न सुनने वाली (Deaf)।
- काहू = किसी (Any)।
- मति = बुद्धि (Mind)।
- सगरी = सारी (Total)।
- निसि = रात (Night)।
- नाच्यौ = नाचा (Danced)।
प्रसंग – प्रस्तुत सवैया रीतिकालीन कवि देव द्वारा रचित है। इस सवैये में कवि ने तत्कालीन दरबारी वातावरण पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है।
व्याख्या – कवि अपने युग के दरबारी वातावरण पर कटाक्ष करते हुए बताता है कि दरबार में राजा, मंत्री, दरबारी से लेकर सारी सभा गूँगी-बहरी और अंधी बनी रहती है। ये सभी राग-रंग में मस्त हुए रहते हैं। राजा को कुछ भी नहीं दिखाई देता अथवा देखकर भी अनजान बना रहता है। दरबार का वातावरण सौंदर्य और कला से विहीन हो गया है। कोई भी कला की गहराई में ज़ाना नहीं चाहता। ये लोग भोग-विलास में डूब कर अकर्मण्य बन चुके हैं। नं कोई किसी की कुछ सुनता है और न समझता है। जिसकी जिसमें रुचि है वह उसी में मग्न है। इस भोग-विलास के कारण इन लोंगों की मति (बुद्धि) मारी गई है। वे तो नट की तरह दिन-रात नाचते हैं। कवि देव कहते हैं कि ये लोग भोग-विलास के पीछे पागल हैं। इस वातावरण में काव्य-कला की पहचान और अनुभूति कठिन है।
विशेष :
- कवि के मन में अपने युग की परिस्थितियों के प्रति असंतोष का भाव है।
- इस सवैये। में तत्कालीन दरबारीं वातावरण का यथार्थ अंकन हुआ है।
- अनेक स्थलों पर अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है’रुचि राच्यो’, ‘निसि नाच्यौ’, ‘निबरे न्’ ‘
- ब्रजभाषा का प्रयोग है।
- सवैया छंद प्रयुक्त हुआ है।