अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 10 Summary
अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे – भारतेंदु हरिश्चंद्र – कवि परिचय
प्रश्न :
कबीर के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय – हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग-भक्तिकाल के अग्रदूत, निर्गुण संत महात्मा कबीर हिंदी साहित्य की श्रेष्ठतम विभूति हैं। वाणी के इस वरद् पुत्र की आभा से साहित्याकाश आलोकित हो गया। कबीर ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं।
जन्म-कबीरदास का जन्म 1398 ई. में काशी में हुआ था। कहा जाता है कि इनका जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। उसने लोक-लाजवश इन्हें लहरतारा नामक तालाब के निकट छोड़ दिया था। वहीं से बालक को ले जाकर नीरु और नीमा जुलाहा दंपत्ति ने इनका पालन-पोषण किया। कबीर ने भी जुलाहे का व्यवसांय ही अपनाया। कबीर स्वामी रामानंद के शिष्य थे। वे पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने स्वयं कहा है-
“मसि कागद छूऔ नहिं, कलम गहि नहीं हाथ।”
उन्होंने अपने अनुभव से ही जीवन-जगत् का ज्ञान प्राप्त किया। 1518 ई. में इनका देहांत मगहर में हो गया। कबीर जी के नाम से एक पंथ चला, जो कबीर पंथ कहलाया। इसके अनुयायी आज भी देश में पाए जाते हैं।
रचनाएँ – कबीर की वाणियों का संकलन ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में पाया जाता है। कबीर स्वयं पढ़े-लिखे न थे अतः कबीर के शिष्यों ने इसका संकलन किया। ‘बीजक’ के तीन अंश हैं-(1) साखियाँ, (2) सबद, (3) रमैनी। ‘बीजक’ मुक्तक काव्य है। इसमें समाज सुधारपरक, भक्तिभावना से संपन्न, ज्ञान एवं व्यावहारिक विषयों पर दोहे एवं सोरठे रचे गए हैं। इसके अतिरिक्त सिक्ख-संप्रदाय के प्रख्यात ग्रंथ ‘आदि ग्रंथ’ में भी कबीर की साखियों एवं सबदों का पर्याप्त संग्रह मिलता है। कबीर के गेय पदों को ‘सबद ‘ कहा जाता है। दोहा छंद में लिखी साखियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। ‘रमैनी’ में पद-शैली में सिद्धांतों का विवेचन है।
साहित्यिक विशेषताएँ – कबीरदास उच्च कोटि के साधक, संत और विचारक थे। भारतीय समाज में व्याप्त जाति-पाँति, अंधविश्वास, बाह्य आडंबर, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, धार्मिक संकीर्णता और कट्टरता का डटकर विरोध किया। जाति-पाँति का विरोध करते हुए उन्होंने कहा है-
“जात-पाँत पूछौ न कोई,
हरि को भजै सो हरि को होई।”
कबीरदास युग-संधि पर पैदा हुए थे। उस समय समाज पर हठयोगियों तथा नाथपंथी साधुओं का बड़ा प्रभाव था। कबीर ने निडरता का परिचय देते हुए हिंदुओं और मुसलमानों को ढोंग-आडंबरों के लिए फटकारा। तीर्थ, व्रत, रोजा, नमाज आदि का विरोध करते हुए उन्होंने कहा है-
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर॥
इसी प्रकार मुसलमानों को कहा-
काँकर पाथर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय॥
कबीरदास रहस्यवादी कवि थे। उन्होंने आत्मा-परमात्मा के रहस्य को अत्यंत सरल भाषा में समझाया है। वे कहते हैं –
“जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ, जल जलहि समाना, इहि तत कथ्यौ ग्यानी।”
कबीर ने परमात्मा को पति रूप में और जीवात्मा को पत्नी के रूप में प्रस्तुत किया है। प्रिय की राह देखती हुई पत्नी की क्या दशा होती है-
अँखियन तो झाँइ पड़ी, पंथ निहारि निहारि।
जीभड़िया छाला पड्या, राम पुकारि पुकारि॥
सिद्ध एवं नाथपंथियों के समान कबीरदास जी ने हठ-साधना पर भी बल दिया है। इसी हठ योग की बात करते हुए कबीर लिखते हैं-
रस गगन गुफा में अजर झरै।
अजपा सुमिरन जाप करै॥
कबीरदास ने गुरु के महत्त्व पर बहुत बल दिया है। वे गुरु की महिमा का बखान इन शब्दों में करते हैं-
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पायँ।
बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियौ मिलाय।
कबीर शरीर की नश्वरता से भलीभाँति परिचित थे, अतः इस पर घमंड न करने को कहते हैं-
मन रे, तन कागद का पुतला
लगै बूँद बिनसि जाइ छिन में, गरब करे क्या इतना।
कबीरदास निर्गुण राम के उपासक थे। वे कहते थे-
“निर्गुण राम जपहु रे भाई।”
+ + + +
“राम बिन तन की ताप न जाई।”
भाषा-शैली-कबीर ने सहज-सरल भाषा को अपनाया है। उनकी भाषा मिश्रित है। इनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ या पंचमेल खिचड़ी कहा जाता है। इसमें अरबी-फारसी, ब्रज, अवधी, खड़ी बोली, पंजाबी, भोजपुरी आदि शब्दों की बहुलता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनकी भाषा के विषय में लिखा है-” भाषा पर कबीर का जबर्दस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप में कहलवा दिया है। बन गया तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर।”
कबीरदास ने कहीं भी अपने काव्य में अलंकारों का मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश नहीं की है। उनके काव्य में अलंकार स्वाभाविक रूप से आ गए हैं। इनमें प्रमुख हैं-रूपक, उपमा, अन्योक्ति, यमक, वक्रोक्ति आदि अलंकार। उन्होंने पद-योजना में विभिन्न राग-रागनियों का ध्यान रखा है, जिससे उनमें गेयता का गुण आ गया है। कबीर का काव्य मुक्तक शैली में रचा गया है।
कबीरदास की अधिकांश साखियों एवं पदों में शांत रस का प्रयोग है। उनकी उलट बाँसियों में अद्भुत रस है। शेष पदों में भक्ति-विषयक शृंगार रस प्रधान है।
कबीरदास असाधारण प्रतिभा के कवि एवं समाज-सुधारक रहे हैं। उनके काव्य का मूल्यांकन करते हुए अंग्रेज लेखिका लिखती हैं –
But his wonderful songs survive, the spontaneous expression of his vision and his lone, and it is by these, not by the didactic teachings associated with his name, that he makes his immortal appeal to the heart.
Are In Dohun Rah Na Pai, Balam Aavo Hamare Geh Re Class 11 Hindi Summary
यहाँ पर कबीर के दो पद संकलित किए गए हैं।
पहले पद में हिंदू और मुसलमान दोनों के धर्माचरण पर प्रहार करते हुए धर्म के अंदर व्याप्त बाह्याडंबर को उजागर किया गया है। कुरीतियों और वामाचार पर व्यंग्य करते हुए कवि ने दोनों धरों की आलोचना की है। कबीर का कहना है कि हिंदू और मुसलमान दोनों धर्माडंबरों को अपनाने के कारण ईश्वर को पाने में असफल रहे हैं। दोनों धर्मों के अनुयायियों में कई कुरीतियाँ व्याप्त हैं। इन्हें छोड़ना होगा।
दूसरे पद में कीव ग्रह्न को स्वामी और आत्मा को स्वामिनी के रूप में प्रस्तुत करते हुए प्रेम और भक्ति का मार्ग दिखाया है। कवि कहता है कि बिना ब्रह-ज्ञान के साधक का कल्याण नहीं है। वह ब्रह्म को उलाहना देते हुए पुकार रहा है कि बिना तुम्हारे जीव को किसी भी प्रकार चैन नहीं है। जिस प्रकार प्यासे को पानी, भूखे को अन्न और स्त्री को पति बिना चैन नहीं है उसी भाँति जीव को परमात्मा बिना संतोष नहीं है। इस पद में कबीर का रहस्यवाद प्रकट होता है।
अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे सप्रसंग व्याख्या
1. अरे इन दोहुन राह न पाई।
हिंदू अपनी करै बड़ाई गागर छुवन न देई।
बेस्या के पायन-तर सोवै यह देखे हिंदुआई।
मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी-मुर्गा खाई।
खाला केरी बेड़ी ब्याहै घरहहिं में करै सगाई।
बाहर से इक मुर्दा ताए धोय-धाय चढ़वाई।
सब सखियाँ मिलि जेंवन बैठीं घर-भर करै बड़ाई।
हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो कौन राह है जाई॥
शब्दार्थ :
- दोहुन = दोनों ने (Both)।
- राह = रास्ता (Path)।
- बड़ाई = प्रशंसा (Praise)।
- गागर = घड़ा (Pot)।
- छुवन = छूने (To touch)।
- बेस्या = वेश्या (Brothel)।
- पायन = पैरों (Feet)।
- तर = नीचे (Under)।
- पीर = अध्यात्मिक गुरु (Spiritual guru)।
- औलिया = भक्त (Follower)।
- खाला = मौसी (Sisser of mother)।
- घरहिं = घर में ही (In the house)।
- जेवन = जीमना, भोजन करना (To take food)।
- तुरकन = तुर्क मुसलमान (Muslim)।
प्रसंग – प्रस्तुत पद भक्तिकाल की निर्गुणमाग्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीरदास द्वारा रचित है। इस पद में कबीर ने हिंदू और मुसलमान दोनों के धर्माचरण पर प्रहार करते हुए धर्म के अंदर व्याप्त बाह्याडंबरों को उजागर किया है। कुरीतियों और वामाचार पर व्यंग्य करते हुए कवि ने दोनों धर्मों की आलोचना की है।
व्याख्या – कबीरदास कहते हैं कि दोनों अर्थात् हिंदुओं और मुसलमानों ने ईश्वर प्राप्ति के सही मार्ग को नहीं पाया। कवि हिंदुओं के बारे में बताते हुए कहता है कि ये लोग अपनी बड़ाई स्वयं करते हैं और अपने पानी के बरतन को किसी को छूने तक नहीं देते अर्थात् छूत-छात को बहुत मानते हैं और स्वयं को उच्च वर्ण का सिद्ध करते हैं। स्वयं को ऊँचा साबित करने वाले ये िंदू ही वेश्या के पैरों में सोते रहते हैं अर्थात् वेश्या के हाथों बिक जाते हैं (व्यंग्य), तब भला इनकी श्रेष्ठता कहाँ चली जाती है। यही दशा मुसलमानों की भी है। वैसे तो वे पीर-फकीरों के भक्त, शिष्य बनते फिरते हैं और मुर्गा-मुर्गी को मारकर खाते हैं (व्यंग्य), जीवहत्या में उनकी आध्यात्मिकता कहाँ चली जाती है?
ये दुसलमान लोग मौसी की बेटी से ब्याह कर लेते हैं और घर में ही सगाई कर लेते हैं। (मौसी की बेटी बहन के बराबर होती है) ऐसा बागाचार भला ईश्वर-प्राप्ति में कैसे सहायक हो सकता है। इसी प्रकार किसी निर्जीव को नहला-धुलाकर पूजना भला कैसे उचित कहा जा सकता है। उसके नाम पर मिल-जुलकर खाना भी अनुचित है। कबीर कहते हैं कि मैंने हिंदुओं की हिंदुआई और मुसलमानों की मुसलमानी भली प्रकार देख ली है। इनमें धर्म के नाम पर बाह्य आडंबरों पर जोर है। हे साधो! सुनो और निर्णय करो कि तुम्हें किस रास्ते पर चलकर ईश्वर को पाना है।
विशेष :
- कबीर ने अपनी निष्पक्षता और स्पष्टता का परिचय देते हुए हिंदू-मुसलमानों के ढोंग-आडंबरों पर करारी चोट की है।
- सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है।
- अनेक स्थलों पर अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है-‘सब सखियाँ’, ‘कहै कबीर’, ‘धोय-धाय’ में।
2. बालम, आवो हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोई कहै तुम्हारी नारी, मोकों लगत लाज रे।
दिल से नहीं लगाया, तब लग कैसा सनेह रे।
अन्न न भावै नींद न आवै, गृह-बन धरै न धीर रे।
कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे।
है कोई ऐसा पर-उपकारी पिवसों कहै सुनाय रे।
अब तो बेहाल कबीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे।
शब्दार्थ :
- बालम = प्रियतम, भगवान (Dear)।
- गेह = घर (House)।
- देह = शरीर ( Body)।
- नारी = स्त्री (Wife)।
- मोकों = मुझे (tom e)
- लाज = लज्जा, शर्म (Shame)।
- सनेह = प्रेम (Love)।
- भावैं = भाना, अच्छा लगना (Feel good)।
- गृह = घर (House)।
- बन = जंगल (Forest)।
- धीर = धैर्य (Patience)।
- कामिन = प्रेमिका (Beloved)।
- नीर = पानी (Water)।
- पिवसों = प्रिय से (To dear)।
- बेहाल = बुरा हाल (Bad condition)।
- जिव = जीना (To live)
प्रसंग – प्रस्तुत पद भक्तिकाल की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीरदास द्वारा रचित है। कबीरदास रहस्यवादी कवि हैं। इसमें साधक की आत्मा ब्रहम को अपना बालम (प्रियतम) तथा स्वयं को उसकी पत्नी मानती है। जिस प्रकार पति-बिछोह से स्त्री विरह में होती है, उसी प्रकार ब्रह्म से वियुक्त आत्मा अपने को विरहिणी नारी मान लेती है। प्रस्तुत पद में अपने को ब्रह्म की पत्नी मानने वाली आत्मा कहती है-
व्याख्या – हे प्रियतम! तुम्हारे बिना मेरा शरीर विरह की पीड़ा से ग्रसित है। तुम मेरे घर आकर मेरी पीड़ा का हरण करो। मेरा दुख यह है कि केवल मैं ही नहीं, बल्कि दूसरे भी मुझे तुम्हारी स्त्री कहते हैं। इसमें मुझे लज्जा आती है। किंतु तुम मुझे सनाथ करते हुए मेरे घर नहीं आते। तुमने मुझे कभी अपने दिल से नहीं लगाया, तब भला यह कैसा प्रेम है? जब तुम मुझे अपने हृदय में स्थान दोगे तभी यह प्रेम पूर्णता को प्राप्त होगा। तुम्हारे विरह में मेरी यह दशा हो गई है कि न मुझे घर भाता है, न वन और न मुझे ठीक प्रकार से नींद ही आती है। मेरा दिल धैर्य धारण भी नहीं करता। जिस प्रकार कामिनी स्त्री को अपना बालम (प्रियतम) प्यारा लगता है और प्यासे व्यक्ति को पानी अच्छा लगता है, उसी प्रकार तुम मुझे प्यारे हो। मेरे आस-पास ऐसा कोई परोपकारी व्यक्ति नहीं है जो तुमसे (प्रिय से) मेरा हाल जाकर कहे। तुम्हारे विरह में मेरी ऐसी दशा हो गई है कि अब तुम्हें देखे बिना प्राण जाने को हैं।
विशेष :
- ‘बालम’ और ‘तुम्हारी नारी’ में कबीर ने स्वयं को ब्रह्म की पत्नी के रूप में देखा है।
- ब्रह्म रूपी प्रियतम से मिलने की तीव्र इच्छा अभिव्यक्त हुई है।
- ‘बिन देखे जिव जाय रे’-साधना में प्रेम की उत्कटता एवं विरह की बेचैनी व्यंजित हुई है। साधक में विरह की पीड़ा जितनी गहरी होगी, वह अपने आराध्य के उतना ही निकट होगा।
- अनेक स्थलों पर अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है-दुखिया देह, कोई, कहह, धरर न धीर ज्ञिव ज़ाप आदि में।
- उदाहरण देकर कथ्य स्पष्ट किया गया है।
- भाषा सधुक्कड़ी है।