CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना

CBSE Class 11 Hindi Elective Rachana परियोजना

परियोजना-1

हिंदी साहित्य का स्वर्ण-युगा : भक्तिकाल की प्रेमाश्नयी शाखा के प्रतिनिधि कवि
– सूरदास

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 1

महाकवि सूरदास महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य तथा गोस्वामी विट्ठल नाथ द्वारा प्रतिष्ठित अष्टछाप के प्रथम कवि हिंदी साहित्याकाश के सर्वाधिक प्रकाशमान नक्षत्र हैं। वस्तुत: भारतीय समाज में कृष्ण भक्ति की रसधारा बहाने में सूरदास को ही श्रेय जाता है। वल्लभाचार्य ने सूरदास को ‘पुष्टिमार्ग’ में दीक्षित कर कृष्ण लीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास उनके शिष्य बन गए।

सूरदास का नाम कृष्ण-भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त-कवियों में सर्वोपरि है। हिंदी साहित्य में श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि सूरदास हिंदी साहित्याकाश के सूर्य माने जाते हैं। हिंदी कविता कामिनी कांत ने हिंदी भाषा को समृद्ध करने में जो योगदान दिया है, वह अद्वितीय है।

जीवन-परिचय : महाकवि सूरदास के जन्म स्थान और काल के बारे में अनेक मत हैं। अधिकांश साहित्यकारों का मत है कि सूरदास का जन्म 1478 ई. में आगरा और मथुरा के बीच स्थित रूनकता नामक गाँव में हुआ था। दूसरी मान्यता यह है कि उनका जन्म दिल्ली-बल्लभगढ़ के बीच सीही नामक गाँव में हुआ था। वे मथुरा-वृंदावन के बीच गऊघाट पर रहते थे और श्रीनाथ जी के मंदर में भजन-कीर्तन करते थे। सन् 1583 ई. में पारसोली नामक गाँव में उनका देहांत हुआ था।

कहा जाता है कि सूरदास जन्मांध थे, किंतु उनके पदों में रंग-रूप का अद्भुत वर्णन तथा श्रीकृष्ण की विविध लीलाओं के सूक्ष्म-चित्रण को पढ़कर इस बात पर सहसा विश्वास नहीं होता। श्री हरिराय कृत ‘भाव प्रकाश’, श्री गोकुलनाथ की ‘निज वार्ता’ आदि ग्रंथों के आधार पर सूरदास जन्मांध माने गए हैं, लेकिन राधा-कृष्ण के रूप-सौंदर्य का सजीव वर्णन, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मांध नहीं मानते। इस बारे में दो विद्वानों के कथन उल्लेखनीय हैं :

“सूर वास्तव में जन्मांध नहीं थे, क्योंकि शृंगार तथा रूप आदि का जो वर्णन उन्होंने किया है, वैसा कोई जन्मांध नहीं कर सकता।”
-श्यामसुंदर दास

“सूरदास के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म से अंधा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।”
-हजारी प्रसाद द्विवेदी

ऐसा कहा जाता है कि सन् 1500 ई. के आस-पास पुष्टि संप्रदाय के प्रवर्तक वल्लभाचार्य अपने नव-निर्मित श्रीनाथ जी के मंदिर की देखभाल करने गोवर्धन जाते हुए गऊघाट पधारे। यहीं उनकी भेंट सूरदास से हुई। सूर ने महाप्रधु के सम्मुख अनेक विनय और दीनता भरे पद गाकर सुनाए। इन्हें सुनकर महाप्रभु एक अंध कवि के हाथों बिक गए। उन्होंने सूर से प्यार भरे शब्दों में कहा-“सूर हैं के ऐसो काहे घिघियात हो। कहु भगवत् लीला का वर्णन करो।” कहते हैं तभी से कृष्ण की विविध लीलाओं का गान करना सूर का मुख्य विषय बन गया।
सूरदास ‘अष्टछाप’ के प्रमुख कवि हैं, अतः अष्टछाप के बारे में जान लेना उचित होगा।

अष्टछाप : ‘अष्टछाप’ के संस्थापक महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्रमुख शिष्य और उनके सुपुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ थे। उन्होंने अपने पिता के 84 शिष्यों में से 4 तथा अपने 252 शिष्यों में से 4 को लेकर ‘अष्टछाप’ (8 कवि) की स्थापना की। हिंदी साहित्य में अष्टछाप का साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व है। वल्लभाचार्य का दार्शनिक सिद्धांत ‘शुद्धाद्वैत’ के नाम से जाना जाता है। इनकी उपासना-पद्धति ‘पुष्टिमार्ग’ कहलाती है। ‘पुष्टि’ भगवान के अनुग्रह को कहते हैं।

गोस्वामी विट्ठलनाथ ने आठ कवियों को चुनकर उन पर अपने अनुग्रह की छाप लगा दी। इसीलिए इस कवि-समूह को ‘अष्टछाप’ कहा जाने लगा। सूरदास इनमें प्रमुख हैं।
अष्टछाप के कवियों के नाम-

  1. सूरदास
  2. कुंभनदास
  3. परमानंद दास
  4. कृष्णदास
  5. छीतस्वामी
  6. गोविंद स्वामी
  7. चतुर्भुज दास
  8. नंददास

इनमें पहले चार कवि वल्लभाचार्य के शिष्य थे और शेष चार गोसाईं विट्ठलनाथ के।
अष्टछाप के सभी कवि संगीतज्ञ एवं कीर्तनकर्ता थे। ये आठों कवि श्रीनाथ जी के अंतरंग सखा थे और प्रभुभक्ति के पदों की रचना करके गाया करते थे। लौकिक लीला में ये भौतिक रूप से मंदिर के आठों द्वारों पर स्थित रहते थे। ये भौतिक शरीर त्यागकर अलौकिक रूप से लीला में लीन हो जाते थे।
सूरदास इन कवियों में सर्वोपरि थे।
सूरदास की रचनाएँ
सूरदास द्वारा रचित पाँच ग्रंथ बताए जाते हैं :

  1. सूरसागर
  2. सूरसारावली
  3. साहित्य-लहरी
  4. नल-दमयंती
  5. ब्याहलो

इनमें ऊपर के तीन ग्रंथ ही उपलब्ध हैं।

सूरसागर : यह काव्य-ग्रंथ ही सूरदास की कीर्ति का अक्षय भंडार है। ‘श्रीमद् भागवत्’ के आधार पर रचे गए इस ग्रंथ में पदों की संख्या सवा लाख बताई जाती है, किंतु वर्तमान संस्करणों में लगभग पाँच हजार पद ही मिलते हैं। विभिन्न स्थानों पर इसकी सौ से भी अधिक प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई हैं। सबसे प्राचीनतम प्रतिलिपि ‘ नाथद्वारा ‘ (मेवाड़) के ‘सरस्वती भंडार’ में सुरक्षित पाई गई है। इसमें नौ अध्याय तो संक्षिप्त हैं, पर दशम स्कंध का बहुत विस्तार है। इसमें भक्ति की प्रधानता है। इसके दो प्रसंग ‘कृष्ण की बाल-लीला’ और ‘भ्रमरगीत सार’ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

साहित्य लहरी : यह 118 पदों की एक लघु रचना है। इसके अंतिम पद में सूरदास का वंशवृक्ष दिया गया है जिसके अनुसार सूरदास का नाम सूरजदास है। इस रचना में रस, अलंकार और नायिका-भेद का प्रतिपादन किया गया है। रस की दृष्टि से यह ग्रंथ विशुद्ध शृंगार की कोटि में आता है।

सूर सारावली : इस काव्य ग्रंथ में होली गीत के रूप में रचित 1107 छंद हैं। इनमें आद्यांत एक ही छंद का प्रयोग हुआ है।

काव्यगत विशेषताएँ : सूरदास सगुणोपासक कृष्ण भक्त कवि हैं। उन्होंने कृष्ण के जन्म से लेकर मथुरा जाने तक की कथा तथा कृष्ण की विभिन्न लीलाओं से संबंधित अत्यंत मनोहारी पदों की रचना की है। सूर के काव्य में श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन अपनी सहजता, मनोवैज्ञानिकता और स्वाभाविकता के कारण अद्वितीय है। वे मुख्यतः वात्सल्य और शृंगार रस के कवि हैं। उनके बारे में कहा जाता है- “सूर शृंगार और वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आए हैं।” सूरदास की काव्यगत विशेषताओं को दो वर्गों में बाँटकर देखा जा सकता है-

भाव-सौंदर्य –

वात्सल्य-वर्णन : सूरदास ने बाल-कृष्ण की चेष्टाओं, उनके स्वभाव, उनकी रुचि और क्रीडाओं का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है। सूर के वात्सल्य-वर्णन को मात्र वर्णन नहीं कहा जा सकता। सूर ने प्रत्येक परिस्थिति और स्थिति जन्य भाव को पूर्ण रूपेण मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान किया है। इसी संदर्भ में वात्सल्य का चित्रण हुआ है।

माता यशोदा बाल गोपाल को पालने में झुला रही हैं। ऐसे अवसर का वर्णन करते हुए सूरदास लिखते हैं :

जसोदा हरि पालनै झुलावै।
हलरावै, दुलरावै, मल्हावै, जोइ-सोई कुछ गावै
मेरे लाल को आड निंदरिया, काहे न आन सुवावै
तू काहै बेगहि न आवै, तो कौ कान्ह बुलावै।

आनंद में मग्न बालक एक दिन पालने में उलट गया, जो एक साधारण-सी बात है, पर माता के हृदय की प्रसन्नता सूर की दृष्टि से न बच सकी। वे लिखते हैं-

हरि मुदित उलटाइ कै मुख चूमन लागी।
चिरजीवौ मेरौ लाडिलो, मैं भई सभागी।

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अब माता यशोदा चाहती हैं कि उसका बेटा उसे माँ कहकर पुकारे, उसका आँचल पकड़कर इधर-उधर उसके साथ घूमता फिरे। मातृ हृदय का सहज भाव-संसार सूर की कलम की नोंक से निकलकर अमर गीत बन गया। ऐसे ही एक प्रसंग में वे लिखते हैं :

जसुमति मन अभिलाष करै।
कब मेरौ लाल घुटरुवनि रेंगै, कब धरनी पग द्वैक धरै।
+ + + +
कब नंदहिं कवि बाबा बोलैं, कब जननी कहि मोहि ररै॥

माँ की अभिलाषाओं की कोई सीमा नहीं है। माँ यशोदा अपने बाल-गोपाल की सुंदरता पर बलिहारी जाती है। वह कह उठती है-

“कहाँ लौं बरनौं सुंदरताई”

अब बालक घुटनों के बल चलने लगता है तो सूर कह उठते हैं-

किलकत कान्ह घुदुरुन आवत’
+ + +
चलत देखि जसुमति सुख पावै।
ठुमक-ठुमक धरती पर रेंगत, जननि देखि दिखावै।

माता यशोदा बाल-कृष्ण को चलाना सिखाती हैं-

सिखवत चलन जसोदा मैया।
अरबराई करि पानि गहावति, डगमगाई धरनि धरें पैंया।

सूरदास ने वात्सल्य में वियोग का भी मार्मिक वर्णन किया है। कंस के बुलावे पर अक्रूर कृष्ण को मथुरा ले गए। इसी प्रसंग में सूर ने वात्सल्य के वियोग पक्ष का निरूपण किया है। यशोदा को पुत्र का वियोग देकर सूर ने माँ के व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान की है। यशोदा ने जब सुना कि उसका पुत्र उसे छोड़कर जा रहा है, तो उसका मातृ-हुदय चीख उठा। वह दीन-हीन बनकर सभी से उसे रोक लेने की मनुहार करती है-

जसोदा बार-बार यों भाखै।
है कोऊ ब्रज में हितू हमारौ, चलत गोपालहिं राखै।

अंतत: यशोदा को वास्तविक स्थिति स्वीकार करनी पड़ी। वह पुत्र-वियोग की पीड़ा सहकर चुप हो गई, पर पुत्र-हित का भाव उसके मातृ-हृदय में उफनता रहा। वह देवकी को संदेश भेजते हुए कहती है-

संदेसौ देवकी सौं कहियौ।
हौं तो धाय तिहारे सुत की, क्रिया करत ही रहियौ।
उबटन तेल तातो जल देखत ही भजि जाते।
जोइ-जोइ माँगत सोइ-सोइ देती, करम-करम करि न्हाते।
तुम तो टेव जानतिहि है हौं तक मोहि कहै आवै।
प्रात उठत मेरे लाड़ लड़ैतेहि, माखन रोटी भावै॥

कितनी विवशता, कितना प्यार सूर के इस पद में भरा पड़ा है, इसे माँ के हृदय के सिवाय और कोई नहीं जान सकता। सूर को इसी कारण ‘सूर’ (सूर्य) कहा गया है क्योंकि उनके कवि-हृदय के प्रकाश के सम्मुख कुछ भी छिपा नहीं रह सकता। बाल-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन : सूरदास ने बाल-कृष्ण की विविध लीलाओं, भाव भंगिमाओं का अत्यंत स्वाभाविक एवं प्रभावी वर्णन किया है। माता यशोदा बालक कृष्ण को कई तरह के प्रलोभन देकर दूध पिलाती है, पर बालक शिकायत करता है-

मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।

बाल-कृष्ण नंद् बाबा के आँगन में घुटनों के बल चलकर अपनी लीला दर्शाते हैं-

किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नंद के आँगन, बिंब पकरिबें धावत।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौं पकरन चाहत।
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावत॥

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बाल कृष्ण ने हाथ में नवनीत (माखन) लिया हुआ है। वे घुटनों के बल चलते आते हैं-

सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरूनि चलत रेनु-तन-मंडित, मुख दधि लेप किए।
चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए।
लट-लटकनि मन मत्त मधुप-गन, मादक मधुहिं पिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सत कल्प किए।

बाल-कृष्ण को आँगन में गुनगुनाने और अपनी गायों को बुलाने में बड़ा आनंद आता है। सूर इस स्थिति का चित्रण इन शब्दों में करते हैं :

हरि अपने आँगन कछु गावत।
तनक-तनक चरननि-सौं नाचत, मनहिं-मनहिं रिझावत।
बाँह उठाइ काजरी-धौरी गैयन टेरि बुलावत।

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बाल-कृष्ण माखन-प्रेमी हैं। वे गोपियों के घर में घुस जाते हैं और छींके पर रखा माखन जमीन पर गिरा देते हैं। सभी ग्वाल-बाल मिलकर सारा माखन खा जाते हैं। जब गोपी उसकी शिकायत लेकर माता यशोदा के पास जाती है तब बाल-कृष्ण यह उत्तर देते हैं-

मैया मैं नहिं माखन खायौ।
ख्याल परै बे सखा सबै मिलि, मेरे मुख लपटायौ।

बाल-कृष्ण को गाय चराने के लिए जाने का बड़ा शौक है। माता यशोदा उसे रोकती है तो बालक हठ करने लगता है। वह संध्या के समय बाबा नंद से दूध दुहने की कला सीखने का हठ करता है-

मैं दुहितौं मोहि दुहन सिखावहु।
कैसे धार दूध की बाजति, सोइ-सोइ मोहि बतावहु।

बाल-कृष्ण खेलते समय ग्वाल-बालों से रूठ जाते हैं। इस स्थिति का वर्णन करते हुए सूर ने लिखा है-

खेलन में को काको गुसैयाँ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस कत करत रिसैयाँ।
रूठहिं करें तासौ को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ ग्वैयाँ।

शृंगार रस वर्णन : सूर का समस्त काव्य वात्सल्य और शृंगार की भावभूमि पर खड़ा है। शृंगार को रंसराज माना जाता है। सूर के शृंगार वर्णन में आकस्मिता नहीं है। सूरदास ने शृंगार की दोनों अवस्थाओं-संयोग और वियोग का प्रभावी एवं मार्मिक अंकन किया है।

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संयोग शृंगार : सूर ने राधा-कृष्ण के प्रथम मिलन का वर्णन परिचयात्मक रूप से इस प्रकार किया है –

बूझत स्याम कौन तू गौरी?
कहाँ रहति है, काकी है बेटी, देखी कबहुँ नहिं ब्रज खोरी।

राधा उत्तर देती है-

काहे कौ हम ब्रज तन आवत, खेलत रहत आपनी पौरी।

दोनों के मध्य प्रेम के अंकुर फूटने लगते हैं-

प्रथम स्नेह दुहनि मन जान्यौ
नैन-नैन कीन्हीं सब बातें, गुप्त प्रीति प्रकटान्यौ।

कृष्ण खेलने के लिए ब्रज-खोरी से बाहर निकलते हैं तो यमुना-तट पर उनकी भेंट राधा से हो जाती है। सूर इस भेंट का वर्णन करते हुए लिखते हैं-

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खेलत हरि निकसे ब्रज खोरी
गए स्याम रवि तनया कैं तट, अंग लसत चंदन की खोरी,
औचक ही तहँ देखी राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी।
नील बसन फरिया कटि पहिरे, बेनी पीठि रूलति झकझोरी,
सूर स्याम देखत हीं रीझै, नैन-नैन मिली परी ठगोरी॥

मुरली का प्रभाव : जब कृष्ण मुरली की मधुर तान छेड़ते हैं, तो गोपियाँ उनके प्रेम के वशीभूत होकर दौड़ी चली आती हैं। राधा भी मुरली सुनने को बेताब रहती है। सूर ने लिखा है-

सुनहु हरि मुरली मधुर बजाई।
मोहि सुर-नर-नाग, निरंतर, ब्रज बनिता मिलिं धाईँ।
यमुना-नीर-प्रवाह थकित भयौ, पवन रह्यौ मुरझाई।
सूर स्याम वृंदावन विहरत, चलहु सखी सुधि पाई।

श्रीकृष्ण राधा और गोपियों के संग विविध लीलाएँ करते हैं। वे होली खेलते हुए अपनी पिचकारी से राधा की साड़ी को भिगो देते हैं। राधा के साथ उसकी सखियाँ भी हैं।

हरि संग खेलत सब फाग
इहिं मिस करति प्रकट गोपी, उर अंतर कौ अनुराग।
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि-बनि निकसी भई ठाढ़ी, सुनि माधो के बैन।

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वियोग शृंगार : कहा जाता है कि शृंगार की पूर्णता संयोग में नहीं, अपितु वियोग की स्थिति में प्राप्त होती है। सूर का वियोग शृंगार वर्णन अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है। श्रीकृष्ण गोपियों को रोता-बिखलता छोड़कर कंस के बुलावे पर मथुरा चले गए और फिर लौटकर नहीं आए। गोपियाँ उनके प्रेम में व्यथित रहने लगीं। गोपियों को संयोगकाल में प्रकृति के जो रूप मन को अच्छे लगते थे, अब वे ही उन्हें काटने को दौड़ते प्रतीत होते हैं।

प्रकृति उद्दीपन के रूप में गोपियों के विरह को दुगना करती जान पड़ती है। सूर लिखते हैं-

बिन गोपाल बैरिन भई कुंजै।
तब ये लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ग्वाल की पुंजै।

गोपियाँ स्वयं तो दुखी हैं. उन्हें विरह-ज्वाला जला रही है अतः हरे-भरे वन को उपालंभ देते हुए कहती हैं-

मधुबन तुम कत रहत हरे।
विरह-वियोग स्याम सुंदर के ठाड़े क्यों न जरे?

सूर का वियोग शृंगार वर्णन ‘भ्रमरगीत’ के नाम से जाना जाता है। श्रीकृष्ण अपने परम मित्र उद्धव को गोपियों को निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने का दायित्व सौंपते हैं। उद्धव ब्रज में गोपियों को कृष्ण-प्रेम भूलकर निर्रुण ब्रह्म (योग) को अपनाने की बात कहते हैं तो गोपियाँ निर्गुण ब्रह्म का उपहास करते हुए उससे पूछती हैं-

निर्युण कौन देस को बासी
को है जनक, जननि को कहियत, को नारी, को दासी?

गोपियाँ श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम की अभिव्यक्ति इन शब्दों में करती हैं-

हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन वचन क्रम नंदनंदन सों, उर यह दूढ़ि पकरी।
सुनतहि जोग लगत ऐसो अलि, ज्यों करुई ककरी।
यह तौं ‘सूर’ तिन्हें लै दीजे, जिनके मन चकरी॥

गोपियाँ का मन तो पूरी तरह से श्रीकृष्ण के साथ चला गया है और उनके पास दूसरा मन नहीं है, जिससे वे निर्गुण ब्रह्म की उपासना कर सकें-

ऊधो मन नाहीं दस-बीस
एक हतौ सो गयो स्याम संग, को अराधै ईस?
तुम तो सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास रसिक बतियाँ, पुख्ओं मन जगदीस।

गोपियाँ उद्धव को खरी-खरी सुनाते हुए कहती हैं कि उनका योग यहाँ (ब्रज में) नहीं बिकने वाला। वे कहीं और जाकर इसे बेचें-

जोग ठगोरी ब्रज न बिकैहै।
मूरी के पातीन के बदलैं, को मुक्ताहल दैहैं।
यूह ब्यौपार तुम्हारौ ऊधो, ऐसें ही धरयौ रैहिं।
जिनयै तै लै आए ऊघो, तिनहिं कै पेट समै हैं।
दाख छाँडि के कटुक निबौरी, को अपने मुख खैहैं।

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गोपियाँ उद्धव की मूर्खता पूर्ण बातों को हंसी का पात्र बताते हुए व्यंग्य करती हैं-

मधुकर भली करी तुम आए।
वै बातें कहि-कहि या दुख में ब्रज के लोग हँसाए।

कृष्ण के वियोग में गोपियाँ तो दुखी हैं ही, कृष्ण को ब्रज की याद भुलाए नहीं भूलती। वे उद्धव के सम्मुख अपने मन की व्यथा इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-

ऊधो मोहिं बज बिसरत नाहीं।
हंस-सुता की सुंदरि कगरी, अरु कुंजन की छाँही।
यह मधुरा कंचन की नगरी, गनि-मुक्ताहल जाहीं।
जबहिं सुरति आवत वा सुख की, जिय उमगत तनु नाहीं।

शांत रस : सूरदास ने विनय के पद भी रचे हैं। इनमें शांत रस का परिपाक हुआ है। इन पदों में सूर की भक्ति-भावना अभिव्यक्त हुई है। सूर लिखते हैं-

मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसै उड़ि जहाज कौ पच्छी, फिरि जहाज पर आवै।
कमल-नैन को छाँडि महातम, और देव कौं ध्यावै।
सूरदास प्रभु कामथेनु तजि, छेरी कौन दुहावै।

एक अन्य स्थल पर सूर प्रभु श्रीकृष्ण की कृपा का वर्णन इन शब्दों में करते हैं-

चरण-कमल बंदौ हरि राई।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे को सब कछु दरसाई।

सूरदास कृष्ण को उदारता और परदुख कातरता की व्यंजना इस प्रकार करते हैं-

स्याम गरीबनि हू के गाहक।
दीनानाथ हमारे ठाकुर, साँचे प्रीति निवाहक।
कहा सुदामा कैं धन हौं? तौ सत्य प्रीति के चाहक
सूरदास सठ, तातैं हरि-भजि आरत के दुख-दाहक॥

कला पक्ष : सूर के काव्य में अलंकार-विधान उत्कृष्ट है। उसमें शब्द-चित्र उपस्थित करने एवं प्रसंगों की वास्तविक अनुभूति कराने की पूर्ण क्षमता है। सूर ने अपने काव्य में रूपक, उपमा, उत्त्रेक्षा आदि अलंकारों का सटीक प्रयोग किया है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं-

उत्र्रेक्षा अलंकार-
लट-लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहि पिए।
देख सखी उरोज कंचन संभु धरे बनाई।
बीच मुक्ताहार जनु, सुरसरि उतरि आई॥
रूपक अलंकार-
‘चरण-कमल बंदौ हरि राई।’
ज्ञान-कुसुम लै आए ऊधौ। चपल न उचित कियौ।
उपमा अलंकार-
सूर ऊधो सों मिलत भयौ सुख ज्यौं झख पायौ पान्यो।
विभावना-
जाकी कृपा पंगु गिरि लघै, अंधै कों सब कुछ दरसाई।

भाषा : सूर के काव्य की भाषा ब्रज है। सूर के पदों में ब्रजभाषा का बड़ा ही निखरा रूप देखने को मिलता है। सूर की भाषा में माधुर्य, लालित्य और नाद-सौंदर्य का अद्भुत संगम है। भाषा और भाव का इतना सुंदर सामंजस्य सूर के अलावा बहुत कम कवियों में मिलता है। उनके पदों में लोकगीतों जैसी मिठास है। ‘सूरसागर’ की रचना गेय शैली में की गई है। उनके पदों में विभिन्न राग-रागनियों का प्रयोग हुआ है। इनमें संगीतात्मकता प्रचुर मात्रा में है।
सूरदास के बारे में डॉ. श्याम सुंदर दास लिखते हैं :
“वल्लभाचार्य के शिष्यों में सर्वप्रथम ‘सूरसागर’ के रचयिता हिंदी के अमर कवि महात्मा सूरदास हुए, जिनकी सरस वाणी से देश के असंख्य सूखे हृदय हरे हो उठे और भग्नांश जनता को जीने का नवीन उत्साह मिला।”

परियोजना-2

छायावाद के आधार-स्तंभ प्रकृति के सुकुमार कवि
– सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख आधार-स्तंभों में से एक हैं। छायावादी कवियों में जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और सुमित्रानंदन पंत प्रमुख हैं। पंत जी का व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र था-गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, सुगठित शारीरिक सौष्ठव उन्हें अन्य कवियों से पृथक मुखरित करता था।

जीवन परिचय : सुपित्रिनंदन पंत का जन्म अल्मोड़ा (अब बागेश्वर) जिले के कौसानी नामक गाँव में 20 गई :900 ई. को हुआ था। इनके जन्म के छ: घंटे बाद ही इनकी माँ का निधन हो गया, अतः इनका लालन-पोषण दादी ने किया। इनका नाम गोसाई दत्त रखा गया। वह गंपादद्त्त पंत की आठवीं संतान थे। 1910 ई. में शिक्षा प्राप्त करने के लिए गवरनेंट हाई स्कूल अल्मोड़ा गए। वहीं उन्होंने अपना नाम गोसाई दत्त से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। सन् 1918 में मँझले भाई के साथ काशी गए और वहीं के क्वींस कॉलेज में पढ़ने लगे। वहाँ से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करके इलाहाबाद के म्योर कॉलेज में भर्ती हो गए।

1921 ई. में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गाँधी ने भारतीयों से अंग्रेजी विद्यालयों, महाविद्यालयों, न्यायालयों तथा अन्य सरकारी नौकरियों का बहिष्कार करने का आह्नान किया। पंत जी ने अपना कॉलेज छोड़ दिया और घर पर ही हिंदी, संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी भाषा-साहित्य का अध्ययन करने लगे। इलाहाबाद में ही उनकी काव्य-चेतना का विकास हुआ। पिता के आकस्मिक निधन से इन्हें आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। कर्ज चुकाने के लिए इन्हें जमीन और घर तक बेचना पड़ा।

कालांतर में ये काफी बीमार भी रहे (लगभग $27-28$ वर्ष की आयु में)। वे कालाकांकर के महाराज के छोटे भाई सुरेशसिंह के साथ काफी समय तक कालाकांकर में रहे। यहीं रहकर उन्होंने स्वास्थ्य लाभ किया। गाँधी जी के व्यक्तित्व ने उन्हें काफी हद साक प्रभावित किया।

उन्होंने 1938 में मासिक पत्रिका ‘रूपाभ’ का संपादन किया। वे 1950 से 1957 तक आकाशवाणी में परामर्शदाता रहे। 1958 में प्रतिनिधि कविताओं का संकलन ‘चिदंबरा ‘ प्रकाशित हुआ। इस पर उन्हें 1968 में ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। 1961 में वे ‘पद्म भूकण’ की उपाधि से विभूषित हुए। 1964 में उनके विशाल महाकाव्य ‘लोकायतन’ का प्रकाशन हुआ। कालांतर में उनके अनेक काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। वे जीवनपर्यंत अविवाहित रहे और रचनाएँ लिखते रहे। उनकी मृत्यु 29 दिसबर, 1977 को हुई।

प्रमुख रचनाएँ : जब पंत जी सात वर्ष की उम्र में चौथी कक्षा में पढ़ रहे थे, तभी से उन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया था। 1918 के आस-पास वे हिंदी की नवीन धारा के प्रवर्तक कवि के रूप में पहचाने जाने लगे।

काव्य-कृतियाँ

  • वीणा
  • पल्लव
  • कला और बूढ़ा चाँद
  • ग्रंथि
  • युगांत
  • लोकायतन
  • गुंजन
  • स्वर्ण किरण
  • चिदंबरा
  • ग्राम्या
  • स्वर्ण धूलि
  • सत्यकाम

उनके जीवन-काल में उनकी 28 पुस्तकें प्रकाशित हुई। इनमें कविताएँ, पद्य नाटक, कहानी संग्रह और निबंध शामिल हैं। पंत जी अपने विस्तृत वाइ्मय में एक प्रकृति-प्रेमी, विचारक और दार्शनिक के रूप में सामने आते हैं। उनकी सबसे कलात्क कविताएँ ‘पल्लव’ में संकलित हैं। इसमें 1918 से 1925 तक लिखी गई 32 कविताओं का संग्रह है। इसी संग्रह में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘परिवर्तन’ सम्मिलित है।
‘लोकायतन’ उनका प्रसिद्ध प्रबंध काव्य है।

इनके अतिरिक्त ‘ज्योत्सना’ नामक प्रतीक-नाटक, ‘पाँच कहानियाँ’ नामक कहानी-संग्रह, ‘हार’ नामक उपन्यास और ‘छायावाद : पुनर्मूल्यांकन’ और ‘गद्य-पथ’ नामक आलोचनात्मक पुस्तकें भी लिखीं।
‘साठ वर्ष-एक रेखांकन’ में उन्होंने ललित शैली में अपनी आत्मकथा प्रस्तुत की है।

पंतजी की काव्य-चेतना का विकास : पंतजी की काव्य-यात्रा छायावादी युग से प्रारंभ हुई। उनकी काव्य-चेतना को तीन चरणों में बाँट कर देखा जा सकता है :
प्रथम चरण – छायावादी काव्य-चेतना
(सन् 1918 से 1935 तक)

द्वितीय चरण – प्रगतिवादी काव्य-चेतना (सन् 1936 से 1940 तक)
तृतीय चरण – आध्यात्मिक-नवमानवतावादी चेतना (सन् 1941 से अंत तक)
अब हम इन तीनों चरणों की काव्य-चेतना पर सोदाहरण प्रकाश डालेंगे।

छायावादी काव्य-चेतना : पंतजी की प्रारंभिक रचनाओं में प्रेम और सौंदर्य का व्यापक चित्रण हुआ है। इनमें प्रकृति-प्रेम और मानवीय प्रेम दोनों शामिल हैं। ‘वीणा’, ‘पल्लव’ और ‘ग्रथथ’ रचनाओं में यह सौंदर्य-चेतना विविर्ध रूपों में मिलती है। वैसे भी छायावाद स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म (व्यक्ति) का विद्रोह था। प्रकृति के विभिन्न व्यापारों में मानवीय संवदेना की अभिव्यक्ति, प्रकृति की रहस्यमयता के प्रति जिज्ञासा, एकांत प्रियता, कल्पना की अतिशयता से पंतजी का काव्य छायावादी चेतना का सिरमौर हो गया है।

प्रकृति-प्रेम : पंतजी को प्रकृति का सुकुमार कवि माना जाता है। उन्हें प्रकृति से सर्वाधिक प्रेरणा और चेतना मिलती है। उन्हें प्रकृति मानव से अधिक चैतन्य प्रतीत होती है। तभी तो वे गा उठते हैं-

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 10

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहाँ-कहाँ हे बाल-विहंगिनि!
पाया, तूने यह गाना?

सोई थी तू स्वज्न-नीड़ में,
पंखों के सुख में छिपकर।
कूक उठी सहसा तरुवासिनी!
गा तू स्वागत का गाना,
किसने तुझको अंतर्यामिनि!
बतलाया उसका आना?

बादलों के क्रिया-कलापों का चित्रण करते हुए पंतजी ने ‘बादल’ शीर्षक कविता (पल्लव में) का चित्रण द्रष्टव्य है-

सुरपति के हम ही हैं अनुचर,
जगत्त्राण के भी सहचर;
मेघदूत की सजल कल्यना,
चातक के प्रिय जीवनधर

जलाशयों में कमल दलों-सा
हमें खिलाता नित दिनकर
पर बालक-सा वायु सकल दल
बिखरा देता, चुन सत्वर।

पंत जी के काव्य-संग्रह ‘गुंजन’ से संकलित कविता ‘नौका-विहार’ उनकी प्रकृति के सूक्ष्म एवं प्रभावी चित्रण को दर्शाने के लिए पर्याप्त है। इसमें मानवीकरण (गंगा नदी का) देखते ही बनता है-

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 11

सैकत शख्या पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल,
लेटी है श्रांत, क्लांत, निश्चल।
तापस बाला गंगा निर्मल, शशि-मुख से दीपि, मृदु करतल,
लहरे उर पर कोमल कुंतल।
+ + +
मृदु मंद-मंद, मंथर-मंधर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुंदर
तिर रही; खोल पालों के पर।

‘पर्वत पर पावस’ में उन्होंने अंग्रेजी कवि शैली (Shelley) की तरह उपमाओं का अंबार लगा दिया है-

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 12

पावस ऋतु थी, पर्बत प्रदेश,
पल-घल परिवर्तित प्रकृति-वेशा
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहझ दूग-सुमन फाड़
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार;
जिसके चरणों में पड़ा ताल
दर्पण-सा फैला है विशाल।

वसंत के आगमन पर उसके चतुर्दिक प्रभाव का अंकन उनकी निम्नलिखित कविता में सटीक बन पड़ा है-

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 13

चंचल यग दीपशिखा के घर
गृह, मृग, बन में आया वसंत।
सुलगा फाल्युन का सूनापन
सौंदर्य शिखाओं में अनंत
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसंत, भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह।

कवि का मन बाला के बाल-जाल में उलझने की बजाय प्रकृति में अधिक रमता है। तभी तो वह कह उठता है-

छोड़ दुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले; कैसे तेरे बाल-जाल में उलझा दूँ लोचन?

कवि प्रकृति को अपनी सहचरी के रूप मेंदेखकर उससे मीठे गान सिखाने का आग्रह करता है-

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 14

सिखा दो ना, हे मघुप कुमारी।
मुझे भी अपने मीले गाना।

सौंदर्य-चेतना : पंतजी के काव्य में नारी, प्रेयसी के सौंदर्य-चित्रण में सूक्ष्म और मानसिकता का आग्रह है। उन्होंने स्थूल-सौंदर्य-चित्रण का बहिष्कार किया है। उनका शृंगार रीतिकालीन स्थूल शृंगार नहीं है। वे प्रिया के अनेक अनुभावों द्वारा प्रणय-व्यापार को संपुष्ट करते हैं :

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 15

एक पल मेंे प्रिया के दूग-यलक
थे उठे ऊपर, सहुज नीचे गिरे,
चपलता ने इस बिकंषित पुलक से
दृढ़ किया मानो प्रणाय संबंय था।

पंतजी का ‘रोमांस इन प्रैक्टिस’ न होकर ‘रोमांस इन थिंकिंग’ है। वे ‘भावी पत्नी के प्रति’ कविता में लिखते हैं :

  • आज रहने दो यह गृहकाज – आलंबन – भावी पत्नी
  • आज जाने कैसी वातास – उद्दीपन
  • छोड़ती सौरभ-श्लथ उच्छ्वास
  • आज रे शिथिल-शिथिल तन-भार – अनुभाव
  • आज सौ-सौ स्मृतियाँ सुकुमार। – संचारी भाव

उपर्युक्त काव्य-उदाहरण का संपूर्ण बिंब शृंगार की अनुभूति के लिए पर्याप्त है।
उनकी ‘परिवर्तन’ कविता में करुण भाव गहरे रूप में व्यक्त हुआ है-

अभी तो मुकुट बँधा था माथ,
हुए कल ही हल्दी के हाथ;
खुले भी न थे लाज के बोल
खिले थे चुंबन शून्य कपोल
हाय रुक गया यहीं संसार
बना सिंदूर अंगार।

रहस्यात्मकता : अन्य छायावादी कवियों के समान पंतजी ने भी अपने अव्यक्त प्रियतम के प्रति भावाभिव्यक्ति की है। वे लिखते हैं :

न जाने नक्षत्रों से कौन?
निमंत्रण देता रहता मौन।

घानाकीकरण : छायावादी कवियों के समान पंतजी ने भी प्रकृति में मानवीय भावनाओं का आरोपण किया है। वे संध्या की कल्पना एक रूपसी के रूप में करते हैं :

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 16

कौन तुस रूपपसि, कौन?
ब्योम से ज्तर रही ख्दमज्याम
क्रियी तिजिज वकाया-छावि सें आप्र
सुनहलती फैला क्रेश कालाय
यूँदे अधरों में सध्रातालाप्ता।

प्रगतिवादी काव्य-चेतना : काव्य-संग्रह ‘ ‘युगांत’ से आरंभ होकन ‘ग्राम्या’ तक का काल पंतजी की काव्य-चेतना का द्वितीय चरण कहा जा सकता है। यहाँ कवि कल्पना-लोक का परित्याग कर विषय-निष्ठता की ओर बढ़ता दिखाई देता है। उन दिनों मार्क्सवाद का प्रभाव सभी पर पड़ रहा था। कवि पंत ने भी परिपक्वता का परिचय देते हुए तत्कालीन परिस्थितियों को समझा।

पंतजी ने ‘रश्मिबंध’ की भूमिका में स्वयं लिखा है-

“तत्कालीन परिस्थितियों में छायावादी कवि सूक्ष्म से स्थूल की ओर, आध्यात्मिकता से भौतिकता की ओर, भाव से वस्तु की ओर, सर्वात्मा से भू, जन, मानवतावाद की ओर उन्मुख हो गया है।”

‘युगांत’ में कवि नितांत कल्पना से ठोस विषय-वस्तु को ग्रहण करने लगता है। ‘ग्राम्या’ तक आते-आते उसकी दृष्टि संतुलित हो जाती है। पंतजी मार्क्स का गुणगान करने लगते हैं :

धन्य मार्क्स चिर तमाच्छन्न पृथ्वी के उदय शिखर पर,
तुम त्रिनेत्र के ज्ञान-चक्षु से प्रकट हुए प्रलंयकर॥

पंतजी संसार की परिपाटी को शोषित वर्ग के दुखों के लिए जिम्मेदार मानते हैं। वे लिखते हैं :

व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दुःख क्लेश की,
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश-देश की।

पंतजी नारी को भी शोषित मानकर उसकी स्वतंंत्रता का आह्वान करते हैं :

मुक्त करो नारी को मानव
युग-युग की कारा से।
+ + +
योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित।
उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।

पंतजी एक ऐसे समाज-निर्माण की कल्पना करते हैं, जहाँ सभी शोषण मुक्त जीवन जी सकें। वे ‘संध्या के बाद’ कविता में लिखते हैं-

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 17

क्या ऐसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
मिलकर जन निर्माण करे जग
मिलकर भोग करें जीवन का।
जन-विमुक्त हो जन-शोषण से
हो समाज अधिकारी धन का?
दरिद्रिता पापों की जननी,
मिटें जनों के याप, ताप, मय
सुंदर हो अधिवास, वसन, तन
पशु पर फिर मानव की हो जय।

अब कवि मानव की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने लगा। वह कहता है-

सुंदर है विहग, सुमन सुंदर
मानव तुम सबसे सुंदर।

कवि पंत ने साम्यवाद को जनउत्थान के हेतु एक सोपान के रूप में स्वीकार किया है। उनका कहना है-

साम्यवाद के साथ स्वर्ण-युग करता मधुर पदार्पण।
मुक्त निखिल मानवता करती मानव का अभिवादन।

द्वितीय चरण की काव्य-चेतना के विषय में निर्द्वंद रूप से कहा जा सकता है कि पंतजी की प्रगतिवादिता मूलतः उनके आदर्श से प्रेरित और संयोजित है। वे मानव के उस सांस्कृतिक धरातल को कभी नहीं भूलते जो जीवन के उच्च आदर्शों की प्रेरणा से मानव उन्नयन का मूल बनता है।

आध्यात्मिक-नवमानवतावादी चेतना : पंतजी की तृतीय चरण की कविताओं में स्वर्ण किरण, स्वर्णधूलि, उत्तरा, अतिमा, शिल्पी आदि काव्य-संग्रहों की रचनाएँ आती हैं। इस दौर में कवि की दृष्टि भौतिकता के प्रसार के बाद मानव-चेतना पर केंद्रित हो जाती है। यह वह काल है जब पंतजी पर अरविंद का पूरा प्रभाव था। पंतजी ने ‘चिदंबरा’ की भूमिका में स्वयं स्वीकार किया है- “मेरी काव्य-चेतना मुख्यतः नवीन संस्कृति की चेतना है, जिसमें आध्यात्मिकता और मौलिकता का नवीन मनुष्य के धरातल पर संयोजन है।”

पंतजी ने समाजवादी दर्शन और आध्यात्मिक दर्शन में समन्वय स्थापित कर अरविंद के दर्शन के आधार पर नवमानवता का स्वरूप निर्धारित किया। कवि दार्शनिक और वैज्ञानिक सत्य की भावना की मधुमयी भूमि को स्वीकार करता है। उनके काव्य का मूल ध्येय है-‘विराट लोकमंगल की स्थापना’। ‘उत्तरा’ की भूमिका में कवि की खोज का क्षण मार्क्स पर आरोप और अरविंद के समर्थन का रूप उपस्थित करता है।

पंतजी के जीवन-दर्शन में उपनिषद, अद्वैतवाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद तथा विचारकों में विवेकानंद और अरविंद का योगदान अधिक रहा। उन्होंने अपने नवमानवतावादी जीवन-दर्शन के लिए उपनिषदों की ‘मानव-आत्मा को शांति देन’ भावना को स्वीकार किया। इसी आधार पर कवि कहता है-

नवजीवन का वैभव जाग्रत हो जन-गण में,
आत्मा का ऐश्वर्य अवतरित मानव-मन में,
रक्तसिक्त धरती का ही दुःस्वज्न समापन,
शांत प्रीत सुख का भूस्वर्ग उठे सुर मोहन।

‘एकतारा’ में कवि आत्म और जगदर्शन पर विचार करता है :

वह है अनंत का मुक्तहीन, अपने असंग सुख में विलीन
स्थित निज स्वरूप में चिर नवीन।
+ + + +
जगमग-जगमग नभ का आँगन, लद गया कुंद कलियों से घन,
वह आत्म और यह जगदर्शन।

अद्वैतवादी दर्शन का प्रभाव : पंत जी के जीवन के स्वरूपात्मक विकास में अद्वैतवादी दर्शन का प्रमुख योगदान है। ‘परिवर्तन’ कविता में वे लिखते हैं :

नित्य का यह अनित्य नर्तन,
विवर्तन जग, जग व्यावर्तन
अचिर में-चिर का अन्वेषण,
विश्व का तत्त्व-पूर्ण दर्शन।

कवि ब्रह्म के निराकार रूप को अनेक रूपों में परिवर्तित होता हुआ पाता है-

निराकार नभ मानो सहसा
ज्योति पुंज में हो साकार
बदल गया दुत जगत जाल में
धर का नाम रूप नाना।

पंत जी के काव्य पर स्वामी विवेकानंद के विचारों का काफी प्रभाव पड़ा है। स्वामीजी ने कहा था कि आत्मा और ब्रह्म का अभेद संसार और ब्रह्म का अभेद है। अतः यह संसार मिथ्या होते हुए भी व्यावहारिक है। ऐन्द्रिय आनंद की अपेक्षा बौद्धिक और आत्मिक आनंद उच्च स्तर का आनंद है। इसी सिद्धांत से प्रभावित होकर पंतजी ने लिखा-

प्राणि प्रवर
हो गए निछावर
अचिर घूलि पर
निद्रा, भय, मैथुन, आहार
ये पशु लिप्साएँ चार-
हुईं तुम्हें सर्वस्व सार?
धिक मैथुन आहार यंत्र?
क्या इन्हीं बालुका भीतों पर
रचने जाते हो भव्य अमर
तुम जन समाज का तव्य यंत्र?

पंत जी की रचना ‘युगवाणी’ में गाँधी जी का आत्मवाद झलकता है-

बापू तुमसे सुन आत्मा का तेजराशि आह्लान,
हँस उठते हैं रोम हर्ष से पुलकित होते प्राण।

कवि पंत को अरविंद की विचारधारा मानव-उत्थान के लिए पूर्ण लगी। वह कह उठते हैं :

नभ से बन पवन, पवन से जल,
लालायित यह चेतना समर।
सोई धरती में लिपट, जगाने
उसे युगों की जड़ता हर।

कवि का कहना है कि आधुनिक मानव अभी केवल सुख की छाया ही पकड़ सका है-

हाय अभी तो ना छाया ही एकड़्ड सका है
अभी स्वर्ण सोपान पार करता है तुमकोो

कवि के दर्शन का सार इन पंक्तियों में स्पष्ट है-

व्यक्ति रहे ईश्वर के संग नित
वही साध्य, भू जीवन साधन
उससे युक्त जगत सत सुखयय
उससे विरत मघषा, दाना बना

कला-पक्ष : काव्य का कला पक्ष उन साधनों का पूँजीभूत रूप होता है जिसमें मुख्यतः भाषा, अलंकार विधान, बिंब और छंद का विधान किया जाता है।

भाषा ने पंतजी ने अपने काव्य में खड़ी बोली को काव्योचित भाव-प्रवणता प्रदान कर भाषा में नवीन प्राण शक्ति भर दी। पंतजी का प्रत्येक शब्द नादमय, चित्रमय है। उनकी चित्र योजना और नाद-सौंदर्य की व्यजंना करने वाला एक चित्र प्रस्तुत है –

उड़ गया, अचानक लो भूघर,
फड़का अपार वास्दि के पर।
रब शेष रह गए हैं निझर,
है दूट पड़ा भू पर अंबरा

वे वास्तव में कोमल कल्पना के कवि हैं। उन्होंने अपनी भाषा को कोमल बनाने में शब्दों में फेर-बदल तक किए हैं। उनकी कविताओं में काव्य, चित्र और संगीत एक साथ मिल जाते हैं :

सरकाती पट
खिसकाती लट-
शरमाती झट
वह नमित दृष्टि से देख उरोजो के युग घट?

बिंब योजना : कवि बिंबों के माध्यम से स्मृति को जगाकर संवेदना को बढ़ाकर साकार करते हैं। इससे वे भावों को जीवंत और मूर्त रूप देते हैं। पंतजी के काव्य में विस्तृत बिंब योजना मिलती है-

दृश्य बिंब :

मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहुस्र दुग-सुमन फाड़
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में महाकार।

स्पर्श बिंब :

फैली खेतों में दूर तलक
मखमल सी कोमल हरियाली।

अलंकार-योजना –

पंतजी ने स्वयं कहा है-“अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं, वरन् भाव की अभिव्यक्ति के विशेष द्वार हैं।” पंतजी की कविताओं से अलंकारों के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं :

  • उपमा – जिसके चरणों में फैला दर्पण-सा फैला है विशाल।
  • रूपक – अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़।
  • मानवीकरण – सैकत शय्या पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल लेटी है श्रांत, क्लांत, निश्चल।

छंद-विधान : छंद-योजना की दृष्टि से पंतजी ने कई नए प्रयोग किए हैं :

  • उन्होंने मात्रिक छंदों का अधिक प्रयोग किया है। उन्होंने रोला छंद का कुछ परिवर्तित रूप प्रयोग किया है।
  • पंतजी ने अपने काव्य में तुकांत मुक्त छंद और अतुकांत मुक्त छंद दोनों का प्रयोग किया है।

परियोगना-3

छायावाद की आधार-च्तंभ एवं प्रसिद्ध रहस्यवादी कवयित्री
– महादेवी वर्मा

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 18

महादेवी वर्मा हिंदी की सर्वाधिक प्रतिभा सम्पन्न कवयित्रियों में से हैं। वे हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार स्तंभों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिंदी की सबसे सशक्त कवयित्री होने के साथ-साथ उन्हें ‘आधुनिक मीरा’ के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें हिंदी के ‘विशाल मंदिर की सरस्वती’ भी कहा है। उन्हें रहस्यवादी कवयित्री के अतिरिक्त वेदना-पीड़ा को अभिव्यक्त करने वाली कवयित्री भी कहा जाता है।

जीवन-परिचय : महादेवी वर्मा का जन्म 26 मई, 1907 को उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में हुआ था। उनके परिवार में 200 वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अत: घर में प्रसन्नता का वातावरण था। बाबा बाबू बाँके बिहारी ने हर्ष में झूमकर इन्हें घर की देवी मानकर पौत्री का नाम महादेवी रख दिया। उनके पिता गोबिंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता हेमरानी देवी बड़ी ही धर्मपरायण, कर्मनिष्ठ, भावुक एवं शाकाहारी महिला थीं। वे कई घंटे तक पूजा-पाठ तथा रामायण, गीता एवं विनय-पत्रिका का पाठ करती थीं। माँ की भक्ति-भावना का महादेवी पर बड़ा प्रभाव पड़ा।

महादेवी जी की शिक्षा इंदौर में मिशन स्कूल से प्रारंभ हुई। उन्हें संस्कृत, अंग्रेजी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती थी। छठी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् नौ वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह बरेली के डॉ. स्वरूप नारायण वर्मा से हो गया अतः कुछ दिनों तक शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरांत महादेवी जी ने 1919 में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। 1925 तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ प्रकाशित होने लगी। कॉलेज में ही उनकी मित्रता सुभद्रा कुमारी चौहान से हो गई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने संस्कृत में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। तब तक उनके दो कविता संग्रह ‘नीहार’ और ‘रश्मि’ प्रकाशित हो चुके थे। वे ‘प्रयाग महिला विद्यापीठ’ में प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्त हो गई और मृत्यु पर्यंत वहीं कार्य करती रहीं।

महादेवी वर्मा को वैवाहिक जीवन से विरक्ति थी। वैसे पति के साथ वैमनस्य नहीं था। स्त्री-पुरुष के रूप में उनके संबंध मधुर रहे। वैसे महोदवी जी का जीवन एक संन्यासिनी का-सा ही जीवन था। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहने, तख्त पर सोई और कभी शीशा नहीं देखा। सन् 1966 में पति की मृत्यु के बाद वे स्थायी रूप से इलाहाबाद में रहने लगी। 11 सितंबर, 1987 को वहीं उनका देहांत हुआ।

कार्य-क्षेत्र : महादेवी वर्मा का कार्य क्षेत्र लेखन, अध्यापन और संपादन रहा। उन्होंने इलाहाबाद में ‘प्रयाग महिला विद्यापीठ’ के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। वे इसकी प्रधानाचार्य और कुलपति भी रहीं। 1932 में उन्होंने महिलाओं की पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार संभाला। सन् 1955 में महादेवी जी ने इलाहाबाद में ‘साहित्यकार संसद’ की स्थापना की और पं. इलाचंद्र जोशी के सहयोग से ‘साहित्यकार’ का संपादन संभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। उन्होंने भारत में कवि सम्मेलनों की नींव रखी। महात्मा गाँधी के प्रभाव में आकर उन्होंने जन-सेवा का व्रत लेकर झूसी में कार्य किया और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी

भाग लिया। 1936 में नैनीताल से 25 कि.मी. दूर रामगढ़ कस्बे के उमागढ़ नामक गाँव में महादेवी वर्मा ने एक बंगला बनवाया था। इसका नाम उन्होंने ‘मीरा मंदिर’ रखा। जितने दिन वे वहाँ रहीं, वे गाँव के लिए शिक्षा और विकास के लिए काम करती रहीं। विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक निर्भरता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। उन्होंने स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए साहस और दृढ़ता से आवाज उठाई। सामाजिक रुढ़ियों की निंदा करने के लिए उन्हें ‘महिला मुक्तिवादी’ भी कहा गया। महिलाओं व शिक्षा के विकास कार्यों और जनसेवा के कारण उन्हें समाज-सुधारक भी कहा गया है।

रचनाएँ : महादेवी वर्मा बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार थीं। वे मुख्यत: कवयित्री थीं, पर गद्य-लेखन में भी उन्हें बहुत सफलता प्राप्त हुई। उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं :

काव्य :

  1. नीहार (1930)
  2. रश्मि (1932)
  3. नीरजा (1935)
  4. सांध्यगीत (1936)
  5. दीपशिखा (1942)
  6. यामा (इसमें नीहार, रश्मि, नीरजा और सांध्यगीत के 185 गीत संकलित हैं)
  7. संधिनी (1964)

‘यामा’ पर उन्हें ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ।

गद्य :

  1. पथ के साथी
  2. अतीत के चलचित्र
  3. स्मृति की रेखाएँ
  4. शृंखला की कड़ियाँ

गीति काव्य : महादेवी वर्मा ने मुख्यतः गीतों की रचना की है। गीत का ही एक परिष्कृत अर्थात् कलात्मक रूप ‘गीति’ है। इसमें टेक न होने पर भी अतिशय रागात्मकता और संगीतात्मकता होती है। महादेवी के गीति-काव्य पर विचार करने से पहले ‘गीति’ के स्वरूप को समझ लेना आवश्यक है। ‘गीति’ शब्द अंग्रेजी के लिरिक (Lyric) का हिंदी रूपांतर है। इसके लिए ‘प्रगीत’ शब्द भी प्रचलित है। ‘लिरिक’ का प्रयोग उन कविताओं के लिए किया जाता था जिन्हें लायर (Lyre) नामक वाद्य पर गाया जाता था। अब यह अपेक्षा समाप्त हो गई है। अब गीतिकारों का ध्यान बाह्य संगीत की अपेक्षा कविता के आंतरिक संगीत (लय, शब्द-संगीत) पर अधिक केंद्रित होने लगा है। आज ‘गीति’ का जो रूप प्रचलित है, वह व्यक्तिनिष्ठ तथा रागात्मक-अनुभूति प्रवण है।

अब उपर्युक्त संदर्भ में हम महादेवी वर्मा के गीति-काव्य पर चर्चा करेंगे।

आत्म-व्यंजना : कवयित्री ने अपने मन को लोकमन के साथ मिलाकर प्रस्तुत किया है। महादेवी के प्रणय के आलंबन का रहस्यमय स्वरूप, जो अलौकिक है, अदृश्य है, वह पर्दे के पीछे सक्रिय रहता है :

प्रिय मेरा निषीथ-नीरवता में आता चुपचाप।
मेरे निमिषों से भी नीरव है उसकी पदचाप॥

एक अन्य गीत में वह कहती हैं-

ऐ नथ की दीपावलियों, तुम क्षण भर को बुझ जाना।
मेरे प्रियतम को भाता है तम के परदे में आना॥

कबयित्री निरंतर प्रियतम के पथ को प्रशस्त करने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझती हैं-

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 19

मघुर-मघुर मेरे दीपक जल।
प्रियतम का पथ आलोकित कर।

भाव प्रवणता : महादेवी ने अपने गीतों में उनके हृदय के आर्त्तनाद के पीछे छिपे हुए भावातिरेक, दीर्घ निःश्वास में छिपे संयम को बाँधा है। उनका प्रिय अलौकिक है, इसलिए वे उसके विषय में कम, अपनी रागानुभूतियों, लालसाओं आदि के विषय में अधिक कहती हैं। निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में कवयित्री की प्रगाढ़ कामना कितने सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है-

तुम्हें बाँध पाती सपने में
तो चिर जीवन-प्यास बुझा
लेती उस छोटे क्षण अपने में।

प्रकृति के मादक वातावरण में कली और मधुमास की मधुर घातें चल रही हैं। उन्हें देखकर प्रतीक्षारत विरहाकुल नायिका का मन तड़प उठता है-

निशा को धो देता राकेश
चाँदनी में जल अलकें खोल,
कली से कहता था मधुमास
बता दो मधु मदिरा का मोल।

रागात्मकता : महादेवी के गीतों में रागात्मक अन्विति का गुण प्रचुर मात्रा में है। प्रणयानुभूति उनकी अधिकांश रचनाओं का केंद्रवर्ती भाव है। प्रायः उनके सभी गीतों में एकाधिक खंड-चित्रों की योजना हुई है। वे मूल विषय को बड़े ही सांकेतिक भाव से उभारती है। गीतों का लघु आकार इस दिशा में विशेष सहायक बन पड़ा है :

जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करुणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग।
गाता प्राणों का तार-तार
अनुराग भरा उन्माद राग।

संगीतात्मकता : महादेवी के गीतों में सांगीतिक मधुरमयता चरमोत्कर्ष पर है। आंतरिक संगीत के स्वाभाविक गुण के कारण प्रेषणीयता बहुत बढ़ गई है।

गीत में टेक का स्थान महत्त्वपूर्ण होता है। यह गीत में संचरित मूल भावधारा की द्योतक होती है। महादेवी ने विषय की तह में जाकर सटीक टेकों का विधान किया है :

– पुलक-पुलक उर, सिहर-सिहर तन,
आज नयन आते क्यों भर-भर?
– मुस्काता संकेत भरा नभ
अलि, क्या प्रिय आने वाले हैं?
– यह मंदिर का दीप, इसे नीरव जलने दो।

संक्षिप्तता : कुछ अपवादों को छोड़कर महादेवी के गीत-प्रगीत संक्षिप्त हैं। उन्होंने अत्यंत कुशलता के साथ कम से कम शब्दों में भावानुमूतियों का निबंधन किया है; जैसे-

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 20

वे मुस्काते फूल नहीं-
जिनको आता है मुरझाना।
वे तारों के दीप नहीं-
जिनको भाता है बुझ जाना।
+          +          +
तुमको पीड़ा में ढूँढ़ा,
तुममें हूँडूँगी पीड़ा।

महादेवी वर्मा पर छायावादी प्रभाव : महादेवी वर्मा छायावाद की आधार-स्तंभ कवयित्री हैं। उन पर छायावाद की प्रमुख प्रवृत्ति प्रेम-सौंदर्य का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है :

CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना 21

रूपसि तेरा घन-केश-पाश
श्यामल-श्यामल, कोमल-कोमल,
लहराता सुरभित केश-पास
नभगंगा की रजतधार में
धो आई क्या इन्हें रात? (‘नीरजा’ से)

महादेवी जगत के प्रत्येक कण में अपने उस भव्यतम प्रियतम की झाँकी देखती है। मनोरम छवि वाले प्रिय को देखते ही उसका मन मुग्ध हो जाता है। वह प्रिय से मधुर मिलन के सपने देखने लगती है-

इन ललचाई पलकों पर,
पहरा था जब व्रीड़ा का
साम्राज्य मुझे दे डाला
उस चितवन ने पीड़ा का

स्वप्न में प्रिय से मिलन संभव हुआ। वह क्षण अत्यंत मादक और मधुर था। जागृत अवस्था में भी वह उसकी स्मृतिमात्र से रोमांचित होती रही-

कैसे कहती हो सपना है
अलि उस मूक मिलन की बात?
भरे हुए अब तक फूलों में
मेरे आँसू उनके ह्रास।

विरह भावना : महादेवी वर्मा का प्रायः समस्त काव्य विरह-वेदना से अनुप्राणित है। उन्होंने जीवन को ही वियोग के रूप में स्वीकार किया है। कवयित्री ने जीवन को ‘विरह का जलजात’ कहा है-

विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात।
वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास।
अश्रु चुनता दिवस इसका, अश्रु गिनती रात।
खिल उठे निरूपम तुम्हारी देख स्मित का प्रात।

विरह कवयित्री के जीवन की सिद्धि बन गया है। वह सूनेपन की रानी बनने में गौरव का अनुभव करती है, प्राणों का दीप जलाकर दीवाली मनाती है :

अपने इस सूनेपन की
मैं हूँ रानी मतवाली।
प्राणों का दीय जलाकर
करती रहती दीवाली।

महादेवी के काव्य में इस विरह की कई अवस्थाएँ मिलती हैं। संक्षेप में इन्हें देखिए-

अभिलाषा : महादेवी का प्रियतम अलौकिक है और अज्ञात है। प्रकृति में बिखरे अनंत सौंदर्य को देखकर वह उसके आकर्षक व्यक्तित्व की कल्पना कर दर्शन-मिलन की कामना से अधीर हो जाती है-

तुम्हें बाँध पाती सपने में
तो चिर जीवन-प्यास बुझा
लेती उस छोटे क्षण में।

चिंता : कवयित्री प्रिय को पाने में असफल रहने पर चिंतित हो उठती है-

अलि कैसे उनको पाऊँ?
मेघों में विद्युत सी छवि
उनकी बनकर मिट जाऊँ।

– स्मृति : प्रिय से संबंधित बातें कवयित्री को रह-रहकर याद आती हैं। वे प्रियतम को स्मृति-रूप में मानकर कहती हैंवे स्मृति बन कर मानस में खटका करते हैं निशिदिन।

– उद्वेग : प्रियतम के दर्शन के लिए महादेवी का उद्वेग कितने सशक्त रूप में व्यंजित हुआ हैफिर विकल हैं प्राण मेरे तोड़ दो यह क्षितिज, मैं भी देख लूँ उस ओर क्या है?

– उन्माद : विरह-पथ की ओर बढ़ रही कवयित्री उन्माद की अवस्था में पहुँच जाती है। अब उसे न काँटों की परवाह है, न बादलों की-
अन्य होंगे चरण हारे, और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्य सारे।

– पीड़ा सहचरी : महादेवी की स्थिति विलक्षण है। विरह-यात्रा में रात-रात भर रोते जागते रहने से पीड़ा उसकी चिर सहचरी बन जाती है-

कितनी रातों को मैंने
नहलाई है अंधियारी,
धो डाली है संध्या के
पीले सेंदुर से लालंी….

– जड़ता : महादेवी को प्रियतम की प्रतीक्षा करते-करते युग बीत गए। अब उसका तन-मन ढीला हो गया है। वह निढाल हो गई है, वीणा के तारों ने जवाब दे दिया है-

अब नहीं गाया जाता देव।
थकी अँगुली हैं बीले तार,
विश्व वीणा में अपनी आज
मिला दो यह अस्फुट झंकार।

– मरण तुल्य दशा : महादेवी के काव्य में इस दशा के इतने मार्मिक चित्र अंकित हुए हैं कि सहृदय का हृदय विरहिणी के प्रति करुणा से आर्द्र हो उठता है। कवयित्री लिखती हैं-

सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम-सा घुल रे मृदु तन
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित
तेरे जीवन का अणु गल-गल।

महादेवी वर्मा के काव्य में रहस्य भावना : आत्मा का परब्रह्म से वियोग और फिर पुनर्मिलन की व्याकुलता रहस्यात्मकता की सृष्टि करती है। जिसके विषय में निश्चित जानकारी नहीं रहती, जो अज्ञेय रहता है, उसे सामान्यतः ‘रहस्य कहते हैं। संवेदनशील कवि प्रकृति के परिवर्तनशील विविध रूपों में उसी अलौकिक व्यक्तित्व का दर्शन करता है। महादेवी के काव्य में रहस्यानुभूति का रमणीय प्रतिफलन हुआ है। उस परम सत्ता के प्रति इतने आस्था भाव से समर्पित कोई अन्य आधुनिक कवि नहीं है। उस परम तत्त्व को पुरुष तथा अपने को नारी मानकर कवियों ने आत्म-निवेदन किया है। महादेवी का मत है कि रहस्यानुभूति में भावनाओं का प्रबल आवेग संभव नहीं है। उनका कहना है-” भारतीय रहस्य-भावना मूलतः बुद्धि और हृदय की संधि में स्थित रहती है। रहस्यानुभूति भावावेश की आँधी नहीं, वरन् ज्ञान के अनंत आकाश के नीचे अजस्र प्रवाहमयी त्रिवेणी है।”

महादेवी वर्मा उस एकमात्र परमात्मा की चिरवियोगिनी हैं। वे वस्तुतः प्रिय से तादात्म्य स्थापित कर चुकी हैं –

तुम हो विधु के बिंब और मैं
मुग्धा रशिम अजान,
जिसे खींच लेते स्थिर कर
कौतूहल के बाण।

कवयित्री मिटने के अपने अधिकार को सुरक्षित रखना चाहती है। वह कहती है :

क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार।

कवयित्री अपने अंग-प्रत्यंग में प्रियतम का अनुभव करने लगती है और उस अनुभव के समक्ष सांसारिक एषणाएँ तुच्छ प्रतीत होती हैं। प्रिय उन्हीं में समा जाता है और संदेश भेजने के प्रयत्न समाप्त हो जाते हैं-

तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या!
तारक में छवि प्राणों में स्मृति,
पलकों में नीरव पद की गति।

महादेवी की रहस्यानुभूति मूलतः माधुर्यमूलक है। उन्होंने अत्यंत काव्यात्मक ढंग से ब्रह्म, जीव और जगत के विषय में अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे ब्रह्म को ही जीव-जगत का कारण मानती हुई कहती हैं-

विविध रंगों के मुकुर संवार, जड़ा जिसने यह कारागार;
बना क्या बंदी वही अपार, अखिल प्रतिबिंबों का आधार?

जीव उसी ब्रह्म का आवेश है। कवयित्री ने ‘पर्वत’ के उपमान से स्थिर, शांत, समस्त पदार्थों के उत्स ‘ब्रह्म’ का और ‘नदी’ के माध्यम से उस ब्रह्म से उत्पन्न परिवर्तन-प्रवाह में बहती जीवात्मा का सशक्त प्रकाशन किया है-

ओ चिर नीरव!
मैं सरित विकल,
तेरी समाधि की सिधि अकल।

अज्ञात और अव्यक्त प्रियतम के प्रति रागात्मक भाव हो सकता है। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि संवेदना के स्तर पर वैसी अनुभूति संभव है। वे ‘दीपशिखा’ में कहती हैं:

जो न प्रिय पहचान पाती।
दौड़ती क्यों प्रति शिरा में प्यास विद्युत-सी तरल बन
क्यों अचेतन रोम पाते, चिर व्यथामय सजग जीवन?

प्रकृति चित्रण : महादेवी वर्मा के गीतों में अन्य छायावादी कवियों की भाँति प्रकृति को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। एक ओर तो आराध्य की उपस्थिति का आभास प्रकृति में होता है, तो दूसरी ओर अपनी छाया भी उसमें दिखाई देती है। प्रकृति जीवन का ही एक अंश बन जाती है। वे लिखती हैं :

प्रिय सांध्य गगन, मेरा जीवन!
यह क्षितिज बना धुँधला विराग,
नव अरुण-अरुण मेरा सुहाग,
छाया-सी काया वीतराग।

इसी प्रकार जब वे कहती हैं :

मैं नीर भरी दुख की बदली
मैं बनी मधुमास आली।

तो भी प्रकृति से तादात्म्य करती दिखाई पड़ती हैं। महादेवी वर्मा ने प्रकृति का उपयोग मानवीकरण करके भी किया है। वे ‘वसंत की रजनी’ को मोहक नामिका के रूप में देखती हैं :

धीरे-धीरे उतर क्षितिज से
आ वसंत रजनी।

कहीं-कहीं उन्होंने प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण भी किया है। ‘हिमालय’ ऐसी ही कविता है जिसमें विशुद्ध रूप से प्रकृति का चित्रण किया गया है :

हे चिर महान!
यह स्वर्ण रश्मि छू श्वेत भाल,
बरसा जाती रंगीन ह्रास;
सेली बनता है इंद्रधनुष
परिमल मल जाता बतास।
पर रागहीन, तू हिम निघान।
नभ में गर्वित झुकता न शीश,
पर अंक लिए है दीन क्षार।

महादेवी वर्मा के काव्य का कला-पक्ष

भाषा : महादेवी वर्मा की भाषा संस्कृतनिष्ठ है। पर संस्कृत के अनपेक्षित शब्दों के प्रति अत्यधिक मोह नहीं है। यथा स्थान तत्सम-तद्भव शब्दों का मणि-कांचन प्रयोग हुआ है; जैसे-

यह सपने सकुमार, तुम्हारी स्मित से उजले।
(सपने-तद्भाव, सुकुमार-तत्सम; स्मित-तत्सम, ठजले-तद्भव)

उन्होंने देशज शब्दों को भी नि:संकोच प्रयोग किया है; जैसे-

मुखर पिक हौले-हौले बोल।
(देशज शब्द)

महादेवी वर्मा की कविताओं में ‘टवर्ग’ के कठोर वर्णों का अभाव है। इसके विपरीत म, र, ल, प, न आदि का प्रयोग बहुलता से हुआ है; जैसे-

मधु, विधु, सुरभि, समीर, मादकता, नवल, नेह आदि।

महोदवी की भाषा में मुहावरों और लोकोक्तियों का भी यथास्थान प्रयोग हुआ है। उनके काव्य में लाक्षणिकता प्रतीकत्मकता का खूब प्रयोग हुआ है।

महादेवी वर्मा ने अपनी काव्य भाषा को सुंदर बनाने के लिए अलंकारों का अच्छा प्रयोग किया है। उनके ‘सांगरूपक’ अलंकार के प्रयोग पाठकों को आकर्षित करते हैं। जैसे-वसंत-रजनी का-

धीरे-धीरे उतर क्षितिज से आ वसंत रजनी
तारकमय नव वेणी बंधन।
शीशफूल का कर शशि का नूतन॥

महादेवी के काव्य के छंद-विधान पर संस्कृत काव्य का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
उनकी गीति कला के विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है-

“गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवी जी को मिली है, वैसी किसी अन्य को नहीं। न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध और प्रांजल प्रवाह और कहीं मिलता है, न हृदय की ऐसी भाव-भरंगिमा। जगह-जगह ऐसी ढली हुई अनूठी व्यंजना भरी पदावली मिलती है कि हृदय खिल उठता है।”

महादेवी वर्मा गद्यकार के रूप में : साहित्य-जगत में महादेवी वर्मा की प्रतिष्ठा बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न रचनाकार के रूप में रही है। एक सफल कवयित्री के अलावा वे सफल गद्य-लेखिका भी थीं। महादेवी वर्मा ने संस्मरण, रेखाचित्र और चलचित्र विधा में बहुत कुछ लिखा है। उनके गद्य में गहरा सामाजिक सरोकार पाया जाता है।

उनकी शृंखला की कड़ियाँ (1942 ई.) उस समय की अद्वितीय रचना है जिसमें हिंदी में स्त्री-विमर्श की भव्य प्रस्तावना है। ‘अतीत के चलचित्र’ में संस्मरण और ‘रेखाचित्र’ का मिला-जुला रूप है। उन्होंने अपने चलचित्रों में नीरस विवरण प्रस्तुत नहीं किया है। वे पात्रों, उनकी विविध स्तिथियों, घटनाओं और दृश्यों का काव्यात्मक वर्णन करती हैं। उनके संस्मरणात्मक रेखाचित्र अपने आस-पास के ऐसे चरित्रों और प्रसंगों को लेकर लिखे गए हैं, जिनकी ओर साधारणत: हमारा ध्यान नहीं जा पाता। महादेवी की मर्मभेदी और करुणामयी दृष्टि उन चरित्रों को साधारण से असाधारण बना देती है। उनके प्रयास से हिंदी और साहित्यिक समाज पर ऐसा गहरा असर डाला है कि संस्मरणात्मक रेखाचित्र की विधा के लिए शोषित-पीड़ित आम जन को विषय-वस्तु के रूप में मान्यता मिल गई है। ऐसे कुछ चलचित्र हैं- लछमा, रामा, भक्तिन, गौरा आदि।

‘भक्तिन’ महादेवी जी का प्रसिद्ध संस्मरणात्मक रेखाचित्र है, जो ‘स्मृतियों की रेखाएँ’ में संकलित है। महादेवी जी ने अपनी सेविका भक्तिन के अतीत और वर्तमान का परिचय देते हुए उसके व्यक्तित्व का बहुत ही दिलचस्प खाका खींचा है, पशु-पक्षियों पर भी महादेवी की दृष्टि गई है; जैसे-गौरा, नीलकंठ आदि।

संस्मरणों में लेखिका की भाषा कहीं सामान्य व्यावहारिक है, कहीं व्यंग्यात्मक तीखापन तो कहीं काव्यात्मक संस्कृतनिष्ठ पदावली की छटा मिलती है।

11th Class Hindi Book Antra Questions and Answers