CBSE Class 11 Hindi Elective रचना दृश्य लेखन

CBSE Class 11 Hindi Elective Rachana दृश्य लेखन

1. प्रातःकालीन दृश्य का वर्णन

जीवन को सुखमय बनाने के लिए मन की प्रसन्नता के साथ-साथ शरीर का स्वस्थ रहना अति आवश्यक है। प्रातःकालीन भ्रमण जहाँ शरीर को स्वस्थ एवं निरोग बनाए रखता है, वहीं हमारे तन-मन में उत्साह का संचार करता है। प्रातःकालीन भ्रमण की स्थिति का वर्णन प्रस्तुत है। प्रभात का सुहावना सुंदर समय है। प्रभातकालीन वेला को अपने स्थान तक पहुँचाने वाले दोनों साथी चंद्रिका और अंधकार अपने-अपने घर जा चुके हैं। वे अपने घर के द्वार पर पहुँचे ही थे कि उषा स्वागत करने के लिए द्वार पर आ गई। उषा का जादुई खेल शुरू हो गया। क्षण-क्षण आकाश में रंग बदलने लगे। पक्षी अपने घोंसलों से बाहर निकल आए और कलरव करने लगे।

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मकरंद भरी वायु मंद-मंद गति से प्रवाहित होने लगी। सहसा प्राची के क्षितिज पर भगवान भुवन भास्कर मुस्कराते हुए दृष्टिगोचर होने लगे। रात्रि के कारावास से दुखी और प्रभात की घड़ियाँ गिनते हुए भ्रमर कमल की पंखुड़ियों से निकलकर गुनगुनाने लगे। रात भर वियोग की पीड़ा झेल रहे चकवा-चकवी का प्रणय-क्रंदन समाप्ति पर आ गया है। उद्यानों और वाटिकाओं में पराग परित पुष्प खिलखिलाकर हँसी बिखेर रहे हैं। वृक्षों की हरीतिमा नेत्रों को बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर रही है। कभी लाज भरी कलिकाओं का घूँघट उठाकर उनके मुख की झलक मिल जाती है। चिड़ियाँ फुदक-फुदक कर कभी वृक्ष की इस शाखा पर तो कभी दूसरी शाखा पर जा बैठती हैं। हरी मखमली घास पर पड़ी ओस की बूँदें मोतियों जैसी प्रतीत हो रही हैं। कवि मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में-

इसी समय पौ फटी पूर्व में, पलटा प्रकृति-परी का रंग।
किरण कंटकों से श्यामांबर फटा, दिवा के दमके अंग।
कुछ-कुछ अरुण सुनहरी, कुछ-कुछ प्राची की अब भूषा थी।
पंचवटी की कुटी खोलकर, खड़ी स्वयं अब उषा थी।

2. ग्रीष्मावकाश के क्षण

जीवन की एकरसता हमारे जीवन को नीरस बना देती है। ऐसे जीवन में न आनंद आता है और न इसके प्रति हमारा कोई आकर्षण रहता है। शरीर मशीन की तरह चलते-चलते शिथिल पड़ जाता है, कार्यक्षमता प्रमावित होने लगती है। तब हमें अवकाश के क्षण याद आने लगते हैं। सभी कार्यस्थलों पर अवकाश के अवसर भी मिलते हैं। स्थूल-कॉलेजों में विद्यार्थियों एवं शिक्षकों को ग्रीष्मावकाश की प्रतीक्षा रहती है। ग्रीष्मावकाश में पर्वतीय स्थल हमें आमंत्रण देकर बुलाते हैं। मैदानी क्षेत्रों में चलने वाली लू के थपेड़े हमें बेचैन कर देते हैं, तब पर्वत हमें अपनी ओर आकर्षित करते हैं। पर्वत तो सौंदर्य की खान होते हैं। मैं पर्वतीय सौंदर्य को देखकर अभिभूत हो जाता हूँ। वहाँ का सौंदर्य आँखों की राह पी लेना चाहता हूँ। ग्रीष्मावकाश में पर्वतीय स्थल पर मेघों की धमाचौकड़ी, चंचल झरनों को बहते देखना कितना आनंददायक होता है। तब वहाँ कवि पंत की ये पंक्तियां सहसा याद ही आती हैं :

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मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में महाकार।
उसके चरणों में पला ताल
दर्पण-सा फैला है विशाल।

ग्रीष्मावकाश की थकान को मिटाने में पर्वतीय सौंदर्य की भूमिका सदैव स्मरणीय रहती है। कश्मीर तो सौंदर्य की खान हैं। यहाँ सुषमा हँसती है, सौंदर्य बिखरता है, इंद्रधनुषी तरंग पर जल-तरंग की स्वर्णलहरी बज उठती है-

सौंदर्य और शोभा की खान है कश्मीर
झील और झरनों की भूमि है कश्मीर
सौरभ और सुषमा की भूमि है कश्मीर।

ऐसे वातावरण में ग्रीष्मावकाश बिताना एक सुखद अनुभव बनकर रह जाता है।

3. ॠतुराज वसंत का आगमन

वसंत – पंचमी के आगमन के साथ ऋतुराज वसंत का आगमन हो जाता है। धन्य हैं हम भारतवासी, जो स्वर्ग-सम वसुधा पर निवास करते हैं। यहाँ छह ऋतुओं का क्रम निर्बाध रूप से चलता रहता है-

शीतल-मंद-सुगंध पवन हर लेता क्षम है,
षट् ऋतुओं का विविध दृश्य युत अद्भुत क्रम है।

पौराणिक कथा के अनुसार वसंत कामदेव का पुत्र है। कामदेव सौंदर्य और रूपाकर्षण का देवता है। उसके आगमन के साथ ही प्रकृति नृत्य करने लगती है, शरीर रोमांचित हो उठता है। रूप और यौवन से मदमाती प्रकृति अनंग-पुत्र का सजधज कर स्वागत करती जान पड़ती है। कवि पद्माकर इसी वसंत की शोभा का वर्णन इस शब्दों में करते हैं :

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कूलन में केलिन में कछारन में कुंजन में
क्यारिन में कलित कलीन किलकंत हैं।
कछार में, दिशा में, देश-प्रदेशन में बनन में,
बागन में, बगरयो वसंत है।

वैसे तो वसंत का आगमन शीत ऋतु की तीव्रता घटते ही हो जाता है, पर फागुन और चैत्र मास ही वसंत के अपने हैं। यह ऋतु असाधारण ऋतु है। जरा आँख उठाकर देखिए-प्रकृति का कोना-कोना कोयल की कूक में स्वर मिलाता जान पड़ रहा है, भ्रमरों का गुंजन वातावरण को गुंजायमान कर रहा है, फूलों की मोहक गंध हृदय को प्रफुल्लित कर रही है। धरती रूपी नायिका सरसों के पीले फूलों की बासंती साड़ी पहनकर मनमोहिनी छटा बिखेर रही है। सरोवर में कमल के फूल प्रस्फुटित हो उठते हैं, आम्रवृक्ष मंजरियों से लद जाते हैं। जहां वसँत का आगमन प्रेम की सुखानुभूति कराता है वहीं विरहिणी नायिका को रातें काटनी कठिन प्रतीत होती हैं। वह पथिक के हाथों अपने प्रियतम के पास संदेश भिजवाने को विवश हो जाती है-

इतना संदेसो है जु पथिक तुम्हारे हाथ,
कहो जाय कंत सो, वसंत ॠतु आई है।

वसंत ऋतुओं का राजा है। उल्लास, उत्साह और आनंद इसके अनुचर हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के तो वसंत की तुलना मठाधीश महंत से ही कर दी है :

आए महंत वसंत
मखमल के झूल पड़े हाथी-सा टीला
बैठे किंशु के छत्र लगा बांधा पाग पीला
चवँर सदृश डोल रहे सरसों सर अनंत
आए महंत वसंत।

घटना-वर्णन
4. कुंभ मेले (2019) का आँखों देखा वर्णन

कहा गया है-

भारत की संस्कृति में यदि सुंदर मेलों का वर्णन न होता।
तो निश्चय ही भारपूर्ण मानव-जीवन भी खेल न होता।

भारतवर्ष मेलों का देश है। यहाँ विभिन्न तीर्थस्थलों पर मेले लगते रहते हैं। 2019 का वर्ष है। प्रयागराज इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम पर अर्धकुंभ का मेला अपनी अलौकिक छटा बिखेर रहा है। यह मेला मकर संक्रांति से आरंभ होकर माघ पूर्णिमा तक अनवरत चलता रहेगा। इस बीच कई शाही स्नान के अवसर आएँगे। इस भव्य मेले में देश-विदेश के लगभग 25 करोड़ लोग पवित्र गंगा में डुबक लगाकर स्वंयं को पाप-मुक्त करने का पुण्यलाभ प्राप्त कर रहे हैं। किसी-किसी दिन तो एक साथ दो करोड़ व्यक्ति गंगा में ड़बकी लगा रहे हैं। इतने लोग तो कई देशों की पूरी जनसंख्या से भी अधिक हैं।

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गंगा-तट पर एक विशाल कुंभ-नगरी का निर्माण किया गया है। इसमें सामान्य यात्रियों के लिए तंबू लगे हैं तो विदेशी पर्यटकों के लिए स्विस कॉटेज बनाई गई हैं। इनमें पाँच सितारा होटल जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराई गई हैं। इतनी सुंदर व्यवस्था को देखकर विदेशी अतिथि भी हतत्रभ हैं-कितना भव्य आयोजन, स्वच्छ वातावरण, वेद मंत्रों से गुंजायमान आकाश, चारों ओर भारी चहल-चहल, भक्तिमय वातावरण, सुगम एवं आरामदायक यातायात व्यवस्था- कुल मिलाकर एक जादुई लोक की कल्पना का साकार रूप दुष्टिगोचर हो रहा है। कही कोई अव्यवस्था नहीं, किसी को कोई असुविधा नहीं, सभी क्रियाएँ व्यवस्थित ढंग से स्वत: संचालित- उत्तर प्रदेश सरकार की उत्तम कार्य-प्रणाली का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत करती जान पड़ती हैं। इतने विशाल एवं भव्य आयोजन में कही कोई दुर्घटना का न होना ही इसके सफल आयोजन का प्रमाण पत्र है। आस्था का यह कुंभ मेला अनेक वर्षों तक अपनी सुखद स्मृतियाँ सँजोए रखेगा।

5. फुटबॉल मैच का आँखों देखा वर्णन

वैसे तो पूरे विश्व पर क्रिकेट का बुखार चढ़ा रहता है, पर फुटबॉल मैच देखना भी कम रोमांचक और आकर्षक नहीं है। मोहन बागान, डुरंड आदि ब्रांड नामों ने फुटबॉल को जनप्रिय खेल बना दिया है।

मैंने पिछले सप्ताह जो मैच देखा, वह स्कूल के इस शैक्षाणिक सत्र का अंतिम मैच था। यह मैच रविवार की शाम सर्वोदय विद्यालय, राजौरी गार्डन, नई दिल्ली और प्रतिभा विद्यालय, हरीनगर, नई दिल्ली के मध्य था। मेरी टीम प्रतिभा विद्यालय वाली थी।

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लो, मैच की तैयारी प्रारंभ हो गई। सभी खिलाड़ी अपनी-अपनी टीम की निधीरित ड्रेस पहन रहे हैं। सभी खिलाड़ी उत्साह से भरे प्रतीत हो रहे हैं ‘रैफरी की सीटी बजते ही दोनों टीमों के खिलाड़ी मैदान में पहुँच गए हैं। गणमान्य दर्शक कुर्सियों पर बैठे हैं। रैफरी ने आसमान की ओर सिक्का उछालकर टॉस किया। हमारी टीम ने टॉस जीता। खेल प्रारंभ हो गया।

हमारी टीम के खिलाड़ी पूरी शक्ति लगाकर खेल रहे हैं। रमेश ने गेंद को ऐसे किक मारी कि बॉल ‘डी’ के निकट पहुँच गई।। एक अन्य खिलाड़ी उसे आगे सरका रहा है, पर गोल कीपर बड़ा ही फुर्तीला और चुस्त है। दस मिनट बीत गए हैं, पर अभी तक कोई टीम गोल करने में सफल नहीं हो पाई है। विपक्षी टीम हमारी टीप पर लगातार दबाव बना रही है। उसके एक खिलाड़ी की गेंद गोल कीपर के पास से निकलकर बाहर चली गई है। चारों ओर तालियाँ बज रही हैं। हमारी टीम हतोत्साहित नहीं है। वह भी प्रयत्नशील है। आधा समय बीत जाता है। सभी खिलाड़ी विश्राम के लिए जा रहे हैं।

दस मिनट बीतते हैं। रैफरी की सीटी बजती है। खेल पुन: आरंभ होता है। अब हमारी टीम विपक्षी टीम पर हावी हो रही है। लो, हमारी टीम गोल करने में सफल हो जाती है। स्कोर बराबर हो जाता है। थोड़ी ही देर में हमारी टीम का फॉरवर्ड खिलाड़ी दूसरा गोल करने में सफल हो जाता है। अब तो हमारी टीम में खुशी की लहर छा जाती है।

तभी रैफरी की लंबी सीटी सुनाई देती है। मैच समाप्त हो जाता है। हमारी टीम एक गोल से जीत जाती है।

6. चारों ओर प्रदूषण ही प्रदूषण

‘प्रदूषण’ शब्द का अर्थ है-हमारे चारों ओर के वातावरण में किसी विषैले तत्त्व का असंतुलित मात्रा में विद्यमान होना। यह एक भयंकर समस्या है। हमारे चारों ओर प्रदूषण ही प्रदूषण है। हमें साँस लेने के लिए पर्याप्त मात्रा में स्वच्छ वायु की उपलब्धता निरंतर घटती चली जा रही है। ऐसा क्यों है?
यह मनुष्य ही है जिसने अपने निहित स्वार्थ की पूति के लिए पूरे वातावरण को प्रदूषित बना दिया है। मनुष्य परमात्मा की बनाई पवित्र धरा को नरक तुल्य बनाने पर आमादा है। मनुष्य ने वृक्षों की अंधाधुंध कराई करके पर्यावरण-प्रदूषण का खतरा अपने सिर पर मोल ले लिया है। वह तात्कालिक लाभ पाने में इतना अंधा हो चुका है कि उसे पर्यावरण के दीर्घकालिक खतरे का कोई पूर्वानुमान तक नहीं है। प्रकृति मूल रूप में प्रदूषण मुक्त है। मनुष्य ने प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। वह इस कथन को भूल गया है-

यदि शुद्ध हो पर्यावरण, यदि प्रबुद्ध हो हर आचरण,
भय दूर होगा रोग का, संतुलित होगा जीवन-मरण।

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हमारे देश में यह प्रदूषण की समस्या विकराल रूप धारण करती चली जा रही है। यहाँ जनसंख्या का दबाव भी बहुत है। हमारे यहाँ मकान छोटे-छोटे भूखंडों पर बने हैं। वहाँ न तो स्वच्छ वायु पहुँच पाती है और न पर्याप्त रोशनी वाहनों और कारखानों से निकलने वाला धुआँ पूरे वातावरण को प्रदूषित कर रहा है। अधिकाधिक वृक्ष लगाकर ही इस प्रदूषण को रोका जा सकता है। हमें याद रखना होगा-

वृक्ष धरा का है शृंगार, इनसे करो सदा तुम प्यार।
इनकी रक्षा धर्म तुम्हारा, ये हैं जीवन के आधार॥

प्रदूषण पर नियंत्रण करके ही हम अपने जीवन को स्वस्थ एवं सुखी बना सकते हैं। अपने चारों ओर के वातावरण को प्रदूषण मुक्त बनाना होगा।

7. एक स्मरणीय स्थल

केंट के सेंट मार्टिन चर्च में होती है सैनिकों के लिए प्रार्थना
दिल्ली का यह चर्च रखता है शहीदों को याद

दिल्ली शहीदों को भूलती नहीं, हमेशा याद रखती है। अपने-अपने तरीकों से लोग शहीदों को सम्मान देते हैं और याद करते हैं। यहाँ का सेंट मार्टिन चर्च ऐसा चर्च है जहाँ हर साल प्रथम विश्व युद्ध से लेकर अब तक हुए युद्धों में जो भी सैनिक शहीद हुए हैं उनके लिए विशेष पूजा की जाती है। भले ही सैनिक किसी भी धर्म के क्यों न हों। यह प्रार्थना हर साल 11 नवंबर के आसपास पड़ने वाले रविवार के दिन होती है। खास बात यह है कि इस चर्च को अंग्रेजों के समय सैनिकों के लिए बनाया गया था। इस विशेष प्रार्थना में मुख्य अतिथि होते हैं रिपब्लिक परेड की अगुवाई करने वाले दिल्ली एरिया के चीफ। परेड में तीनों सेनाओं के अधिकारी भी शामिल होते है। यह चर्च दिल्ली केंट में स्थित है। वैसे तो यह चर्च पहले सेना में ईसाई कम्युनिटी के लोगों के लिए बनाया गया था, लेकिन इसमें अब सिविलियन भी आकर प्रार्थना कर सकते हैं।

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क्या है चर्च का इतिहास

इस चर्च को अंग्रेजों के समय में सैनिकों के लिए बनाया गया था। पहली बार इस चर्च में प्रार्थना 1931 में शुरू की गई थी। चर्च के पादरी दानिश लाल बताते हैं। इस चर्च का आक्रिटेक्चर भी लुटियंस जोन में बने चर्चों से एकदम अलग है। यह चर्च इन चर्चों से पहले बना था। इस बात का पूरा ख्याल रखा गया कि चर्च की मूलती में कोई बदलाव ना आए। चर्च के लिए 24 फरवरी 2018 में एक साल तक फेस्टिवल भी आयोजित किया गया ताकि इसकी महत्ता लोगों को पता चल सके। यह ऐसा चर्च है जहाँ पर वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम भी लगा हुआ है ताकि बारिश के पानी का संचयन किया जा सके। इस चर्च की एक रेप्लिका मंदिर मार्ग स्थिल सेंट चर्च थॉमस है।

क्या है चर्च की कहानी
यह चर्च सेंट मार्टिन के नाम पर बना है। पादरी दानिश लाल बताते हैं कि फ्रास में रहने वाले सेंट मार्टिन सेना में शामिल हो गए थे। वे एक सैनिक थे। रात को वे कहीं जा रहे थे। उन्होंने देखा कि एक गरीब ठंड में सिकुड़ रहा है। उन्होंने उसकी मदद की और उसे कंबल दिया। बाद में सपने में उन्होंने देखा की जो कंबल उन्होंने इंसान को ओढ़ाया था वह सपने में भगवान येशु ने ओढ़ा हुआ है तब से उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी और वे संत बनकर भगवान येशु की शरण में आ गए और लोगों की मदद करने लगे।

सभी करते हैं यहाँ प्रार्थना

इस चर्च में पहली प्रार्थना सेना में शामिल ईसाई धर्म के ऑफिसरों और सैनिकों के लिए होती है। उसके बाद सेवानिवृत सैनिकों के लिए होती है। द्वारका व आसपास के इलाकों में रहने वाले सिविल ईसाई लोग भी यहाँ प्रार्थना करते हैं। यह ऐसा चर्च है तो अन्य पंत के लोगों को भी प्रार्थना के लिए चर्च मुहैया कराता है। मेथोडिस्ट और नॉर्थ-ईस्ट के लोग भी यहाँ प्रार्थना के लिए आते हैं।

8. मतदान केंद्र का आँखों देखा दृश्य

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र में एक निश्चित अवधि के बाद चुनाव होते हैं। चुनाव में मतदान की प्रक्रिया का पालन किया जाता ह। 2019 के आम चुनाव हैं। सत्रहवीं लोकसभा के सदस्यों का चुनाव होना है।

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आज 12 मई का दिन है। आज के दिन दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों के लिए मतदान होना है।
मैं जनकपुरी के एक मतदान केंद्र के सामने खड़ा हूँ। यह मतदान केंद्र पश्चिमी दिल्ली संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आता है। यहाँ के सरकारी स्कूल में मतदान केंद्र बनाया गया है। मतदान केंद्र के अंदर कुछ चुनाव कर्मचारी मतदान केंद्र को तैयार करने में जुटे है। इनमें एक पीठासीन अधिकारी भी है जो E.V.M. मशीन को वर्किंग कंडीशन में लाने की क्रिया सम्पन्न कर रहा है। अन्य कर्मचारी अपनी-अपनी सीट पर बैठे हैं। अंदर उम्मीदवार के जंट इस सासी प्रक्रिया पर पैनी नज़र रखे हुए हैं। यह हाल है मतदान केंद्र के अंदर का।

अब आप मतदान केंद्र का हाल जानिए। बाहर 200 कदमों की दूरी पर सभी राजनीतिक दलों ने अपने-अपने अस्थायी बूथ बना रखे हैं। प्रत्येक बूथ पर संबंधित पार्टी के $3-4$ कार्यकर्ता हैं। वे मतदाताओं की सहायता करते जान पड़ रहे हैं। मतदान केंद्र की सुरक्षा के लिए 5-6 पुलिसकर्मी मुस्तैदी से डटे हुए हैं।

मतदान आरंभ होने वाला है। मतदाता नए-नए वस्त्र पहन कर मतदान केंद्र पर पहुँच रहे हैं। कुछ कारों से तो कुछ ऑटो रिक्शा से तथा कुछ पैदल ही मतदान केंद्र की ओर चले आ रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों के लोग उनसे सम्पर्क साधकर अपने उम्मीदवार को वोट देने का अनुरोध करते दिखाई दे रहे हैं। बारह बज गए हैं, पर अभी तक केवल 25% मतदान ही हो सका है। कार्यकर्ताओं में सक्रियता बढ़ने लगी है। अब उनके प्रयासों से मतदान केंद्र पर मतदाताओं की लाइन लग गई है। सभी के हाथों में पहचान पत्र हैं। सभी कुछ व्यवस्थित ढंग से चल रहा है, कहीं कोई झगड़ा-टंटा नहीं।

9. एक पर्व के मनाने का वर्णन

एक छठ यह भी

चैत्र महीने की शुरुआत में जब दिल्ली-एनसीआर के लोग नवरात्र मना रहे होते हैं, दिल्ली के पूर्वांचली समाज के लोग नवरात्र के साथ छठ भी मनाते हैं। जी हां, दीवाली के छठे दिन मनाई जाने वाली छठ पूजा के अतिरिक्त एक और छठ पूर्वांचली समाज के लोग मनाते हैं। यानी छठ साल में दो बार मनाया जाता है। पहली चैत्र में और दूसरी कार्तिक में। चैत्र शुक्ल पक्ष पष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ और कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। चैत्र महीने की शुरुआत में जब हिन्दू नववर्ष यानी नया संवत्सर शुरू होता है तब मनाया जाने वाला यह त्योहार कम ही लोग करते हैं इसलिए इसके बारे में दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले लोगों को ज्यादा नहीं पता।

चैती छठ चैत्र षष्ठी को मनाई जाती है और यह सूर्योपासना के लिए ही है। परिवार की सुख-समृद्धि के लिए और मनोवांछित फल पाने के लिए लोग यह व्रत करते हैं। कार्तिकी छठ की तरह ही चैती छठ भी 4 दिन का त्योहार होता है। इसकी शुर्आत नहाय खाय से होती है और फिर अगले दिन होता है खरना। खरता के अगले दिन अस्ताचलगामी सूर्य को सूर्यास्त के समय अर्घ्य दिया जाता है जबकि उसके अगले दिन सूर्योंदय के समय उदित हो रहे सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। यानी परंपराओं और मनाने के तरीके के मामले में यह छठ कार्तिक में मनाए जाने वाले छठ पर्व के जैसा ही होता है। अंतर बस है कि यह छोटे पैमाने पर मनाया जाता है। फिर चैती छठ में डाला पर ज्यादातर फल और मेवों का ही प्रसाद चढ़ाया जाता है। ऐसे में अगर आप प्रसाद के रूप में

ठेकुआ की उम्मीद करेंगे तो आपको निराशा होगी।

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इन दिनों चैती छठ की तैयारियाँ शुरू हो गई हैं। जो लोग दिल्ली-एनसीआर में नए हैं और यह छठ कर रहे हैं, वे पता करने में लगे हुए हैं कि उनके लिए नजदीकी छठ घाट कौन-सा हो सकता है। चूँक यह बड़े पैमाने पर नहीं मनाया जाता इसलिए यमुना के घाटों पर कोई तैयारी नहीं होती। जो लोग यमुना के किनारे की कॉलोनियों में रहते हैं वे पता करें कि उनके पड़ोस में कौन और हैं जो यह छठ कर रहे हैं। मंडावली में रहने वाले रोशन सिंह कहते हैं, ‘अभी पता ही कर रहा हूँ। एक बार पता चल जाए तो उनके साथ मिलकर यमुना किनारे घाट बना लूँगा।’ कुछ लोगों ने अपने आसपास खाली जगह देख रखी है जहाँ छोटा-सा कुंड बनाकर वे छठ मनाएंगे।

कालिंदी कुंज के छठ घाट की देखरेख करने वाले जितेंद्र तिवारी कहते हैं, ‘अभी दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले कम ही लोग यह छठ मनाते हैं। कालिंदी कुंज जैसे घाट पर सौ-डेढ़ सौ लोग ही होंगे। इसलिए बहुत पहले से इसकी तैयारी हमें नही करनी पड़ती।’
वैसे, तमाम लोग ऐसे भी हैं जो इस छठ्ट के लिए खासतौर पर बिहार जा रहे हैं। फरीदाबाद में रहने वाले बिजनेसमैन आर सी चौधरी कहते हैं, ‘चैती छठ के बहाने हमें एक बार और घर हो जाने का बहाना मिल जाता है।’

10. एक भयानक अग्निकांड

मानव-जीवन में दुर्घटनाएँ घटित होती रहती है। कई घटनाएँ प्राकृतिक आपदाएँ होती हैं तो कुछ मानव-भूलों के कारण घटित होती हैं।

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पिछले दिनों अलीगढ़ शहर में एक भयंकर अग्निकांड हुआ। अलीगढ़ दो विभिन्न संस्कृतियों का शहर है। यहाँ की अनाज मंडी बहुत बड़ी है। बाहर दुकानें, भीतर गोदाम। गोदामों में अनाज तथा अन्य माल भरा पड़ा रहता है। पास ही कपड़ों की दस-पंद्रह दुकानें हैं। यहाँ चारों ओर बिजली के तारों का जाल बिछा रहता है। शार्ट सर्किंट का खतरा सदा बना रहता है। दुकानों के बाहर अनाज के ढ़र लगे रहते हैं।
दो दिन पहले एक दुकान में शार्ट सर्किट हुआ और चिनगारियाँ निकलने लगीं। थोड़ी देर में आग की लपटों ने पूरी दुकान को अपने लपेटे में ले लिया। जब तक कोई कुछ समझ पाता तब तक आग

पड़ोस की कपड़ों की दुकानों तक जा पहुँची। कपड़े के थान धू-धूकर जलने लगे। चारों ओर अफरा-तफरी मच गई। फायर ब्रिगेड को सूचना भेजी गई। गाड़ियों को आने में आधा घंटा लग गया। तब आग भयंकर रूप ले चुकी थी। दो दुकानों में चार कर्मचारी लपटों के बीच फँसे हुए थे। रास्ता सँकरा था अतः गाड़ियों के आने में दिक्कत हुई। जैसे-तैसे फायर ब्रिगेड वालों ने अपना काम शुरु किया, पर फिर भी वे दो घंटे तक आग पर काबू नहीं पा सके। जब काबू पाया गया तब तक लाखों का माल जलकर स्वाहा हो चुका था। लोग अपनी-अपनी हानि का अनुमान लगा रहे हैं। अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। अभी तो सभी बदहवासी की अवस्था में हैं।

11. एक स्थिति की अनदेखी करना भारी पड़ गया

कुछ समय पहले पता चला कि हरियाणा में रह रहे मेरे एक निकट संबंधी के गॉलब्लैडर में पथरियां हैं। कभी-कभी उन्हें हल्का-फुल्का दर्द होता जिसे वे हल्के-फुल्के में ही लेते रहे। उनका कोई परिचित घरेलू इलाज बताता तो कर लेते थे। अगली मुलाकात में मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर पता चला कि गॉलल्लैडर पथरियों से भर गया है। डॉक्कर ने ऑपरशश के लिए सुझ्साया है। मैंने उन्हें बिना देर किए ऑपरशशन करवाने की सलाह दी। उनकी पली ने बताया कि ये ऑपरेशन से इसेते हैं। हम दोनों पति-पली का गॉलक्लैडर वर्षों से हमारे शरीर में नहीं है। उसके बगर भी, कुछ परहेज बरतते हुए हम पूर्ण स्वस्थ हैं। यह सब बताते हुए मैने फिर उनसे कहा कि गॉलबैैडर निकलवाने में देर न करें। जब ऑपरेट करवाना होगा हम भी आ जाएँगे। ‘देखता हूँ’ कहकर जह मुस्कुरा दिए।

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कुछ समय बाद एक रात उन्हें असहनीय दर्द हुआ तो तत्काल अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। क्क्रअप के बाद डॉक्टर ने बताया कि पथरी के कारण पेट में बहुत ज्यादा इन्केक्शन हो गया है। आईसीय में बारह दिन रहकर जनरल वॉर्ड में शिफ्ट हुए तो डॉक्टर ने उन्हें फिर सलाह दी, ‘दो हप्ते बाद अपनी सुविधा के मुताबिक कोई तारीख लेकर ऑपरेशन करवा लें, नहीं करवाएँगे तो आगे आपको और ज्यादा परेशानी होगी।’ हम उनका हालचाल पूछने गए तो हमने भी फिर आग्रह किया। इस बार उन्होंने मुस्करा कर कहा, ‘अब तो करवा लूँगा’ हमने बच्चों से भी बात की इस बार। वे बोले, ‘हम तो कब से कह रहे हैं, पर डैडी डरते हैं। मानते ही नहीं।’ आखिर कितने दिन ऐसा चलता। कुछ समय तक ठीक रहने के बाद एक बार फिर उन्हें तेज दर्द हुआ। तुरंत हाँस्पिटल भागे।

आईसीयू में भर्ती किया गया, इन्फेक्शन बहुत ज्यादा था। हम उन्हें देखने गए तो वे अपनी हालत से परेशान थे। मानो, मान रह हों कि इसका जिम्मेदार मैं खुद हूँ। शुरुआती इलाज के बाद उन्हें चंडीगढ़ भेजा गया। वहाँ जाँच हुई तो पता चला, उनका पेंक्रियाज पूरा सड़ चुका है, तुरंत ऑपरशश करना पड़ेगा। डॉक्टरों ने सिर्फ पेंक्रियाज का ऑपेशन किया। उनका कहना था कि गॉलल्लैडर को भी साथ में ऑपेरेट करना मरीज का शरीर बर्दाश्त नहीं सकता था। हालांकि इस एक ऑपेशन को भी मरीज का शरीर नहीं सह सका। आखिरी दिनों में परिवार वालों ने कुछ भी उठा नहीं रखा। दान-पुण्य, टोने-टोटके सब आजमाए गए। यहाँ तक कि महामृत्युंजय का जाप भी कराया, लेकिन – कुछ काम नहीं आया।

शोक बैठकों के दौरान चर्चा वैसी ही रही, जैसी आम तौर पर अपने यहाँ होती है-उस डॉक्रर को समझ नहीं आया, इस अस्पताल में ऐसा हुआ, वहाँ टेस्ट होने में देर हुई … और फिर धीरे-धीरे बात भाग्य तक पहुँची। कुछ कर लो जी, जो होना है वह होकर रहता है। लिखा हुआ नहीं टलता। जिस दिन जिसे जाना है, मौत उसे बुला लेती है। चाहे जितना दान–ुण्य करो, जितनी मर्जी जाप कर लो, कोई फायदा नहीं। बीमारी तो बहाना बन जाती है जी।

इन तमाम चर्चा-परिचर्चा के बीच मैं उनके असमय निधन से उपजी निराशा तो झेल ही रहा था, मन में बार-बार सिर उठाते इस विचार से भी नहीं बच पा रहा था कि थोड़ी आशंका, थोड़ा भय और थोड़ी लापरवाही का इलाज अगर हम समय रहते कर लेते तो न केवल अपने एक प्रियजन की असमय विदाई को टाल सकते थे बल्कि भाग्यवादी अंधविश्वासों को मजबूती देने वाली इन चर्चाओं भी बच जाते।

12. एक दर्दनाक घटना का वर्णन

आज 14 फरवरी, 2019 का दिन है।
आज सायं एक मनहूस खबर आई है।

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जम्मू कश्मीर के पुलवामा क्षेत्र में CRPF की एक बस पर आतंकवादियों ने आत्मघाती हमला कर सेना के 40 जवानों की नुशंस हत्या कर दी। इस समाचार को सुनकर सारा देश सन्न रह गया और दुख के सागर में डूब गया है। आतंकवादी ने एक कार में 250 किली आर.डी.एक्स भरकर जवानों से भरी गाड़ी में टक्कर मार कर सेना की गाड़ी के परखच्चे उड़ा दिए। यद्यापि आतंकवादी भी इस दुर्घटना में मारा गया, पर उसने इतना बड़ा दुस्साहस करके हमारे देश की सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगाकर हमारी इंटेलिजेस को चकमा देने में सफलता पा ली। सेना के जवानों के काफिले में और भी गाड़ियाँ थीं, पर आतंकी ने एक गाड़ी को निशाना बनाकर सनसनी फैला दी। यह हमला अप्रत्याशित था। अधिकांश युवा सैनिक असमय ही शहीद हो गए। इस हमले से पूरे भारत में रोष की लहर दौड़ गई। चारों ओर से आवाजें उठने लगीं- खून का बदला, खून से लो।” प्रधानमंत्री सहित पूरा मंत्रिमंडल क्रोध और असमंजस की स्थिति में था। ताबड़तोड़ मीटिंग बुलाई गई। रक्षा विशेषज्ञ जुटे। गहन मंत्रणा हुई। प्रधानमंत्री बहुत आहत थे। उन्होंने सेना को खुली छूट दी। आक्रमण का फैसला सेना के विवेक पर छोड़ दिया गया। शहीद सैनिकों के परिवारों से चीखने-चिल्लाने की आवाजें पूरे वातावरण में गूँज रही थीं। ठीक 12 दिनों के बाद इस दुर्घटना का ऐसा करारा बदला लिया जिसे पकिस्तान कभी भी भुला नहीं पाएगा। हमारे जहाजों ने उनके आतंकी ठिकानों को तबाह कर दिया।

13. मिशन शक्ति

‘दो साल तक 150 वैज्ञानिकों की मेहनत का नतीजा है मिशन शक्ति’
रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के चीफ सतीश रेड्डी ने मिशन शक्ति को लेकर पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम की टिप्पणी पर जवाब दिया है। उन्होंने दो टूक कहा कि मिशन शक्ति की सफलता को गोपनीय नहीं रखा जा सकता था। इसको दुनिया के कई अंतरिक्ष स्टेशन में ट्रैक किया गया था। हालांकि हमने मिशन शक्ति के परीक्षण के लिए सभी जरूरी मंजूरियाँ ले ली थीं। डीआरडीओ चीफ ने कहा कि भारत ने अंतरिक्ष में सैटेलाइट मार गिराने की क्षमता को प्रदर्शित किया है। भारत ने अंतरिक्ष में सैन्य ताकत हासिल की है। डीआरडीओ ने अंतरिक्ष में एंटी सैटेलाइट मिसाइल (एएसएटी) से लाइव सैटेलाइट को मार गिराने का प्रेजेंटेशन विडियो भी जारी किया। उन्होंने बताया कि रेकॉर्ड 2 साल में करीब 150 वैज्ञानिकों ने इस प्रॉजेक्ट को सफलतापूर्वक पूरा किया। डीआरडीओ चेयरमैन ने कहा कि मिशन शक्ति के दौरान भारत ने 300 किमी से भी कम दूरी के लोअर ऑर्बिं को चुना, जिससे दुनियाभर के देशों के स्पेस असेट्स को मलबे से कोई नुकसान न हो। उन्होंने कहा कि वैसे तो भारतीय इंटरसेप्टर की क्षमता 1000 किमी तक के ऑर्बिट में सैटलाइट को गिराने की थी।

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एजेंसी के चीफ सतीश रेड्डी ने साफ कहा कि 45 दिनों के भीतर सभी मलबा नष्ट हो जाएगा। दरअसल, नासा की तरफ से आशंका जताई गई थी कि सैटलाइट के मलबे से अंतराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र (आईएसएस) को खतरा पैदा हो सकता है। इस दौरान ऑपरेशन की विस्तृत जानकारी देने के लिए प्रेजेंटेशन भी दिया गया।

14. प्रेम-त्याग की अमर गाथा

अंदमान द्वीपसमूह का अंतिम दक्षिणी द्वीप है-लिटिल अंदमान।
यह पोर्ट ब्लेयर से लगभग 100 कि.मी. दूर है। यहीं से निकोबारी द्वीपसमूह की श्रृंखला आरंभ होती है। निकोबार यहाँ का प्रमुख द्वीप है। यहीं एक प्रतिभाशाली सुंदर युवक रहता था-तताँरा। वह दूसरों की मदद करने के कारण पूरे क्षेत्र में लोकप्रिय था।

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एक शाम वह समुद्र के किनारे टहल रहा था कि उसके कानों में एक कन्या की मधुर आवाज सुनाई दी। गायन इतना प्रभावी था कि वह अपनी सुध-बुध खोने लगा। लड़की ने गाना बीच में रोक दिया। तताँरा ने उसे गाना पूरा करने को कहा। लड़की का नाम वामीरो था। वह लपाती गाँव की नहीं थी। दोनों के दिलों में प्यार के अंकुर फूटने लगे। वामीरो को घर पहुँच कर कुछ बेचैनी का अनुभव हुआ। उसे तताँरा का प्रेम-याचना भरा चेहरा बार-बार याद आने लगा। किसी तरह रात बीती। अगली सुबह वे दोनों फिर मिले। यह सिलसिला चल पड़ा। दोनों रोज़ इसी जगह पहुँचने और मूर्तिवत् एक-दूसरे को निर्निमेष ताकते रहते। कुछ युवकों ने उनके मूक प्रेम को भाँप लिया। खबर पूरे गाँव में फैल गई।

कुछ समय बाद पासा गाँव में ‘पशु पर्व’ का आयोजन हुआ। तताँरा की आँखें वामीरो को खोजने में व्याकुल थीं। तभी वामीरों की माँ सामने आई। उसने क्रोधित होकर तताँरा को सबके सामने अपमानित किया। वह गुस्से में भर उठा। उसे विवाह की निषेध परंपरा पर क्षोभ और अपनी असहायता पर खीझ हुई। उसका हाथ तलवार की मूँठ पर जा पड़ा। उसने अपने क्रोध का शमन करने के लिए तलवार को धरती में घोंप दिया और ताकत से खींचने लगा। धरती दो टुकड़ो में फटती जा रही थी। वह छटपटाता रहा। वह लहूलुहान हो चुका था। इसके बाद उसका क्या हुआ, कोई नहीं जानता। वामीरो पुकारती रही … तताँरा … तताँरा …। वामीरो अपने तताँरा के लिए पागल हो चुकी थी। वह प्रतिदिन उसी स्थान पर पहुँचती और घंटों बैठी रहती। उसने खाना-पीना छोड़ दिया। वह परिवार से विलग हो गई। कहीं उसका सुराग नहीं मिला। इस प्रकार एक प्रेम कथा का दुखद अंत हो गया। पर उनकी प्रेम-कथा अमर हो गई।

15. एक यादगार फिल्म और निर्माता की बर्बादी

एक यादगार फिल्म थी-तीसरी कसम। इसका निर्माण संगीतकार शैलेंद्र ने किया था। यह उनके द्वारा निर्मित एवं निर्देशित पहली और अंतिम फिल्म थी। इसे शैलेंद्र ने पूरी शिद्दत के साथ बनाया था। इसकी कलात्मकता की लंबी-चौड़ी तारीफें हुई थी। मास्को फिल्म समारोह में यह फिल्म पुरस्कृत भी हुई थी। इस सबके बावजूद भारत में इस फिल्म के लिए खरीददार न मिल सके।

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‘तीसरी कसम’ फिल्म सैल्यूलाइड पर लिखी कविता थी। शैलेंद्र ने एक ऐसी फिल्म बनाई थी, जिसे कोई कवि हृदय ही बना सकता था। शैलेंद्र ने इसमें राजकपूर की भावनाओं को शब्द दिए थे। राजकपूर ने केवल एक रुपया पारिश्रमिक लेकर पूरी तन्मयता से इस फिल्य में काम किया था। वैसे राजकपूर ने अपने मित्र को फिल्म की असफलता के खतरों से आगाह किया था। ‘तीसरी कसम’ में राजकपूर और वहीदा रहमान जैसे नामज़द सितारे थे, शंकर-जयकिशन का संगीत था और गीतकार स्वयं शैलेंद्र थे। इसके बावजूद इस फिल्म को खरीदने वाला कोई नहीं मिला। दरअसल इस फिल्म की संवेदना किसी दो से चार बनाने का गणित जानने वाले की समझ से परे थी। बड़ी मुश्किल से जब ‘तीसरी कसम’ रिलीज़ हुई तो इसका कोई प्रचार नहीं हुआ। फिल्म कब आई, कब चली गई, मालूम ही नहीं पड़ा।

‘तीसरी कसम’ एकमात्र ऐसी फिल्म थी जिसने साहित्य-रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया था। शैलेंद ने राजकपूर को हीरामन गाड़ीवान बना दिया। छींट की सस्ती साड़ी में लिपटी ‘हीराबाई’ के पात्र ने वहीदा रहमान की प्रसिद्ध ऊँचाइयों को बहुत पीछे छोड़ दिया। गाड़ीवान हीरामन झूमते गाता है-‘चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजडे वाली मुनिया’, हीराबाई की नौटंकी अभिनय को बुलंदी पर ले जाती है। ‘तीसरी कसम’ में शैलेंद्र ने अपनी भावप्रवणता को सर्वश्रेष्ठ में उतारा। इस सबसे वावजूद ‘तीसरी कसम’ के निर्माण ने शैलेंद्र को आर्थिक और मानसिक दृष्टि से बर्बाद कर दिया।

16. गिरगिट की तरह रंग बदलता पुलिस इंसपेक्टर

पुलिस इंसपेक्टर ओचुमेलॉव नया ओवरकोट पहने अपनी रौ में चला जा रहा है। अचानक उसे एक आवाज़ सुनाई देती है-“तो तू काटेगा? शैतान कही का। इसे मत जाने देना ‘ पकड़ लो इस कुत्ते को।” तभी उसे एक कुते के किकियाने की आवाज़ भी सुनाई देती है। वह तीन टाँगों पर चला आता दिखाई देता है।

आचुमेलॉव मुड़ता है। वह बटन विहीन वास्केट पहने एक व्यक्ति को देखता है। वह अपनी लहूलुहान उँगली ऊपर उठाकर दिखा रहा है। ओचुमेलॉव उस व्यक्ति को पहचान लेता है। वह व्यक्ति ख्यूक्रिन नामक सुनार है। ओचुमेलॉव उससे पूछता है- ” तुमने अपनी उँगली ऊपर क्यों उठा रखी है?” ख्यूक्रिन बताता है मुझे इस कमबख्त कुत्ते ने काट लिया। मुझे इसके मालिक से हर्जाना दिलाया जाए।” ठीक है, मैं इसके मालिक पर जुर्माना ठोंक कर उसे मज़ा चखाऊँगा।

“येल्दीरीन, पता लगाओ यह पिल्ला किसका है?” एक आदमी बताता है- “मेरे ख्याल से यह कुंत्ता जनरल झिंगालॉव का है।”

यह सुनते ही अग्चुमेलॉव को पसीना आने लगता है। अब वह ख्यूक्रिन को ही धमकाने लगता है, “तूने ही अपनी जलती सिगरेट इसकी नाक में डाली होगी। वरना क्या यह कुत्ता बेवकूफ है?”
सिपाही गंभीरतापूर्वक टिप्पणी करता है-” जनरल साहब का यह कुत्ता हो ही नहीं सकता। उनके तो सभी कुत्ते पोंटर हैं।”

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यह सुनकर इंसपेक्टर फिर रंग बदलता है। वह कहता है कि मैं इसके मालिक को जरूर मज़ा चखाऊँगा। तभी भीड़ में से एक आवाज़ उभरती है-“हाँ, यह जनरल साहब का ही कुत्ता है।” अब ओचुमेलॉव को ठंड लगने लगती है। प्रोखोर आकर बताता है कि यह तो जनरल के भाई का कुत्ता है। वैसे जनरल साहब पधार चुके हैं। अब ओचुमेलॉव फिर पलटी मारता है, वह कहता है-” यह तो एक अति सुंदर डॉगी है।” वह ख्यूक्रिन को धमकता है-“मैं तुझे तो अभी ठीक करता हूँ।” यह कहकर वह चलता बनता है।

17. मेरी माँ और मेरी पत्नी : दो भिन्न दिशाएँ

हमारा घर मुंबई में था। उसमें मैं, मेरी माँ और मेरी पली रहती है।
मेरी माँ कहती है-“ सूरज ढले आँग के पेड़ों से पत्ते मत तोड़ो, पेड़ रोएँगे। दीया-बत्ती के बाद फूलों को मत तोड़ो। फूल बददुआ देते हैं। दरिया पर जाओ तो उसे सलाम करो, वह खुश होता है। कबूतरों को मत सताया करो, वे हजरत मुहम्मद को अज़ीज हैं।” उन्होंने उन्हें अपनी मज़ार के नीले गुम्बद पर घोंसला बनाने की इज़ाजत दे रखी है। मुर्गे की परेशान मत किया करो। वह मुल्ला जी से पहले मोहल्ले में अज़ान देकर सबको सवेरे जगाता है-

सब की पूजा एक-सी, अलग-अलग है रीत।
मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत॥

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ग्वालियर में हमारा एक मकान था। उसमें एक रोशनदान था उसमें कबूतर के जोड़े ने अपना घोंसला बना लिया था। एक बार बिल्ली ने उचककर उसके अंड़ों को तोड़ दिया था। कबूतर परेशानी में इधर-उधर फड़फड़ा रहे थे। मेरी माँ की आँखों से आँसू निकल आए। अब हम वर्सोवा (मुंबई) में आ बसे हैं। पहले यहाँ दूर तक जंगल था। अब नई-नई बस्तियों ने परिंदों-चरिदों से उनका घर छीन लिया है।

अब दूसरे पक्ष की बात सुनिए-
यहाँ मेरे फ्लैट के एक मचान पर दो कबूतरों ने अपना घोंसला बना लिया है। उनके बच्चे अभी छोटे हैं। वे उनको देखने दिन में कई बार आते-जाते हैं। वे घर की चीज़ों को गिराकर तोड़ देते हैं। इस रोज़-रोज़ की परेशानी से तंग आकर उस जगह पर एक जाली लगवा दी है। उनके आने जाने की खिड़की को भी बंद कर दिया गया है। अब खिड़की के बाहर दोनों कबूतर रात भर खामोश और उदास बैठे रहते हैं। अब उनकी जुवान को समझने वाली न मेरी माँ है।

नदिया सींचे खेत को, तोता कुते आम।
सूरज ठेकेदार-सा, सबको बाँटे काम॥

18. जापान में चाय पीने की एक विचित्र विधि

जापान में मनोरोगी बहुत हैं। उन पर काम का बहुत दबाव रहता है। कहते हैं-जापानियों के दिमाग में स्पीड का इंजन लगा रहता है। एक क्षण ऐसा आता है जब दिमागी तनाव इतना बढ़ जाता है और पूरा इंजन टूट जाता है। जब वहाँ के लोग चाय पीने एक विशेष कुटिया में जाते हैं। जापानी में इस चाय पीने की विधि को ‘चा-नू-यो’ कहते हैं।
आइए, आपको इस कुटिया में चाय की चुस्कियाँ लेने के लिए ले चलते हैं।

यह एक छह मंजिला इमारत है। इसकी छत और दीवारें दफ्ती से बनी हैं। नीचे तातामी (चटाई) बिछी है। बाहर बेढब-सा मिट्टी का एक बर्तन रखा है। इसमें पानी भरा है। हम हाथ-पैर धोकर कुटी के अंदर जाते हैं। अंदर ‘चाजीन’ बैठा हुआ है। वह कमर से झुककर हमारा अभिवादन करता है। वह बैठने की जगह दिखाता है। फिर वह अँगीठी सुलगाता है, उस पर चायदानी रखता है। बगल के कमरे में जाकर बर्तन ले आता है, उन्हें तौलिए से साफ करता है। उसकी ये सभी क्रियाएँ गरिमापूर्ण ढंग से की जाती हैं।

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चाय तैयार होती है। चाजीन उसे प्यालों में डालता है, फिर प्याले हमारे सामने रखे जाते हैं। चारों ओर शांति का वातावरण है। यहाँ तीन से अधिक आदमियों को प्रवेश नहीं दिया जाता। हमारे प्यालों में दो घूँट से अधिक चाय न थी। हम ओठों से प्याला लगाकर एक-एक बूँद चाय पीते रहे। करीब डेढ़ घंटे तक चाय की चुसकियों का सिलसिला चलता रहता है। दस-पंद्रह मिनट बीतते हैं। मैं उलझन में हूँ। तभी मैं अनुभव कर रहा हूँ कि मेरे दिमाग की रफ्तार धीमी पड़ती जा रही है। थोड़ी देर में बिल्कुल बंद हो गई। अब मुझे लगता है कि मैं अनंत काल में जी रहा हूँ। यहाँ तक कि मुझे सन्नाटा भी सुनाई दे रहा है। अब मेरे सामने केवल वर्तमान है, भूतकाल चला गया और भविष्यकाल अभी आया नहीं। अब मुझे मालूम हो रहा है- ‘जीना उसी को कहते हैं।’

19. विश्व शांति में भारतीय संस्कृति का योगदान

भारत वैचारिक स्तर पर सदा से एक समन्वयवादी देश रहा है। भारतीय संस्कृति में पुरूषार्थ चतुष्टय में ‘धर्म’ को पहला स्थान दिया गया है। ‘अर्थ’ को भौतिक जीवन की आवश्यकता मानते हुए भी उसे दूसरे स्थान पर रखा गया है। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषाथों का विधान करके मानव-कल्याण की सिद्धि के लिए धर्म को अपरिहार्य माना गया है। धर्म की शीतल छाया में ही अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। धर्म व्यक्ति के आचरण एवं व्यवहार की एक संहिता है जो उसके कार्यों को व्यवस्थित, संयमित एवं नियंत्रित करती है।

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वस्तुत: भारतीय ‘धर्म’ की अवधारणा अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ और अरब के ‘मज़हब’ के अर्थ से पूर्णत: भिन्न है। भारतीय संस्कृति में धर्म; जो समस्त प्राणिमात्र द्वारा धारण करने योग्य है, कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। धर्म प्रेम और करुणा का संदेश देते हुए संपूर्ण विश्व के लिए शांति और सद्भाव का मार्ग प्रशस्त करता है।

आज विश्व में जिस प्रकार का आंतरिक संघर्ष, असहयोग, भ्रष्टाचार, आतंक, धार्मिक टकराव व अशांति का वातावरण बना हुआ है। इसका मुख्य कारण यही है कि विश्व के लोग भारत की मानवतावादी और समन्वयवादी संस्कृति की मूल चेतना को समझ नहीं पा रहे हैं। भौतिकवादी विचारधारा के परिणामस्वरूप अन्याय, अत्याचार, असंतोष और विध्वंस अशांति के कारक बने हुए हैं। अज्ञानतावश धर्म और रंग-भेद, सांपदायिकता के नाम पर फैली हिंसा ने समस्त मानव जाति को इस लिया है। इन परिस्थितियों में भारतीय संस्कृति ही विश्व में शांति स्थापित करने में समर्थ है।

20. मेरी आत्मकथा

मैं टेलीफोन हूँ। मेरी ट्रिन-ट्रिन की ध्वनि सुनते ही तुम्हारे दिल में हलचल मच जाती है। रात्रि के समय मेरी घंटी सुनकर तुम घबरा जाते हो। मेरा नाम टेलीफोन है। मैं आधुनिक जीवन का आधार हूँ। यद्यपि तुम्हारे पास मोबाइल फोन भी होगा, पर जो आनंद टेलीफोन वार्ता में आता है, वह मोबाइल में कहाँ?

मुझे अपना नाम बताने में औपचारिकता लग रही है। शिशु से लेकर वृद्ध तक मुझसे भली भाँति परिचित हैं। हिंदी में मेरा नाम ‘दूरभाष’ है। मेरे सामर्ध्य ने विश्व को एक परिवार बना दिया है। मैंने व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक, कूटनीतिक, व्यावसायिक सभी संबंधों की दूरियाँ मिटा दी हैं। मैं क्षण में अपनों का मन बहलाता हूँ, उनकी उत्सुकता शांत करता हूँ, समस्या सुलझाता हूँ, चिंता दूर करता हूँ, आपका मनोरंजन करता हूँ।

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मेरा विधिवत् निर्माण ग्राहम बेल ने 1870 ई. में किया था। यही वर्ष मेरा जन्म वर्ष है। अमेरिका के टॉमस वॉटसन नामक व्यक्ति ने मेरे निर्माण में ग्राहम बेल की सहायता की थी। श्री बेल ने ब्राजील के राजा-रानी की उपस्थिति में सार्वजनिक प्रदर्शन किया। तब दर्शकों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा था।

समय के साथ-साथ मेरा रंग-रूप और आकार बदलता रहा है। अब तो मैं सुविधाजनक रूप में सहज उपलब्ध हूँ। आइए, मैं आपको अपने अंगों से परिचित करा दूँ। मेरा एक अंग रिसीवर कहलाता है। यह एक विशेष धातु से निर्मित एक पत्ती सी होती है जो डिस्क या डायफ्राम कहलाती है। इसके पीछे छोटे-छोटे कार्बन के टुकड़े होते हैं जिनमें आवाज़ से कंपन होती है। यही कंपन ध्वनि तरंगों के रूप में दूसरी तरफ तक पहुँच जाती है। रिसीवर में एक गोलाकार चुंबक होता है जो तारों से लिपटा रहता है। के माध्यम से सारी गतिविधि संचालित होती है। अभी मुझमें और सुधार होने वाले हैं।

21. एक काल्पनिक स्थिति : काश! मैं एक पक्षी होता

यह एक बड़ी ही मनोहर कल्पना है। जब-जब मैं विस्तृत आकाश में पक्षियों को उड़ान भरते देखता हैँ, तब-तब मेरे मन में भी इच्छा जागृत होती है-काश! मैं भी एक पक्षी होता!
पक्षी स्वतंत्रता का पर्याय है। स्वतंत्रता भला किसे प्यारी नहीं होती। सभी प्राणी स्वतंत्र रहना चाहते हैं। अंग्रेजी की एक कहावत है-‘Man is both free but he is everywhere in Chains.” मनुष्य स्वतंत्र रूप से पैदा होकर भी हर तरफ से परतंत्र है। मनुष्य की असीम इच्छाएँ उसे परतंत्रता का जीवन जीने को विवश कर देती हैं।

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यदि मैं मुुष्य न होकर एक पक्षी होता तो अपने मन की इच्छानुसार कहीं भी आने-जाने के लिए स्वतंत्र होता। मुझे किसी कवि की ये पंक्तियाँ बहुत आकर्षित करती हैं-

“मैं पंछी उन्मुक्त गगन का,
मेरी आकुल उड़ान में विघ न डाले।”

मैं भी उन्मुक्त गगन का पंछी बनकर वृक्षों की टहनियों पर बैठकर प्रकृति के सौदर्य का भरपूर आनंद लेता। बिना टिकट के किसी भी मैच में पहुंच जाता और उसका आनंद लेता। पक्षी के रूप में मैं वृक्षों पर लगे फलों का स्वाद सबसे पहले चखता। आम तो मेरा प्रिय फल है। जब वृक्ष आम्र मंजरियों से लद जाते तब मैं वहाँ पहुँचकर आम के फलों में चोंच मारता। पक्षी मीलों तक की लंबी-लंबी यात्राएँ करते हैं, पर सायं अपने घोंसलो मे लौट आते हैं। मेरी भी यही स्थिति होती। पक्षी सभी प्रकार की चिंताओं से पूर्णतः मुक्त होते हैं, जबकि हमारा जीवन चिंताओं के मध्य गुजरता है। मैं भी तनावमुक्त जीवन जीना चाहता हूँ। यह तभी संभव हो पाएगा जब मैं एक पक्षी बन पाऊँगा। मैं ब्रज क्षेत्र के कदंब के पेड़ों की डालियों पर बैठकर अपने प्रिय कृष्ण के दर्शन कर पाऊँगा। कवि रसखान भी तो यही चाहते थे-

“जो खग हों तो बसेरो करो, नित कूल कदंब की डारन”
काश! मेरी यह इच्छा पूरी हो पाती।

22. प्लास्टिक की दुनिया : कितनी अच्छी, कितनी बुरी

आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तनों से हमारा दैनिक जीवन बहु-सुविधाजनक बनता जा रहा है। विज्ञान अनेक नई चीजों का आविष्कार कर रहा है। प्लास्टिक का आविष्कार भी विज्ञान की देन है। आजकल प्लास्टिक का प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। प्लास्टिक के निर्माण में इथीलीन का प्रयोग किया जाता है।

प्लास्टिक के अनेक प्रकार देखने को मिलते हैं। जैसे-पॉलिस्टर, पी.वी.सी. थर्मोप्लास्टिक की चीजें। इन सभी रूपों में प्लास्टिक उपयोगी सिद्ध हो रहा है। प्लास्टिक से अनेक प्रकार की चीजों का निर्माण हो रहा है; जैसे-बर्तन, पैकिंग मैटेरियल, कलपुर्जे, पाइप, दरवाजे-खिड़कियाँ, पानी की टंकियाँ, टूटियाँ आदि। अब तो प्लास्टिक में किसी धातु का मिश्रण कर उसे लोहे से भी अधिक मजबूत और टिकाऊ बना दिया जाता है। यही कारण है कि पानी की पाइपलाइन बिछाने, सीवर लाइनों तक में प्लास्टिक के पाइपों का भरपूर प्रयोग हो रहा है। इनकी मजबूती संदेह से परे है। मशीनों के कल-पुरें भी प्लास्टिक से बनाए जा रहे हैं।

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प्लास्टिक का प्रयोग थैलियों के लिए भी हो रहा है। अब सरकार ने प्लास्टिक की पतली थैलियों तथा पान मुसाले के प्लास्टिक पाउचों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है। इन्हें रिसाइकिल नहीं किया जा सकता है। इनके प्रयोग से गंदगी तथा प्रदूषण को बढ़ावा मिल रहा है। नालियों में जाकर ये नष्ट नहीं होते। अतः हर दृष्टि से नुकसान पहुँचाते हैं।

प्लास्टिक का प्रयोग बोतलों एवं दवाओं की शीशियों के लिए भी हो रहा है। पहले काँच की बोतलों मे दवा होती थी और प्रायः इनके टूटने का डर बना रहता था। अब अधिकांश दवाएँ प्लास्टिक की बोतलों-शीशियों में ही आती हैं। अत: टूटने का डर जाता रहा है।

प्लास्टिक शीट्स भी आ रही हैं। इनका प्रयोग तिरपाल के स्थान पर किया जाता है। ये वर्षा और धूप से बचाव करती हैं तथा सस्ती भी हैं। कई जगह तो इनसे अस्थायी घर तक बना लिए जाते हैं।

निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि प्लास्टिक दुनिया पर छाता चला जा रहा है। यह बहुउपयोगी वस्तु है। यह सस्ता एवं टिकाऊ है। प्लास्टिक के विविध रूप है और इनके विविध उपयोग है। अब प्लास्टिक हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है।

23. यदि भारत-पाक युद्ध छिड़ जाए

पाक यानी पाकिस्तान भारत का पड़ोसी देश है। वह पड़ोस का धर्म निबाहना नहीं जानता। उसके द्वारा प्रायोजित आतंकवादी हरकतें भारत को युद्ध के लिए उकसाती रहती हैं। यह तो हमारा देश भारत ही है कि असीम संयम का परिचय देता रहा है। पाकिस्तान कश्मीर क्षेत्र में अपने आतंकवादियों को निरंतर घुसाने का प्रयास कर हमले करवाता रहता है। इस स्तिथि से भारत सरकार, भारतीय सेना तथा भारत के स्वतंत्रता प्रेमी नागारिक आक्रोशित रहते हैं। देश के कोने-कोने से पाकिस्तान को सबक सिखाने की माँग प्रवलता के साथ उठती रहती है। आखिर सब्र करने की भी एक सीमा होता है। दिनकर जी ने कहा भी है-

‘क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो’

भारत-पाक युद्ध की संभावना हर समय बनी रहती है। दोनों देश परमाणु शक्ति सम्पन्न हैं। युद्ध का परिणाम सदैव विनाशकारी होता है। हजारों-लाखों नागरिकों एवं सैनिकों की जानें चली जाती हैं, प्रगति का चक्का रूक जाता है, देश आर्थिक दृष्टि से बर्बाद हो जाता है। पर कई बार युद्ध अपरिहार्य हो जाता है। भारत ने पाक को कई युद्धों में धूल चटाई है, पर पाक है कि मानता नहीं।

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अब की बार यदि भारत पाक युद्ध छिड़ गया तो दुनिया के नक्शे से पाकिस्तान का नामोनिशान मिट जाएगा। अब का युद्ध निर्णायक होगा। कोई समझौता नहीं होगा। अब के युद्ध आर पार का होगा। इस युद्ध के बाद कश्मीर कोई समस्या नहीं रह जाएगा। इसके बाद तो पूरा कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन जाएगा। इस युद्ध से राष्ट्र-विरोधी शक्तियाँ भी बेनकाब हो जाएँगी। उन्हें अपनी औकात का पता चल जाएगा। अब तक उन्होंने भारत की काफी जड़ें खोद डाली हैं, उन्हें इस दुस्साहस की सज्ञा भुगतनी होगी। विश्व में भारत की शक्ति और शांतिप्रियता का डंका बजा उठेगा। भारत विश्व विजयी बनकर एक नई ताकत के रूप में उभरेगा। तब पाकिस्तान कहीं का नहीं रहेगा। उस समय उसे अपनी हरकतों पर पछताने के सिवाय कुछ शेष नहीं रहेगा। काश! पाकिस्तान समय रहते चेत आए और अपनी घिनौनी हरकतों से बाज आ जाए, ताकि यह युद्ध टल जाए।

24. यदि मैं राज्य का मुख्रमंत्री होता

जब-जब मैं अपने देश की दुर्दशा पर गंभीरतापूर्वक विचार करता हूँ, तो मेरा हृदय असीम वेदना एवं पीड़ा से भर उठता है। तब मैं विचार करता हूँ कि मैं अपने देश में मुख्यमंत्री पद पर आसीन होकर अपने राज्य में महत्त्वपूर्ण सुधारों द्वारा अपने देश में परिवर्तन ला सकूँ। मुझे मालूम है, यह काँटों भरा ताज है इसे पहनना इतना आसान नही, जितना कहना। मैं यह भी जानता हूँ कि यह मुझे मिलने वाला नहीं, पर मन की कल्पना की उड़ान पर किसका वश चलता है।

यदि मैं अपने राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त हो जाऊँगा तो सबसे पहले अपने मंत्रिमंडल में सुयोग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों को शामिल करने पर ध्यान दूँगा। मैं किसी गुटबंदी या भाई-भतीजावाद को ताक पर रखकर निष्पक्ष रूप से अपने सहयोगियों का चुनाव करूँगा ताकि देश के नव-निर्माण का दयित्व योग्य मंत्रियों को सौंपा जा सके। इस मामले में मैं अपने व्यक्तिगत संबंधों व आलोचनाओं पर भी ध्यान नही दूँगा। मुझे अपने राज्य के संपूर्ण विकास के लिए कार्य करना है जिसके लिए मंत्रियों को स्वतंत्र व स्वेच्छा पूर्ण कार्य करने का आह्वान नियमित रूप से करता रहूँगा। मुख्यमंत्री के रूप में मेरे कार्य की प्राथमिकताएँ इस क्रम में होंगी-राज्य में कानून व व्यवस्था कायम करना, अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा, कृषि व उद्योगों का विकास, बेरोजगारी पर नियंत्रण पाना, स्वास्थ्य व जल व्यवस्था का प्रबन्ध, बिजली व सड़कों का निर्माण, आयात-निर्यात को बढ़ावा, प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष करों को व्यावहारिक बनाना,लघु उद्योगों का निर्माण इत्यादि।

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राज्य में बढ़ते आतंकवाद व भ्रष्टाचार पर मेरी पैनी निगाह होगी क्योंकि इस तरह की भ्रष्टाचारी प्रवृत्तियाँ मेरे राज्य के विकास पर रोक लगा सकती हैं जिसके कारण मेंरे राज्य का विकास रूक सकता है इसलिए मुझे पुलिस-व्यवस्था की सर्तकता को बढ़ाना होगा, उनके कार्य व मनोबल द्वारा ही समस्या का निवारण करना होगा।

हमारे देश में बेरोजगारी की समस्या भी एक गंभीर समस्या है। इस समस्या से प्रत्येक राज्य चपेट में है। बेरोजगार युवक-युवतियों को देखकर मुझे अपने देश की शिक्षा-प्रणाली की निरर्थकता का आभास होने लगता है। हम दावे तो बहुत करते हैं, जबकि वास्तविकता उससे कोसों दूर है। मैं ड़न बेरोजगारों को लघु और कुटीर उद्योग लगाने के लिए प्रेरित करूँगा, ताकि वे स्वावलंबी बन जायें।

गरीबी दूर करने का कार्यक्रम यद्यपि हर सरकार के एजेंड़े में रहता है, पर मैं इसे गंभीरता से लेता रहूँगा और लोगों का भोजन, कपड़ा और आवास जैसी बुनियादी सुविधाएँ जुटाने का हर संभव प्रयास करूँगा। गो जज्य में कोई भी भूख से नहीं मरेगा। किसान-मजदूरों की दशा सुधारने पर मेरा विशेष बल होगा। बाल-दासता और बंधुआ मजदूरी को म किसी भी कीमत पर नहीं चलने दूँगा। काश! मैं अपने राज्य का मुख्य मंत्री शीघ्र बन जाऊँ।

25. मनन करने योग्य एक प्रेरक स्थिति

पाण्डव लाक्षागृह से बच निकले और अपने को छिपाकर एकचक्रा नगरी में एक ब्राहलण के घर जाकर रहने लगे। उस नगरी में वक नामक एक बलवान् राक्षस रहता था। उसने ऐसा नियम बना रखा था कि नगर के प्रत्येक घर से नित्य बारी-बारी से एक आदमी उसके लिये विविध भोजन-सामग्री लेकर उसके पास जाये। वह दुष्ट अन्य सामग्रियों के साथ उस आदमी को भी खा जाता था। जिस ब्राहण के घर पाण्डव टिके थे, एक दिन उसी की बारी आ गयी। ब्राह्मण के घर कुहराम मच गया। ब्राहाण, उसकी पली, कन्या और पुत्र अपने-अपने प्राण देकर दूसरे तीनों को बचाने का आग्रह करने लगे। उस दिन धर्मराज आदि चारों भाई तो भिक्षा के लिये बाहर गये थे। डेरे पर कुन्ती और भीमसेन थे। कुन्ती ने सारी बातें सुनीं तो उनका हदय दया से भर गया। उन्होंने जाकर ब्राहगण-परिवार से हँसकर कहा-‘ महाराज! आप लोग रोते क्यों हैं। जरा भी चिन्ता न करें। हम लोग आपके आश्रय में रहते हैं। मेंेे पाँच लड़के हैं, उनमें से एक लड़के को मैं भोजन-सामग्री देकर राक्षस के यहाँ भेज दूँगी।

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ब्राह्मण ने कहा-‘माता! ऐसा केसे हो सकता है? आप सब हमारे अतिथि हैं। अपने प्राण बचाने के लिये हम अतीथि का प्राण लें, ऐसा अधर्म हमसे कभी नहीं हो सकता। कुन्ती ने समझाकर कहा-‘पण्डितजी! आप जरा भी चिन्ता न करें। मेरा लड़का बड़ा बली है। उसने अब तक कितने ही राक्षसों को मारा है। वह अवश्य इस राक्षस को भी मार देगा। फिर मान लीजिये, कदाचित् वह न भी मार सका तो क्या होगा। मेरे पाँच में चार तो बच ही रहेंगे। हम लोग सब एक साथ रहकर एक ही परिवार के से हो गये हैं। आप वृद्ध हैं, वह जवान है। फिर हम आप के आश्रय में रहते हैं। ऐसी अवस्था में आप वृद्ध और पूजनीय होकर भी राक्षस के मुँह में जायें और मेरा लड़का जवान और बलवान् होकर घर में मुँह छिपाये बैठा रहे, यह केसे हो सकता है?’

ब्राहणण-परिवार ने किसी तरह भी जब कुन्ती का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया, तब कुन्ती देवी ने कहा कि ‘भुदेव! आप यदि नहीं मानेंगे तो भी मेरा पुत्र आपको बलपूर्वक रोककर चला जायगा। मैं उसे निश्चय ही भेजूँगी और आप उसे रोक नहीं सकेंगे।

तब लाचार होकर ब्राहण ने कुन्ती का अनुरोध स्वीकार किया।
माता की आज्ञा पाकर भीमसेन बड़ी प्रसनता से जाने को तैयार हो गये। इसी बीच युधिष्ठिर आदि चारों भाई लौटकर घर पहुँचे। युधिष्ठिर ने जब माता की बात सुनी, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने माता को इसके लिये उलाहना दिया। इस पर कुन्ती देवी बोलीं-‘युधिष्ठिर ! तू धर्मात्मा होकर भी इस प्रकार की बातें केसे कह रहा है? भीम के बल का तुझको भलीभाँति पता है, वह राक्षस को मारकर ही आयेगा; परंतु कदाचित् ऐसा न भी हो, तो इस समय भीमसेन को भेजना ही क्या धर्म नहीं है? ब्राहल, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र-किसी पर भी विपत्ति आये तो बलवान् क्षत्रिय का धर्म है कि अपने प्राणों को संकट में डालकर भी उसकी रक्षा करे।

धर्मराज युधिष्ठिर माता की धर्मसम्मत वाणी सुनकर लज्जित हो गये और बोले-‘माताजी! मेरी भूल थी। आपने धर्म के लिये भीमसेन को यह काम सौपकर बहुत अच्छा किया है। आपके पुण्य और शुभाशीवर्द से भीम अवश्य ही राक्षस को मारकर लौटेगा। तदनन्तर माता और बड़े भाई की आज्ञा और आशीर्वाद लेकर भीमसेन बड़े ही उत्साह से राक्षस के यहाँ गये और उसे मारकर ही लौटे।

26. देश में बलात्कार की बढ़ती घटनाएँ

गत 5-6 वर्षों में देश के विभिन्न भागों में बलात्कार की घटनाओं की बाढ़ सी आ गई है। दिसंबर 2012 को दिल्ली के वसंत विहार क्षेत्र में घटी घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। इसमें पीड़िता के साथ अमानवीय व्यवहार को सुनकर भी रुह काँप उठी थी। पीड़िता ने लंबे जीवन-संघर्ष के बाद दम तोड़ दिया था। इसके बाद भी बलात्कार की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई। इसके विपरीत अब प्रतिदिन कहीं-न-कहीं ऐसी घटना घटती रहती है। इसका कारण है कि न्याय मिलने की प्रक्रिया लंबी एवं दोषपूर्ण है। बलात्कारी के लिए उतने कठोर दंड की व्यवस्था नहीं है जितना होना चाहिए। कई बार तो बलात्कारी नाबालिग होने का लाभ उठा जाता है। इस विषम स्थिति ने देश के जन-मानस को इस समस्या पर गंभीरतापूर्वक सोचने को विवश कर दिया है।

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कई बार तो छोटी-छोटी बच्चियों के साथ रेप की सूचना मिलती है। ऐसा मानसिक रोगी ही कर सकते हैं। अनेक मामलों में पीड़िता के रिश्तेदार और परिचित मित्र ही निकलते हैं। इस घिनौने अपराध ने हमारे समाज को कलंकित कर दिया है।

हमारी सरकार भी इसके प्रति उतनी गंभीर और संदे दनशील नहीं है, जितनी होनी चाहिए। किसी घटना पर अफसोस जताकर या निंदा करने मात्र से समस्या का हल नहीं निकलता। इसके लिए त्वरित और दीर्घकालिक योजना बनानी होगी।

बलात्कार की घटनाओं पर रोक लगाने में पुलिस की भूमिका पर अनेक प्रश्न उठते रहे हैं। हमारी पुलिस उतनी मुस्तैद नहीं है अथवा जान-बुझकर कर्तव्य का पालन करने में कोताही बरतती है। उसकी जवावदेही तय होनी चाहिए। पुलिस तो बलात्कार के केस को रजिस्टर्ड करने तक में आनाकानी करती है। कई बार वह थाना क्षेत्र में केस को टरका देती है। पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार भी इस पर पाबंदी लगाने में ढील बरतता है। बलात्कार रोकने में पुलिस को जिम्मेदार बनाना होगा।

पुलिस के साथ-साथ समाज को भी अपने कर्तव्य के बारे में पुनः सोचना होगा। इस प्रकार की प्रवृत्ति क्यों विकसित हो रही है, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा। टी.वी. और सिनेमा में परोसी जाने वाली हिंसा और कामुकता भी इसके लिए जिम्मेदार है। सिनेमा में सैक्स का खुला प्रदर्शन हो रहा है। इसका युवा वर्ग पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। आजकल का बढ़ता फैशन नग्लता को बढ़ावा दे रहा है। इससे भी बलात्कारी प्रवृत्ति का बढ़ावा मिलता है। माँ-बाप को अपने बच्चों को नैतिकता की शिक्षा देनी होगी। पाश्चात्य संस्कृति के प्रति बढ़ता झुकाव युवा वर्ग को गलत दिशा में ले जा रहा है। स्कूलों में भी नैतिक शिक्षा को बढ़ावा देना होगा।

इन सब उपायों के अतिरिक्त सरकार को कड़े दंड के कानून बनाने होंगे। जुवेनियल की आयु भी घटानी होगी। रेप के केसों का निपटान फास्ट ट्रैक कोर्ट के माध्यम से एक निश्चित समय-सीमा में किया जाना चाहिए। बलात्कार को पुनः परिभाषित करने की भी आवश्यकता है। रेप की घटनाओं पर त्वरित कार्रवाई होनी चाहिए। लोग तो इसके लिए मृत्युदंड तक की माँग कर रहे हैं। कड़ा दंड तो मिलना ही चाहिए।

27. समुद्री प्रदूषण का खतरा

सदियों से समुद्र और मानवीय जीवन का एक गहरा रिश्ता रहा है, लेकिन पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार-अब यह रिश्ता धीरे-धीरे अपनी मजबूती खो रहा है, समुद्र को हमने एक तरह से दुनिया का ऐसा सबसे बड़ा कूड़ादान समझ लिया है, जिसमें कुछ भी फेंका और बहाया जा सकता है, लेकिन हमारे द्वारा किए गए सभी कृत्यों का अंकन उसके बही-खाते में दर्ज हो रहा है और इसका परिणाम यह हो रहा है कि कभी हवा, तो कभी बारिश के सहारे यह कूड़ा हमारे ही पास वापस आ रहा है।

वास्तव में हमारा जीवन समुद्र से जुड़ा हुआ है, अगर हम आज समुद्र को संरक्षित नहीं करेंगे, तो कल उसके दुष्परिणाम हमें ही भुगतने पड़ेंगे। हम सभी यह जानते हैं कि कृषि और हमारे जीवन के लिए पानी बहुत जरूरी है। जब यह पानी बारिश के रूप में आता है, तो हम सीधे समुद्र से प्रभावित होते हैं।

हम लोग इस बात को ठीक तरह से समझ नहीं पाते कि जंगल और समुद्र का इतना जुड़ाव है कि समुद्र के वातावरण में पनपा किसी भी प्रकार का असंतुलन हमारे जंगलों को भी खत्म कर देगा; क्योंकि प्रदूषित समुद्र बारिश के रूप में हमें भारी नुकसान पहुँचा सकता है। हम कितना स्वच्छ पानी फैक्टरी में तैयार कर पाएँगे-यह तो बाद की बात है, लेकिन पानी का मुख्य स्रोत तो बारिश ही है न।

जलवायु-परिवर्तन की बात करते समय भी यह भूल जाते हैं कि कार्बन पृथक्करण सबसे ज्यादा समुद्र में होता है, जंगल में नहीं हम पेड़ लगाने की बात करते हैं; क्योंकि स्वच्छ हवा के लिए यह जरूरी है, लेकिन सबसे ज्यादा ऑक्सीजन का उत्पादन तो समुद्र में होता है।

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हमने अपनी किताबों में इतना ही पढ़ा है कि पेड़ लगाओ, पेड़ हमें ऑक्सीजन देता है, लेकिन स्कूलों में हमें यह कभी नहीं सिखाया और बताया कि हमें पेड़ की तुलना में समुद्र से ज्यादा ऑक्सीजन प्राप्त होती है और यह ऑक्सीजन हमें तभी प्राप्त होगी, जब हम उसे साफ ओर स्वच्छ रखेंगे, उसमें अम्लीयता नहीं बढ़ने देंगे।

वर्तमान में समुद्र के प्रदूषण से जन्मे कई दुष्प्रभाव हमारे सामने हैं। बिना समुद्र के इस पृथ्वी पर कोई जीवन नहीं रहेगा। हम जो भी पानी पी रहे हैं, उसमें बारीक कचरे घुले-मिले हैं और हमारे घरों, मुहल्लों और शहरों से जो पानी नालियों आदि से नदियों तक और फिर समुद्र तक जा रहा है, इसके परिणाम की आशंका से यह दुनिया सिहरने लगी है। इससे संबंधित उदाहरण भी आए दिन देखने को मिल रहे हैं और इन सब परिस्थितियों के लिए हम ही जिम्मेदार हैं।

समुद्र में प्लास्टिक पहुँचने का प्रमुख कारण शहरों के नदी-नालों के कचड़ों का सीधे समुद्र में मिल जाना है। ऐसा अनुमान है कि प्रत्येक वर्ष 13 मिलियन टन प्लास्टिक समुद्र के पानी में मिल जाती है। एक अध्ययन में यह भी पाया गया है कि 20 नदियाँ (ज्यादातर एशिया की) दुनिया का दो-तिहाई प्लास्टिक अवशिष्ट समुद्र में लें जाती हैं। इसमें गंगा नदी भी शामिल है। हमें इस प्रदूषण को रोकने के उपाय करने होंगे।

28. बाल मजदूरी : समाज का कलंक

‘बाल मज़दूरी’ हमारे समाज के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है। यद्यपि पिछले दशक से ही बाल मज़दूरी के विरुद्ध आवाज़ उठ रही है और ‘बचपन बचाओ’ आंदोलन अत्यंत सक्रियता से चल रहा है, पर फिर भी यह समस्या इतनी छोटी और सरल नहीं, जितना यह प्रतीत होती है। आइए, हम इसके स्वरूप एवं इससे होने वाली हानियों के बारे चर्चा कर लें।

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हम देखते हैं, बच्चों को घरेलू नौकर के रूप में रखा जाता है। वहाँ उनका भरपूर शोषण किया जाता है। उन्हें शिक्षा से वंचित किया जाता है तथा नाम-मात्र का वेतन देकर सीमा से अधिक श्रम कराया जाता है। इसके साथ-साथ शारीरिक रूप से दंडित भी किया जाता है। इसी प्रकार कल-कारखानों में बाल श्रमिकों की संख्या बहुत अधिक है। वहाँ उन्हें अत्यंत शोचनीय वातावरण में काम करने को विवश किया जाता है। गलीचे बुनना, चूड़ियाँ बनाने, आतिशबाज़ी का सामान बनाने आदि श्रमसाध्य कार्यों में बाल श्रमिकों का जमकर दोहन किया जाता है। उन्हें अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। होटल और ढाबों में बच्चों को काम करते देखा जा सकता है।

अब प्रश्न उठता है कि लोग बच्चों से मज़दूरी क्यों करवाते हैं? ये बच्चे मजदूरी करते क्यों है? पहले प्रश्न का उत्तर है कि बच्चों को कम मज़दूरी देनी पड़ती है। एक मज़दूर की तनख्वाह में दो बाल श्रमिक रखे जाते हैं। बालक कोई समस्या भी पैदा नहीं करते और चुपचाप काम करते हैं। अब प्रश्न उठता है कि ये बालक मज़दूरी करते क्यों हैं? इनके माँ-बाप की आय इतनी नहीं है कि ये घर का पूरा खर्च उठा सकें। उनके लिए बच्चे कमाई का साधन हैं। वे शिक्षा का महत्व नहीं समझते अतः वे बच्चों को स्कूल भेजने की अपेक्षा काम पर भेजने में ज्यादा रुचि लेते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि बाल मज़दूरी के कारण क्या-क्या बुराइयाँ पनप रही हैं। बच्चों की मज़दूरी रोक दी जाए तो लाखों बेरोज़गारों को रोज़गार मिलेगा। इनके हटने पर लोगों को इनकी जगह नौकरी पर रखा जाएगा, अत: बेरोजगारी की समस्या पर कुछ मात्रा में काबू पाया जा सकेगा।

बाल मज़दूरी के कारण अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सका है। इसको बंद कर देने पर इन बच्चों को स्कूलों में भेजने के लिए विवश किया जा सकेगा। यद्यपि प्रारंभ में इसमें अनेक कठिनाइयाँ आएँगी, पर इन पर काबू पाना कठिन तो है, असंभव कतई नहीं है। इसके दूरगामी प्रभाव होंगे। इन बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बन सकेगा। अभी वे इसका महत्व भले ही न समझ पा रहे हों पर बाद में उन्हें यह समझ आ जाएगा। कारखाने के मालिक अवश्य इसमें रोड़ा लगाना चाहेंगे क्योंकि इससे उनका मुनाफा घटेगा। अभी तक वे बाल श्रमिकों का हिस्सा दबाकर रखते थे। अब उन्हें यह हिस्सा बड़े आयु के मज़दूरों को देना पड़ेगा।

बाल मज़दूरी एक सामाजिक कलंक है। इसे धोना आवश्यक है। बच्चों का भविष्य दाँव पर नहीं लगाया जा सकता। हमें उनके बारे में अभी सोचना होगा। ‘बचपन बचाओ’ आंदोलन को पूरी ईमानदारी के साथ लागू करना होगा।

29. दूरदर्शन की दुनिया

दूरदर्शन अर्थात् टेलीविजन एक ऐसा जनसंचार माध्यम है जिसने पूरी दुनिया को अपने सम्मोहन में बाँध रखा है। यह एक दृश्य-श्रव्य माध्यम है, जिसे हम देखते भी हैं और सुनते भी हैं। यह एक ऐसा चमत्कारी माध्यम है जिसका जादू दर्शकों के सिर पर चढ़कर बोलता है। आज सारी दुनिया इस जादुई माध्यम से अमिभूत है।

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इसका उद्भव 1926 ई. में हुआ जब जॉन लॉगी बेयर्ड ने पहली बार टेलीविजन का प्रदर्शन किया। युनेस्को की एक विशेष परियोजना के अंतर्गत 15 सितंबर, 1959 को दिल्ली में पहले टेलीविजन केंद्र की स्थापना की गई। अब उपग्रहों की सहायता से दूरदर्शन पूरे भारत में फैल गया है। अब तो दूरदर्शन पर सैकंडों चैनल अपने-अपने कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं। इस माध्यम की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  • दृश्य-श्रव्य माध्यम
  • वर्तमान माध्यम
  • अंतरंग माध्यम
  • क्लोजअप का माध्यम।

इसमें चलते-फिरते दृश्यों की भरमार होती है। टेलीविजन हमें यह अहसास दिलाता है कि वह जो भी दिखा रहा है, वह परदे के पीछे उसी समय घटित हो रहा है। आज टेलीविजन हमारे ड्राइंग रूम में ही नहीं, हमारे बेडरूम में भी प्रवेश कर गया है। इसमें चमक-दमक और मसालेदार कार्यक्रम परोसे जाते हैं।

टेलीविजन के छोटे परदे पर जो कुछ भी दिखाया जाता है, वह केमरे की आँख से दिखाता जाता है। टेलीविजन में क्लोज अप सिस्टम है। इसमें कैमरा किसी चीज को नजदीक से दिखाता है। यह छोटे से छोटे भाव को पकड़ लेता है। टेलीविजन चौबीसों घंटे कई प्रकार के कार्यक्रम दिखाता है। इनमें सूचना, शिक्षा और मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं। अब तो दूरदर्शन पर समाचारों की बाढ़-सी आई रहती है। आज टेलीविजन समाचारों के अतिरिक्त मनोरंजन का पर्याय बन गया है। अधिकांश लोग मनोरंजन के लिए टेलीविजन के कार्यक्रम देखते हैं। टेलीविजन में विज्ञापन का अपना महत्त्व है।

30. स्वस्थ शरीर में ही सार्थक जीवन का रहस्य छिपा है

मनुष्य रूप में जीवात्मा अपने विवेक, सूझ-बूझ व सत्कार्यों से सार्थक जीवन जी कर अन्य लोगों के लिए रोल मॉडल बन सकता है और अपना भविष्य और परलोक दोनों सुधार सकता है। लेकिन सभी कार्य सुचारू तौर पर निभाने के लिए शरीर को स्वस्थ और मन को प्रफुल्लित रखना होगा। तन व्याधिग्रस्त हो या मस्तिष्क तनावग्रस्त हो तो ध्यान, पूजा-अर्चना भी भलीभाँति और मनोयोग से नहीं होगी। इन्हें फलदायी बनाने के लिए शारीरिक स्पूर्ति और मानसिक एकाग्रता, समर्पित भाव और ग्राही मुद्रा आवश्यक हैं। दूसरी बात, मन और शरीर एक दूसरे पर पूर्ण रूप से निर्भर हैं। एक के अस्वस्थ रहने पर दूसरा स्वस्थ नहीं रह सकतत। प्रबंधशास्त्र में पिछले तीन दशकों से लोकप्रिय न्यूरो लिख्विस्टिक प्रोग्रामिंग की भी आधारभूत मान्यता है कि शरीर और मन एक ही अस्मिता के दो पाट हैं। किसी वस्तु की अनुपस्थिति में उसकी अहमियत का विशेष अहसास होता है। जैसे पतझड़ में भूमि पर गिरे पुष्प-पत्तों को देखकर तनिक मलाल होता है कि एक समय ये पेड़ कितने सुंदर थे। डॉ. थॉमस फुल्लर ने कहा है-अच्छे स्वास्थ्य की भूमिका का अहसास हमें तब होता है जब बीमारी लग जाती है।

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आध्यात्मिक रूप से सुदुढ़ और स्वस्थ व्यक्ति को ईश्वरीय शक्ति का संबल निंरत उपलब्ध रहता है। इसीलिए वह ऐसा अलौकिक कार्य निष्षादित करने में समर्थ होता है जिन्हें साधारण बुद्धि नहीं समझ सकती। शरीर नश्वर है, कालांतर में इसका क्षेण होना तय है। मनुष्य का असल स्वरूप शुद्ध आत्मा है, जो उसे परमात्मा से निरंतर जोड़े रहती है, जिसके हम अभिन्न अंश हैं। सृष्टि के आरंभ में सभी वस्तुओं का स्वरूप शुद्ध आध्यात्मिक था। संसार में जो भी मौजूद है, उसके अमूर्त मॉडल पहले से आध्यात्मिक लोक में विद्यमान बताए गए हैं। अनंत क्षेत्र में व्यापक ब्रहांड ही हमारा स्थायी ठौर है, जहाँ हम मानसिक स्तर पर विचरण करते हैं, वर्गफुट तक परिसीमित फ्लैट में नही। आकलन यह करना होगा कि उस मानसिक ड्राइंग रूम को हम कितना सुसज्तित और विद्वेष भावों से मुक्त रखते हैं।

31. हिंदी की संवैधानिक स्थिति

स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व हमारे देश के महान विचारकों, समाज-सुधारकों और राजनेताओं ने हिंदी को राष्ट्रभाषा की संज्ञा दी थी। भारत में हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या सर्वाधिक है। 1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ तो हमारे राष्ट्रीय कर्णंधरों ने इसे संविधान से राजभाषा का दर्जा देकर गौरवान्वित किया।
संविधान सभा का गठन सन् 1946 में हुआ था। उस समय इसने निर्णय लिया था कि सभा के काम काज की भाषा हिंदुस्तानी अथवा अंग्रेजी होगी। उस समय दो वर्ग बन गए थे-(i) हिंदी समर्थक (ii) हिंदुस्तानी समर्थक।
बाद में 14 जुलाई, 1947 को हिंदुस्तानी के स्थान पर ‘हिंदी’ शब्द रखा गया। काफी वाद-विवाद के बाद 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया।
संविधान के अनुच्छेद 343 के खंड (1) में देवनागरी लिपि में लिखित हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। खंड (2) में संविधान के लागू होने के 15 वर्ष तक की अवधि तक सरकारी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के प्रयोग की छूट भी दी गई।

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संघ की राजभाषा का स्वरूप केसा हो? इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है-

  • राजभाषा हिंदी के विकास और प्रसार की जिम्मेदारी संघ सरकार को सौंपी गई है।
  • यह भारत की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम बने।
  • आवश्यकतानुसार यह अपने विकास के लिए मुख्य रूप से संस्कृत और गौण रूप से अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करे।

संविधान के अनुच्छेद 343 खंड (3) के अधीन राजभाषा अधिनियम 1963 पारित किया गया। इसमें अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखा गया। इस अधिनियम का संशोधन 16 दिसंबर, 1967 को पारित हुआ। इसके अनुसार सरकारी कार्यालयों से जारी इस्तावेजों में हिंदी और अंग्रेजी को अनिवार्य रूप से प्रयोग करने की व्यवस्था की गई। बाद में ‘राजभाषा नियम 1976’ बनाया गया।

इसके अंतर्गत ‘ केन्द्रीय हिंदी समिति’, ‘हिंदी सलाहकार समिति’ और ‘राजभाषा कार्यान्वयन समिति’ का गठन किया गया। हिंदी अपनी सार्वदेशिक प्रकृति के कारण अन्य भारतीय भाषाओं के सहयोग से ऐसा स्वरूप धारण करती जा रही है जो समूचे भारत की संपर्क भाषा के रूप में भूमिका निभाएगी। यह देश की सामाजिक संस्कृति को अभिव्यक्त करने में समर्थ होगी।

32. पटकथा लेखन

समाचारपत्र हो या वृत्ताचित्र, धारावाहिक हो या गीत-संगीत के कार्यक्रम-सभी के लिए पटकथा लेखन की आवश्यकता होती है। यद्यपि प्रत्येक टेलीविजन विधा, यथा-समाचार, वृत्तचित्र, गीत-संगीत के कार्यक्रम, चैट शो, एंकरिंग, जॉकी (सूत्रधार), विज्ञापन की अपनी-अपनी माँग होती है, पर टेलीविजन की पटकथा की अपनी कुछ शर्ते हैं-

  • किस्सागो बनिए
  • केमरे की नज़र से देखिए
  • चित्रों को बोलने दीजिए

पटकथा में घटनाओं को घटित होता हुआ और पात्रों को बोलता हुआ दिखाया जाता है। लेखक को दृश्य-श्रृव्य कल्पना करनी चाहिए अर्थात् उसे अपने मस्तिष्क में घटनाओं को घटित होते हुए देखना चाहिए। कल्पना को किस्सागो बनकर बेहतरीन ढंग से पटकथा में ढाला जा सकता है।

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पटकथा का एक उदाहरण देखिए :

“एक राजा होता है। वह अपने दरबार में बैठा है। दरबार राजकुमारों और मंत्रियों से भरा है। तभी वहाँ एक बुढ़िया का ‘दुहाई महाराज की … दुहाई महराजा की’ कहते हुए प्रवेश होता है।”
पटकथा में कथा वाली शैली नहीं चलती।

पटकथा लिखते समय पहले दृश्य और संवादों की कल्पना कर लेनी चाहिए और फिर उसे कागज़ पर उतार लेना चाहिए। पटकथा में केमरे की दूरी को भी बताना जरूरी है जैसे नजदीक के लिए क्लोज शॉट; मध्यम दूरी के लिए ‘किड शॉट’ और दूर से दिखाए जाने वाले दृश्य को ‘लाँग शॉट’ कहते हैं। पटकथा की अनिवार्य शर्त है-

तस्वीरों को बोलने दीजिए, खुद कम बोलिए।
पटकथा- लेखन का कोई निश्चित सिद्धांत नहीं है।

पटकथा को कई दृश्यों में विभाजित किया जाता है। पटकथा में कथा को दृश्यों में तोड़कर प्रस्तुत किया जाता है। एक बार मैं केमरा जो कुछ दिखाता है, उसे एक दृश्य माना जाता है। दृश्य का पूरा विवरण पटकथा में अवश्य लिखा होना चाहिए।

पटकथा में ‘आइडिया’ का बड़ा महत्त्व होता है।
पटकथा की रूपरेखा को मीडिया की भाषा में स्टेप आउटलाइन’ कहते हैं। इसके बाद ही पूरी पटकथा लिखी जाती है।

33. मेट्रो स्टेशन

यह राजीव चौक, नई दिल्ली का मेट्रो स्टेशन है। मैं यहाँ पर जनकपुरी से आने वाली मेट्रो से उतरा हूँ। अब मुझे चाँदनी चौक की ओर जाने वाली मेट्रो ट्रेन पकड़नी है। यह इंटरचेंज मेट्रो स्टेशन है। यहाँ भारी भीड़ है। लोग ट्रेन से उतर-चढ़ रहे हैं। कुछ लोग टोकन लेने की खिड़की पर लाइन में खड़े हैं। वहाँ से टोकन लेकर वे निर्धारित स्थान पर टोकन टच करके आगे बढ़ रहे हैं। लोग आगे बढ़ते चले जा रहे हैं। वैसे चारों ओर शांत वातावरण है। कहीं कोई रेलमपेल नहीं है। यह दफ्तर का समय है। अत: यात्रियों की संख्या अधिक है। प्लेटफार्म साफ-सुथरा है, कहीं गंदगी का नामोनिशान तक नहीं है। प्लेटफॉर्म के एक कोने में कॉफी शॉप है। लोग वहाँ से कॉफी लेकर पी रहे हैं, कुछ लोग स्नैक्स भी ले रहे हैं। प्रायः यात्रियों के कंधों पर बैग लटके हुए हैं। कुछ यात्री अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। कुछ लोग लिफ्ट से भी आ रहे हैं। मेट्रो ट्रेन वातानुकूलित है। अतः सभी यात्री तरोताजा दिखाई दे रहे हैं। मेट्रो संचालन का पूरा काम व्यवस्थित ढंग से चल रहा है।

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34. बस स्टॉप का दृश्य

यह मोतीनगर का बस स्टॉप है। यहाँ बस टर्मिनल भी है। अतः बसों का आना-जाना लगा हुआ है। कुछ बसें पटेलनगर की तरफ से आ रही हैं तो कुछ जखीरे की तरफ से। राजागार्डन से भी बसें आ रही हैं। सभी बसे पूरी तरह भरी हुई हैं। कई यात्री आधा-आधा घंटे से अपनी इच्छित बस की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे डी.टी.सी. की बस-सेवा को कोस रहे हैं। कुछ जेबकतरे भी अपने धंध की फिराक में किसी बस में चढ़ते हैं तो आगे के गेट से उतर जाते हैं।

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बूढ़े आदमियों और स्त्रियों की दशा सबसे ज्यादा खराब है। बस तो आती है, पर ये लोग उसमें चढ़ नहीं पाते हैं। लोग उन्हें प्रवेश द्वार तक पहुँचाने ही नहीं दे रहे। कुछ फैशनेबल महिलाएँ अपने बालों और वेशभूषा को सँवार रही हैं। वे बेफिक्र दिखाई दे रही हैं। मुझे 817 न. बस पकड़कर चाँदनी चौक जाना है। यह बस नजफगढ़ से ही भर कर चलती है। यदि कोई सवारी यहाँ उतरेगी तो मुझे बस में जगह मिल पाएगी। मैं हिम्मत बनाकर खड़ा हुआ हूँ। देखो, मेरी बस कब आती है ?

35. यज्ञशाला में नमाज

एक बार हकीम अजमल खां, डॉ. अंसारी तथा उनके कुछ और मुस्लिम मित्र स्वामी श्रद्वानंद से मिलने गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्lार पहुंचे। स्वामी जी ने उनका यथोचित सत्कार किया। फिर उन्होंने अपने एक प्रमुख शिष्य से कहा कि वह अतिथियों के भोजनादि की थ्यवस्था देखे। शिष्य ने व्यक्तिगत रूप से सभी अतिधियों को प्रेम से भोजन कराया। भोजनादि से निवृत्त होने के बाद अतिथियों ने पुनः स्वामी जी से मिलने की इच्छा जताई ताकि उनसे बातचीत हो सके।

उस समय स्वामी जी यज्ञाला में थे। उनके तमाम शिष्य वहां उपस्थित थे। वहां हवन आदि कार्य चल रहे थे। हकीम साहब और उनके साथियों को बेहिचक वहां ले जाया गया। स्वामी जी ने उस समय इन लोगों की ओर ध्यान नहीं दिया। वे पूरे मनोयोग से अपने कार्य में लगे रहे। इन अतिथियों ने भी इस बात का पूरा ख्याल रखा कि वहां चल रही प्रक्रिया में किसी तरह की बाधा न आए। हवन समाप्त होने वे बाद स्वामी जी ने इन अतिथियों को आदर सहित उचित आसन पर बिठाया और फिर उन लोगों को बातचीत शुरू हुई।

थोड़ी देर बाद अतिथियों में से किसी ने कहा, ‘स्वामी जी, यह हमारी नमाज का समय है। कृप्या कोई ऐसा स्थान बताएं, जहां हम सभी नमाज पढ़ सकें।’ स्वामी जी ने कहा, ‘हवन समाप्त हो चुका है। यज्ञाला खाली है। यह यज्ञशाला वंदना के लिए हैं वंदना चाहे पूजा के रूप में हो या नमाज के रूप में कोई फर्क नहीं पड़ता। आप लोग यहां बगैर किसी परेशानी के नमाज पढ़ सकते हैं। अतिथियों ने आराम से वहां नमाज पढ़ी और स्वामीजी का आभार प्रकट किया। स्वामी जी की इस उदारता के फलस्वरूप मुस्लिम बंधुओं ने दिल्ली की जामा मस्जिद में बुलाकर उनका प्रवचन करवाया। ये दोनों घटनाएं बताती हैं कि धर्म मनुष्य को बड़ा बनाने के लिए है और इसलिए उसमें सांप्रदायिक संकीर्णता के लिए जगह नहीं बनने देनी चाहिए।

36. निर्भया के दरिंदों को फाँसी

19-20 मार्च, 2020 की रात्रि का समय है। 20 मार्च को प्रात: $5.30$ बजे निर्भया की नृशंस हत्या के चारों दोषियों को फाँसी पर चढ़ाए जाने की तैयारियाँ अपने अंतिम दौर में हैं गुर्वार रात के करीब एक बजे से ही तिहाड़ जेल नं. 3 के बाहर लोगों की भारी भीड़ जुटनी प्रारंभ हो गई थी। अब लगभग 5 बजे का समय है। लोगों ने हाथों में तिरंगा झंडा ले रखे हैं। सभी इंसाफ की जीत के नारेलगा रहे हैं। भीड़ में से भारत माता की जय के नारे भी उछल रहे हैं। जैसे-जैसे भीड़ बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे पुलिस और पैरामिलट्री फोर्स के जवान सावधानी से अपनी ड्यूटी निबाहने में मुस्तेद को आते हैं।

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सभी के मन में यह ठेस है कि निर्भया को न्याय मिलने में सात साल क्यों लग गए ? सभी न्याय के मार्ग में आने वाली अड़चनों और वकीलों की तिकड़म पर चर्चा कर रहे हैं। बाहर बताया जा रहा है कि गुरुवार-शुक्रवार की रात भर कोई नहीं सोया। तिहाड़ जेल के सभी संबंधि त अधिकारी रात भर फाँसी की तैयारियों पर बारीकी से नजर रखे हुए थे, कि कहीं कोई चूक न हो जाए। लो, अंदर से खबर आ गई कि निर्भया गेंगरेप के चारों कातिलों को सुबह ठीक 5.30 बजे फाँसी पर लटका दिया। यह समाचार सुनते ही दर्शकों की भीड़ और संतोष की लहर दौड़ गई। निर्भया को इसाफ तो मिला, चाहे सात साल बाद।

37. पिंजरे का तोता

पड़ोस में रहने वाली नीलम भाभी का घर है। अमरूद के पेड़ की डाल पर एक पिंजरा टँगाहैं इस पिंजरे में एक तोता है। यह कोरी आँखों से सबको देख रहा है। मुझे लगता है कि आँखें कैद में रहने का दुःख बयां कर रही हैं। मैं भाभी से पूछता हूँ- “इस मिट्ठू को कब से पाल रखा है ?” भाभी बताती है- “पाँच साल हो गए।” मैं उसे आजाद करने की सलाह देती हूँ तो भाभी बताती हैं कि अब मिट्टू उड़ नहीं पाता। बिल्ली देखते ही इसे अपना ग्रास बना लेगी। इसीलिए बाहर नहीं निकलता। मैं भी कुछ सोच में पड़ जाता हूँ। मुझे बचपन का मिट्ठू याद आ जाता है। उस वक्त मैं दसवीं की परीक्षा दे रहा था। पास में ही आम का बड़ा-सा बाग था। वहाँ मिट्ठुओं की भरमार थी। एक दिन देखता हूँ कि भाई बाग में से एक मिट्टू को पकड़ लाता है। भाई दिन भर मिट्ठू से खेलता रहा।

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पड़ोस के चाचा से एक पिंजरा माँग लाया। सुबह उठा तो मिट्ठू को नीम के पेड़ के पास टँगा पाया। मिट्ठे पिंजरे में कैद हो चुका था। वह दूध में भीगी रोटी खा रहा था। दो दिनों तक मिट्ठू पिंजरे में हली तक नहीं। जब-जब वह अपने पंख फैलाकर उड़ने की कोशिश करता तो पिंजरे में जोर की फड़फड़ाहट होती। दो दिन बाद मिट्टू विवश हो गया। अब मैं मिट्टू को देखता हूँ कि उसकी आँखें मुझसे कुछ विनती करती जान पड़ती हैं। तीसरे दिन मैंने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया। दरवाजा खुलते ही मिट्ठू फड़फड़ाते हुए बाहर निकला और सीधे नीम की डाल पर जा बैठा। वहीं से मुझे टुकुर-टुकुर देखता रहा। मैं आज भी उसकी नज़र नहीं भुला पाया हूं। न जाने यह भाभी वाला मिट्टू कब अपने पंख फड़फड़ाएगा ?

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