CBSE Class 11 Hindi Elective अपठित बोध अपठित काव्यांश
प्रश्न : निम्नलिखित काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए-
1. जन्म दिया माता सा जिसने, किया सदा लालन-पालन,
जिसके मिट्टी जल से ही है रचा गया हम सबका तन।
माता केवल बाल काल में निज अंक में धरती है,
हम अशक्त जब तलक तभी तक पालन पोषण करती है।
मातृभूमि करती है सबका लालन सदा मृत्यु पर्यत,
जिसके दया-प्रवाहों का होता न कभी सपने में अंत।
मर जाने पर कण देहों के इसमें ही मिल जाते हैं,
हिंदू जलते यवन-ईसाई शरण इसी में पाते हैं।
ऐसी मातृभूमि मेरी है स्वर्गलोक से भी प्यारी,
उसके चरण-कमल पर मेरा तन-मन-धन सब बलिहारी।
प्रश्न :
1. धरती माँ हम पर क्या उपकार करती है?
2. ‘धरती माँ हमारी माँ से भी बढ़कर है।’ यह कैसे कहा जा सकता है?
3. इस काव्यांश से आपको क्या प्रेरणा मिलती है?
4. ‘मातुभूमि की हम पर दया असीमित है।’ कवि ने ऐसा क्यों कहा है?
5. मर जाने के बाद शरीर की क्या स्थिति होती है?
6. हम सबका तन किससे रचा गया है ?
7. माता हमें कब तक अपनी गोद में धारण करती है ?
8. ‘चरण-कमल’ में किस अलंकार का प्रयोग है ?
उत्तर :
1. धरती माँ हमारा पालन-पोषण मृत्युपर्यंत करती है। वह हम पर अनंत दया भावना प्रवाहित करती रहती है।
2. हमारी माँ तो हमें जन्म देती है और तब तक हमारा पालन-पोषण करती है जब तक हम अशक्त रहते हैं। पर धरती माँ हमारा पालन-पोषण जीवनपर्यंत करती है। यहाँ तक कि वह मृत्यु के समय भी हमारे साथ रहती है।
3. इस काव्यांश से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि हमें अपनी मातृभूमि पर अपना तन-मन-धन अर्थात् सर्वस्व न्योछावर कर देना चाहिए। यह मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।
4. हम मातृभूमि के अन्न-जल से ही बने हैं। मातृभूमि हम पर जीवन भर दया करती रहती है। मर जाने पर भी मातृभूमि ही हमारी देह को अपने में समा लेती है।
5. हिंदुओं के मरने पर उसका शरीर इस धरती पर जलकर तथा मुसलमान-ईसाई इसी पर कब्र में शरण पाते हैं। सभी का शरीर इसी धरती में समाता है।
6. हम सबका तन धरती की मिट्टी और जल से ही रचा गया है।
7. माता हमें केवल बाल्यकाल तक ही अपनी गोद में धारण करती है
8. ‘चरण-कमल’ में रूपक अलंकार का प्रयोग है।
2. लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।
साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट,
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं।
शेष जो भी हैं
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़
हिलती क्षितिज की झालरें
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख अल्हड़ हवा
गायक मंडली से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य यंत्रों से पड़े टीले,
नहीं बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अंजुरी जल,
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के सहारे हैं।
प्रश्न :
- लीक पर चलने का क्या आशय है?
- कवि को किस प्रकार का मार्ग अच्छा लगता है?
- कवि किसके सहारे रहने की बात कहता है?
- ‘साक्षी हो राह रोके खड़े पीले बाँस के झुरमुट’ परक्ति का अर्थ क्या है?
- ‘गायक मंडली से थिरकते आते गगन में मेघ’ पंक्ति में कौन-सा अलंकार है?
- लीक पर कौन चलते हैं ?
- ‘शोख अल्हड़ हवा’ और ‘थिरकते गगन के मेघ’ किनके प्रतीक हैं ?
- ‘शुष्क नाले में नाचता अँजुरी जल’ क्या बताता है ?
उत्तर :
- लीक पर चलने से आशय है-बनी-बनाई बँधी परंपराओं का अनुसरण करना।
- कवि को अनिर्मित मार्ग अच्छा लगता है। वह अपने स्वयं के बनाए मार्ग पर चलना चाहता है।
- कवि अपने संकल्पों के सहारे रहने की बात कहता है। वह अपने विश्वास के सहारे जीना चाहता है।
- इस पंक्ति का अर्थ है मार्ग में आने वाली बाधाएँ। कवि बाँस के झुरमुट अर्थात् रुकावटों के बीच से भी आने वाली आशावादी हवा से प्रेरणा ग्रहण करता है।
- इस काव्य पंक्ति में मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है। उपमा अलंकार का भी प्रयोग हुआ है।
- लीक पर वे चलते हैं जिनके पैर दुर्बल और थके हुए हैं।
- ‘शोख अल्हड़ हवा’ मौज-मस्ती का प्रतीक हैं तो ‘गगन में थिरकते आते मेघ’ हर्ष और उल्लास के प्रतीक हैं।
- शुष्क नाले में नाचता अँजुरी जल निराशा के वातावरण के मध्य भी आशा की किरण को झलकाता है।
3. मनमोहनी प्रकृति की जो गोद में बसा है।
सुख स्वर्ग-सा जहाँ है, वह देश कौन-सा है॥
जिसके चरण निरंतर रतेश धो रहा है।
जिसका मुकुट हिमालय, वह देश कौन-सा है।
नदियाँ जहाँ सुधा की धारा बहा रही हैं।
सींचा हुआ सलोना, वह देश कौन-सा है।
जिसके बड़े रसीले, फल, कंद, नाज, मेवे।
सब अंग में सजे हैं, वह देश कौन-सा है॥
जिसके सुगंध वाले, सुंदर प्रसून प्यारे।
दिन-रात हैस रहे हैं, वह देश कौन-सा है।
मैदान, गिरि, वनों में, हरियालियाँ महकतीं।
आनंदमय जहाँ है, वह देश कौन-सा है॥
जिसकी अनंत वन से धरती भरी पड़ी है।
संसार का शिरोमणि, वह देश कौन-सा है॥
सबसे प्रथम जगत में जो सभ्य था यशस्वी।
जगदीश का दुलारा, वह देश कौन-सा है॥
प्रश्न :
- मनमोहिनी प्रकृति की गोद में कौन-सा देश बसा हुआ है और वहाँ कौन-सा सुंख प्राप्त होता है?
- भारत की नदियों की क्या विशेषता है?
- भारत के फूलों का स्वरूप कैसा है?
- जगदीश का दुलारा देश भारत संसार का शिरोमणि कैसे है?
- काष्यांश का सार्थक एवं उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
- ‘रत्ेेश’ कौन है ? वह क्या कर रहा है ?
- भारत की किन-किन वस्तुओं को रसीले और उपयोगी बताया गया है ?
- भारत को कैसा देश बताया गया है ?
उत्तर :
- मनमोहिनी प्रकृति की गोद में भारत देश बसा हुआ है। वहाँ स्वर्ग जैसे सभी सुख प्राप्त हैं।
- भारत की नदियों की यह विशेषता है कि उनमें पानी के रूप में अमृत की धारा बहती है। ये नदियाँ भारत भूमि को सींचती हैं।
- भारत के फूलों का स्वरूप बड़ा सुंदर है। वे सुगंध वाले हैं। ये फूल बड़े प्यारे लगते हैं।
- जगदीश अर्थात् भगवान का दुलारा देश भारत संसार का शिरोमणि इस कारण है क्योंकि यहाँ की धरती में अनंत वन-राशि भरी हुई है। भारत ने ही सर्वप्रथम विश्व को सभ्यता का ज्ञान दिया। यह देश यशस्वी है।
- शीर्षक-‘भारत देश महान है’।
- ‘रत्नेश’ समुद्र है जो भारत माता के चरणों को धो रहा है।
- भारत के फलों को रसीले तथा कंद, अनाज, मेवों को उपयोगी बताया गया है।
- भारत को संसार का शिरोमणि देश तथा सम्य और यशस्वी बताया गया है।
4. ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में
मनुज नहीं लाया है,
अपना सुख उसने अपने
भुजबल से ही पाया है।
प्रकृति नहीं डर कर झुकती है
कभी भाग्य के बल से,
सदा हारती वह मनुष्य के
उद्यम से, श्रमजल से।
ब्रह्मा का अभिलेख पढ़ा
करते निरुद्यमी प्राणी
धोते वीर कु-अंक भाल के
बहा भ्रुवों से पानी।
भाग्यवाद आवरण पाप का
और शस्त्र शोषण का,
जिससे रखता दबा एक जन
भाग दूसरे जन का।
प्रश्न :
- प्रकृति मनुष्य के आगे कब झुकती है?
- भाग्य-लेख कैसे लोग पढ़ते हैं?
- भाग्यवाद को ‘पाप का आवरण’ और शोषण का शस्त्र’ क्यों कहा गया है?
- इस काव्यांश से आपको क्या प्रेरणा मिलती है?
- ‘भाल के कुल-अंक’ से कवि का क्या तात्पर्य है?
- मनुष्य ने अपना सुख कैसे पाया है ?
- प्रकृति किससे हारती है ?
- वीर पुरुष अपना दुर्भाग्य कैसे धोते है ?
उत्तर :
- प्रकृति मनुष्य के उध्यम और श्रमजल अर्थात् परिश्रम के आगे झुकती है।
- भाग्य-लेख निरुद्दमी अर्थात् निकम्मे लोग पढ़ते हैं। वे ही भाग्य पर भरोसा करते हैं।
- भाग्यवाद को ‘पाप का आवरण’ और ‘शोषण का शस्त्र’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि भाग्य की आड़ लेकर ही पाप कर्म किए जाते हैं तथा दूसरों का शोषण किया जाता है। भाग्य के नाम पर दूसरे का हक दबाया जाता है।
- इस काव्यांश से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि भाग्य का आसरा छोड़कर कर्म करो। भुजंबल से ही सारे सुख पाए जा सकते हैं। किसी का शोषण मत करो।
- ‘भाल के कु-अंक’ से कवि का यह तात्पर्य है कि भाल (मस्तक) अर्थात् भाग्य में जो बुरा अंक या बुरी बात (दुर्भाग्य) लिखी है उसे वीर पुरुष परिश्रम से दूर कर देते हैं।
- मनुष्य ने अपना सुख अपने भुजबल से ही पाया है। इसे वह ब्रह्मा से भाग्य लिखाकर नहीं लाया है।
- प्रकृति सदा मनुष्य के उद्यम तथा परिश्रम के जल के सामने ही हारती है।
- वीर पुरुष कठोर परिश्रम करके (भौहों से श्रम-जल बहाकर) ही अपने भाग्य के कु-अंक अर्थात् दुर्भाग्य को धोकर साफ करते हैं।
5. सावधान जननायक सावधान
यह स्तुति का साँप तुम्हें डँस न ले।
बचो इन बढ़ी हुई बाँहों से
धृतराष्ट्र मोह-पाश
कहीं तुम्हें कस न ले।
सुनते हैं कभी, किसी युग में
पाते ही राम का चरण-स्पर्श
शिला प्राणवती हुई।
देखते हैं किंतु आज
अपने उपास्य के चरणों को छू-छूकर
भक्त उन्हें पत्थर की मूर्ति बना देते हैं।
सावधान, भक्तों की टोली आ रही है
पूजा-द्रव्य लिए।
बचो अर्चना से, फ़ूलमाला से,
अंधी अनुशंसा की हाला से,
बचो वंदना की वंचना से, आत्म रति से
बचो आत्मपोषण से, आत्मा की क्षति से।
प्रश्न :
- कवि किसे और क्यों सावधान कर रहा है?
- धृतराष्ट्र मोह-पाश किसे कहा गया है?
- भक्त अपने उपास्य को कैसा बना देता हैं?
- जननायक को किनसे बचकर रहने के लिए कहा जा रहा है?
- ‘आत्म रति’ शब्द का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
- राम का चरण-स्पर्श पाकर क्या हुआ था ?
- ‘अंधी अनुशंसा की हाला’ किसे हुआ गया है ?
- इस कविता का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
- कवि जननायक अर्थात् नेता को सावधान कर रहा है। वह उसे इसलिए सावधान कर रहा है क्योंकि इन तथाकथित भक्तों की टोली की झूठी प्रशंसा उसे साँप की तरह डस सकती है।
- धृतराष्ट्र कौरवों का पिता था। वह पुत्र-मोह में अंधा हो गया था। उसने भीम को अपने मोह-पाश में बाँध कर चकनाचूर कर देने का इरादा मन में पाल लिया था। भक्तों का मोह-पाश भी जन नेता को बाँधने का प्रयास हो सकता है।
- भक्त अपने उपास्य नेता के चरणों को छू-छूकर उन्हें पत्थर अर्थात् हृदयहीन बना देते हैं।
- जननायक को अंधभक्तों की झूठी प्रशंसा रूपी हाला, आत्मरति तथा स्तुति की वंचना से बचने के लिए कहा जा रहा है।
- ‘आत्म रति’ शब्द का अर्थ है-जो स्वयं में रत हो अर्थात् सिर्फ अपने बारे में ही सोचता हो।
- राम का चरण-स्पर्श पाकर शिला (अहिल्या शिला बन गई थी) भी प्राणवती बन गई अर्थात् उसमें जीवन का संचार हो गया।
- ‘अंधी अनुशंसा की हाला’ झूठी, चापलूसी भरी प्रशंसा को कहा गया है। इसे सुनकर (हाला को पीकर) व्यक्ति (नेता) आत्ममुग्ध हो जाता है।
- शीर्षक : ‘सावधान जननायक’।
6. कविता एक उड़ान है चिड़िया के बहाने
कविता की उड़ान भला चिड़िया क्या जाने
बाहर भीतर
इस घर, उस घर
कविता के पंख लगा उड़ने के माने
चिड़िया क्या जाने?
कविता एक खिलना है फूलों के बहाने
कविता का खिलना भला फूल क्या जाने!
बाहर भीतर
इस घर, उस घर
बिना मुरझाए महक्के के माने
फूल क्या जाने?
कविता एक खेल है बच्चों के बहाने
बाहर भीतर
यह घर, वह घर
सब घर एक कर देने के माने
बच्या ही जाने।
प्रश्न :
- कविता को क्या बताया गया है और क्यों?
- चिड़िया क्या नहीं जानती?
- कविता का खिलना क्या है?
- बच्चों के बहाने कविता को क्या बताया गया है?
- बच्चा क्या जानता है?
- कविता के खिलने को किसके समान बताया गया है ?
- कविता से अनुप्रास अलंकार की एक उदाहरण छाँटकर लिखिए।
- कविता का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
- कविता को चिड़िया की उड़ान बताया गया है। इसे चिड़िया नहीं जान पाती। कविता भी चिड़िया की उड़ान की तरह पंख लगाकर उड़ती है।
- चिड़िया यह नहीं जानती कि कविता भी कवि की मन की एक उड़ान है। इस उड़ान के मायने चिड़िया नहीं जानती।
- कविता का खिलना फूल के खिलने के समान है। कविता शब्दों के माध्यम से खिलकर बाहर उभरकर आती है, महकती है।
- बच्चों के बहाने कविता भी एक खेल है, जो सभी बाहर-भीतर के लोगों को एक कर देती है।
- बच्चा घरों का अंतर मिटाकर इस घर और उस घर को एक कर देता है। वह इसके मायने भी समझा देता है।
- कविता के खिलने को फूलों के खिलने के समान बताया गया है।
- अनुप्रास अलंकार का उदाहरण : बिना मुरझाए महकने के माने (‘म’ वर्ण की आवृत्ति)।
- शीर्षक : ‘कविता और चिड़िया’।
7. तिनका तिनका लाकर चिड़िया
रचती है आवास नया।
इसी तरह से रच जाता है
सर्जन का आकाश नया।
मानव और दानव में यूँ तो
भेद नजर नहीं आएगा
एक पोंछता कहते आँसू
जी भर एक रुलाएगा।
रचने से ही आ पाता है
जीवन में विश्वास नया
कुछ तो इस धरती पर केवल
खून बहाने आते हैं।
आग बिछाते हैं राहों में
फिर खुद ही जल जाते हैं।
जो होते खुद को मिटाने वाले
वे रचते इतिहास नया।
मंत्र नाश का पढ़ा करें कुछ
द्वार द्वार पर जा करके
फूल खिलने वाले रहते
घर घर फूल खिला करके।
प्रश्न :
- सर्जन का नया आकाश कैसे बनता है?
- मानव और दानव में क्या अंतर है?
- जीवन में नया विश्वास कैसे आता है?
- अत्याचारी का अंत क्या होता है?
- नाश का मंत्र पढ़ने और फूल खिलाने से क्या तात्पर्य है?
- चिड़िया क्या काम करती है ?
- कुछ लोग इस धरती पर केवल क्या करने के लिए आते हैं ?
- पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार के दो उदाहरण छाँटकर लिखिए।
उत्तर :
- सर्जन का नया आकाश बहुत छोटे-छोटे किंतु लगातार प्रयासों से बनता है। जैसे चिड़िया तिनका-तिनका लाकर अपना घोंसला बनाती है।
- मानव और दानव में यह अंतर है कि मानव दुखी व्यक्ति के आँखों के आँसू पोंछता है, जबकि दानव अपने व्यवहार से उसे जी भर रूलाते हैं।
- कुछ नया रचने से ही जीवन में नया विश्वास आता है।
- अत्याचारी अंत में अपने कार्यों का ही फल पाता है। वह दूसरों के लिए आग लगाता है और अंत में ही उसी आग में खुद भी जल जाता है।
- ‘नाश का मंत्र पढ़ने’ का आशय उस व्यक्ति से है, जो दुनिया को तबाह कर देने की जुगत करते हैं, जबकि ‘फूल खिलाने’ का तात्पर्य दुनिया में खुशी और उल्लास लाने का प्रयास है।
- चिड़िया तिनका-तिनका लाकर अपना घोंसला (आवास) बनाती है।
- कुछ लोग इस घरती पर केवल खून बहाने के लिए ही आते हैं।
- पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार के दो उदाहरण : (i) द्वार-द्वार, (ii) घर-घर।
8. कहो, तुम्हारी जन्मभूमि का है कितना विस्तार?
भिन्न-भिन्न यदि देश हमारे तो किसका संसार?
धरती को हम काटें छाँटे,
तो उस अंबर को भी बाँटें,
एक अनल है, एक सलिल है, एक अनिल-संचार।
कहो, तुम्हारी जन्मभूमि का है कितना विस्तार?
एक भूमि है, एक व्योम है,
एक सूर्य है, एक सोम है,
एक प्रकृति है, एक पुरुष है, अगणित रूपाकार।
कहो, तुम्हारी जन्मभूमि का है कितना विस्तार?
ठौर-ठौर का गुण अपना है,
ॠतुओं का कँपना-तपना है,
समशीतोष्ण एकरस हमको, होना है अविकार।
कहो, तुम्हारी जन्मभूमि का है कितना विस्तार?
अलग-अलग हैं सभी अधूरे,
सब मिलकर ही तो हम पूरे,
एक दूसरे का पूरक है, एक मनुज परिवार।
कहो, तुम्हारी जन्मभूमि का है कितना विस्तार?
स्वर्ण-भूमि यदि अलग तुम्हारी,
तो हम भी लोहायुध-धारी,
कैसे हो सकता है फिर इस विग्रह का परिहार।
कहो, तुम्हारी जन्मभूमि का है कितना विस्तार?
परित्राण का एक मंत्र है,
विश्वराज्य, जो लोकतंत्र है,
सब वर्णों का, सब धर्मों का, जहाँ एक अधिकार।
कहो, तुम्हारी जन्मभूमि का है कितना विस्तार?
एक देह के विविध अंग हम,
दुख-सुख में सब एक संग हम,
लगे एक के क्षत पर सबका स्नेह लेप सौ बार।
कहो, तुम्हारी जन्मभूमि का है कितना विस्तार?
प्रश्न :
- कवि किसको न बाँटने के लिए कह रहा है?
- किस-किसको एक बताया गया है?
- दूसरे पद में क्या बात कही गई है?
- लोकतंत्र की क्या विशेषता बताई गई है?
- इस कविता का मूल भाव स्पष्ट कीजिए।
- कवि क्या प्रश्न करता है ?
- अनल और अनिल का अंतर स्पष्ट करो।
- कविता का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
- कवि धरती तथा आकाश को न बाँटने के लिए कह रहा है। सारा संसार एक है। यह पृथ्वी और आकाश सभी का साझा है।
- कवि ने अग्नि, पानी, वायु, पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, प्रकृति और पुरुष को एक बताया है। भले ही इनके रूप और आकार में विविधता क्यों न हो।
- दूसरे पद में बताया गया है कि प्रत्येक स्थान का अपना पृथक गुण होता है। हमको इन सभी विभिन्नताओं के मध्य रहकर एकरस हो जाना है। सभी के आपस में मिल-जुल कर रहने में ही हमारी पूर्णता है। हम एक-दूसरे के पूरक हैं। स्वार्थ भावना विग्रह को बढ़ाती है।
- इस कविता में लोकतंत्र की यह विशेषता बताई गई है कि इसमें सभी वर्णों तथा धर्मों को समान अधिकार दिया जाता है। इसमें सभी लोग एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी होते हैं।
- इस कविता का मूल भाव यह है कि हमें केवल अपने देश के बारे में न सोचकर विश्व के बारे में सोचना चाहिए। हमें पृथ्वी पर रहने वाले सभी लोगों के साथ मैत्रीभाव रखना चाहिए। लोगों के मध्य किसी भी प्रकार का बँट्वारा अनैतिक एवं अव्यावहारिक है।
- कवि यह प्रश्न करता है कि बताओ तुम्हारी जन्मभूमि का कितना विस्तार है ? यदि हम भिन्न-भिन्न हैं तो भला यह संसार किसका है !
- अनल का अर्थ है : आग, अनिल का अर्थ है : हवा।
- शीर्षक : ‘अनेकता में एकता-भारत की विशेषता’।
9. ॠषि-मुनियों, साधु-संतों को
नमन, उन्हें मेरा अभिनंदन है।
जिनके तप से पूत हुई है
भरत देश की स्वर्णिम माटी
जिनके श्रम से चली आ रही
युग-युग से अविरल परिपाटी।
जिनके संयम से शोभित है
जन-जन के माथे पर चंदन।
कठिन आत्म-मंथन के हित
जो असि-धारा पर चलते हैं
पर-प्रकाश हित पिघल-पिघल कर
मोम-दीप-सा जलते हैं।
जिनके उपदेशों को सुनकर,
सँवर जाए जन-जन का जीवन।
सत्य-अहिंसा जिनके भूषण
करुणामय है जिनकी वाणी
जिनके चरणों से है पावन
भारत की यह अमिट कहानी।
उनके ही आशीष, शुभेच्छा
पाने को करता पद-वंदन।
प्रश्न :
- भारत के ॠषि-मुनियों ने भारत को कैसे स्वर्णिम बनाया है?
- ‘कठिन आत्म-मंथन के हित, जो असि धारा पर चलते हैं’ काव्यांश का अर्थ लिखिए।
- दूसरों के लिए मोम-दीप-सा जलने का क्या तात्पर्य है?
- ऋषि-मुनि किन विशेषताओं के कारण वंदनीय हैं?
- काव्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
- कवि किन-किनका अभिनंदन और नमन करता है और क्यों ?
- अनुप्रास अलंकार का एक उदाहरण छाँटकर लिखिए।
- उपमा अलंकार का एक उदाहरण छाँटकर लिखिए।
उत्तर :
- भारत के ऋषि-मुनियों ने भारत को अपने तप के बल पर स्वर्णिम बनाया है।
- इस काव्यांश का अर्थ है कि आत्म मंथन यानी अपने बारे में जानने की प्रक्रिया बहुत कठिन होती है। इसे जानना तलवार की धार पर चलने के समान है।
- जिस प्रकार मोम-दीप दूसरों को प्रकाश देने के लिए स्वयं को जलाता है। उसी तरह हमारे समाज में कुछ व्यक्ति अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देश-समाज के लिए कुछ नया करने का प्रयास करते हैं। यही इसका तात्पर्य है।
- ऋषि-मुनि, अपने तप, श्रम, संयम, त्याग, सत्य-अहिंसा, करूणा आदि के कारण हमारे वंदनीय हैं।
- ऋषि-मुनियों का वंदन।
- कवि ऋषि-मुनियों और साधु-संतों को नमन करता है तथा उनका अभिनंदन करता है क्योंकि उन्होंने इस देश को पवित्र एवं स्वर्णिम बनाया है।
- अनुप्रास अलंकार का उदाहरण : ‘संयम से शोभित’।
- मोम-दीप सा जलते हैं।
10. निईर की बूँदे ही गुमसुम, चछानों में कितनी मचलीं
पत्थर तोड़ कूदत्तीं झर-झर, झर-झर-झर निर्भय निकलीं।
अब आगे क्या? किसी गर्त में पड़ सकती थीं।
बन न सकी तो गड्ठे में ही सड़ सकती थीं।
नहीं रुकेंगी, नहीं झुकेंगी, आगे बढ़ती सबसे कहती-
“गति है तो जीवन है” कहकर मार्ग बनाती, बहती रहतीं,
लात मारकर पत्थर जैसी बाधा को जिसने ललकारा।
वही आज इठलाती फिरती गंगा-यमुना जैसी धारा।
आँधी तूफानों में निश्चय अपना सीना तान के निकले॥
प्रश्न :
- जीवन में गति न हो तो क्या परिणाम हो सकता है?
- जीवन के संदर्भ में “आँधी-तूफान” का क्या अर्थ है?
- गंगा-यमुना की जलधारा के इठलाने का क्या कारण है?
- निर्झर की बूँदों से हमें क्या प्रेणा मिलती है?
- ‘झर-झर’ में कौन सा अलंकार है?
- झरने की बूँदे किस प्रकार आगे बढ़ीं ?
- बूँदों का इठलाना, फिरना किस अलंकार की ओर संकेत करता है ?
- कविता का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
- जीवन में गति न हो तो जीवन स्थितियों के गर्त में गिरकर सड़ जायेगा।
- जीवन के संदर्भ में “आँधी-तूफान” का अर्थ दु:खों-संकटों आदि से लगाया जा सकता है।
- गंगा-यमुना की जलधारा के इठलाने का कारण है कि इन नदियों के रास्ते में आये। पत्थरें-बाधाओं से जूझते हुए उन्हें किनारे कर दिया।
- निर्झर की बूँदों से हमें विपरीत स्थितियों से संघर्ष रखते हुए आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा मिलती है।
- ‘झर-झर’ में अनुप्रास अलंकार है।
- झरने (निर्झर) की बूँदू पहले तो गुमसुम थीं, पर वे चट्टानों को फोड़कर उछलती-कूदती, निडर होकर आगे बढ़ीं।
- मानवीकरण अलंकार का।
- शीर्षक : ‘बहती निझर’।
11. जग में सचर-अचर जितने हैं, सारे कर्म निरत हैं।
धुन है एक न एक सभी को, सबके निश्चित व्रत हैं।
जीवन-भर आतप वह वसुधा पर छाया करता है।
तुच्छ पत्र की भी स्वकर्म में कैसी तत्परता है।
रवि जग में शोभा सरसाता, सोम सुधा बरसाता।
सब हैं लगे कर्म में, कोई निष्क्रिय दृष्टि न आता।
है उद्देश्य नितांत तुच्छ तृण के भी लघु जीवन का।
उसी पूर्ति में वह करता है अंत कर्ममय तन का।
प्रश्न :
- इस संसार में सचर और अचर क्या कर रहे हैं तथा उन्हें क्या धुन है?
- सूर्य, चंद्र और प्ता किस प्रकार कर्मरत हैं?
- तिनका किस प्रकार अपने जीवन को सार्थक करता है?
- काव्यांश में निहित उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए।
- उपर्युक्त काव्यांश से अनुप्रास अलंकार का एक उदाहरण छाँटेए।
- सूर्य और चदंद्रमा जग में क्या काम करते हैं ?
- विलोम शब्द लिखो-निक्रिय।
- कविता का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
- इस संसार में सचर और अचर, अपने-अपने कर्म में निरत हैं। उन्हें अपने निश्चित व्रत को पूरा करने की ही धुन है।
- सूर्य, सारे जग को शोभा से भर देता है, चंद्र धरती पर चाँदनी रूपी सुधा बरसाता है जबकि छोटा-सा पत्ता भी पृथ्वी पर छाया करते हुए अपना कर्म करता है।
- तिनका अपने कर्म में लगा रहता है और इस प्रकार अपने जीवन को सार्थक करता है।
- काव्यांश के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि सबको कर्मरत रहना चाहिए। कर्मरत रहकर ही हम अपने जीवन को सफल और सार्थक बना सकते हैं।
- अनुप्रास अलंकार : “सोम सुधा बरसाता।”
- सूर्य (रवि) जग में शोभा बरसाता है तो चंद्रमा (सोम) चाँदनी रूपी अमृत बरसाता है।
- ‘निक्रिय’ का विलोम है : सक्रिय।
- शीर्षक : कर्ममय संसार।
12. पूर्व चलने के, बटोही, बाट की पहचान कर ले।
पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की जबानी,
अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या,
पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी,
यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले;
पूर्व चलने के, बटोही, बाट की पहचान कर ले।
यह बुरा है या कि अच्छा, व्यर्थ दिन इस पर बिताना,
जब असंभव छोड़ यह पथ दूसरे पर पग बढ़ाना,
तू इसे अच्छा समझ, यात्रा सरल इससे बनेगी,
सोच मत केवल तुझे ही यह पड़ा मन में बिठाना,
हर सफल पंथी यही विश्वास ले इस पर बढ़ा है,
तू इसी पर आज अपने चित्त का अवधान कर ले;
पूर्व चलने के, बटोही, बाट की पहचान कर ले।
देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर, अपने समय में,
और तू कर यत्न भी तो मिल नहीं सकती सफलता,
ये उदय होते हुए लिए कुछ ध्येय नयनों के निलय,
किन्तु जग के पंथ पर यदि स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,
स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले;
पूर्व चलने के, बटोही, बाट की पहचान कर ले।
प्रश्न :
- कवि किससे क्या कह रहा है और क्यों?
- किस बात पर समय गँँवाना अच्छा नहीं है?
- हमें अपने मन में क्या बात बिठा लेनी चाहिए?
- स्वप्न लेने के बारे में कवि का क्या मत है?
- उपर्युक्त पद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
- अपने इच्छित मार्ग का पता कैसे चलता है ?
- सभी लोग किस आयु में स्वप्न देखते हैं ?
- निशानी किस प्रकार बोलती है ?
उत्तर :
- कवि जीवन पथ पर आगे बढ़ने वाले से अपने पथ की पहचान कर लेने के लिए. कह रहा है। ‘पथ की पहचान’ होने के बाद ही व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक बना सकता है।
- ‘जीवन पथ’ के बारे में उसकी अच्छाई या बुराई के बारे में सोचते रहकर समय गँवाना अच्छा नहीं है।
- हमें अपने मन में यह बात बिठा लेनी है कि हम जिस पथ पर आगे बढ़ रहे हैं वही हमारे लिए सबसे अच्छा है। उस पर आगे बढ़ते रहने से ही सफलता प्राप्त होगी।
- स्वप्न के बारे में कवि का रहना है कि हमें स्वप्न पर मुग्ध नहीं होना चाहिए। उसके पीछे के सत्य को भी जान लेना चाहिए।
- पंथ की पहचान।
- अपने इच्छित मार्ग का पता हमें दूसरों से नहीं अपितु स्वयं से ही चलता है।
- सभी युवावस्था में स्वप्न देखते हैं।
- निशानी यद्यपि मूक हैं, पर फिर भी काफी कुछ बता देती है।
13. नाम अलग हैं देश-देश के, पर वसुंधरा एक है,
फल-फूलों के रूप अलग पर भूमि उर्वरा एक है,
धरा बाँटकर हृदय न बाँटो, दूर रहो संहार से॥
कभी न सोचो तुम अनाथ, एकाकी या निष्प्राण रे!
बूँद-बूँद करती है मिलकर, सागर का निर्माण रे!
लहर लहर देती संदेश यह, दूर क्षितिज के पार से॥
धर्म नहीं वह जो कि डाल दे, दिल में एक दरार रे!
करो न दूषित आँगन मन का, नफरत की दीवार से॥
सीमाओं को लांघ न कुचलो, स्वतंत्रता का शीश रे!
बमबारी की स्वरलिपि में मत लिखो शांति का गीत रे!
बँध न सकेंगी लय गीतों की, ऐसे स्वर विस्तार से॥
राजनीति में स्वार्थ न लाओ, भरो न विष संसार में,
पशुता भरकर संस्कृति में, मत भरो वासना प्यार में,
करो न कलुषित जन-जीवन तुम, रूप प्रणय व्यापार से॥
प्रश्न :
- लहरें क्या संदेश दे रही हैं?
- धर्म की पहचान क्या है?
- शांति गीत कैसा होना चाहिए?
- कवि क्या करने को मना करता है?
- राजनीति, संस्कृति और जन-जीवन के लिए क्या-क्या घातक है?
- क्या-क्या अलग-अलग है ?
- सागर का निर्माण कैसे होता है ?
- कविता का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
- लहरों से यह संदेश प्राप्त होता है कि बूँद-बूँद के मिलने से ही सागर का निर्णय होता है।
- स्थितियों से मानव का उद्धार होता हो, वही धर्म होता है।
- शांति का गीत ‘बमबारी की स्वरलिपि’ आनी युद्ध या संघर्ष की बात करने वाला नहीं होना चाहिए।
- कवि राजनीति में स्वार्थ न लाने, संसार में विष ₹ भरने, पशुता से बचने और वासना से दूर रहने के लिए कहता है।
- राजनीति के लिए स्वार्थ, संस्कृति के लिए पशुता और जन-जीवन के लिए कटुता घातक होती है?
- देशों के नाम अलग-अलग है, फल-फूलों के रूप अलग-अलग हैं, पर धरती एक ही है।
- एक-एक बूँद से सागर का निर्माण होता है।
- शीर्षक : ‘धरती में व्याप्त एकता’।
14. सिंहीं की गोद से छीनत है शिशु कौन?
मौन भी क्या रहती वह रहते प्राण?
रे अजान,
एक मेषमाता ही
रहती है निर्निमेष
दुर्बल वह
छिनती संतान जब,
जन्म पर अपने अभिशप्त
तप्त आँसू बहाती है।
किंतु क्या?
योग्य जन जीता है,
पश्चिम की उक्ति नहीं,
गीता है, गीता है,
स्मरण करो बार-बार
जागो फिर एक बार।
पशु नहीं वीर तुम,
समय-शूर, क्रूर नहीं,
कलाचक्र में हो दबे,
आज तुम राजकुँअर
समर सरताज।
मुक्त हो सदा ही तुम,
बाधा-विहीन-बंध छंद ज्यों,
डूबे आनंद में सच्चिदानंद-रूप
महा-मंत्र ऋषियों का
अणुओं-रमाणुओं में फूँका हुआ,
“तुम हो महान
तुम सदा हो महान”
है नश्वर ये दीनभाव
कायरता, कामपरता,
ब्रह्म हो तुम पदरज भर भी है नहीं,
पूरा यह विश्वभार
जागो फिर एक बार।
प्रश्न :
- सिंही की क्या विशेषता बताई गई है?
- ‘मेषमाता’ कौन होती है? उसे दुर्बल क्यों कहा गया है?
- गीता में क्या संदेश दिया गया है?
- कवि हमें क्या बताता है?
- कवि हमें जागने के लिए क्यों कहता है?
- कवि हमें कैसा बता रही है ?
- कौन-कौन से भाव नश्वर हैं ?
- कविता का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
- सिंही को यह विशेषता बताई गई है कि उसकी गोद से उसके शिशु को कोई छीन नहीं सकता है।
- मेषमाता से यहाँ तात्पर्य कमजोर देश, समाज या समूह हो सकता है। ऐसा देश, समाज या समूह अपने नागरिक की सुरक्षा नहीं कर पाता है।
- गीता का संदेश है कि योग्य जन ही विजय प्राप्त करता है।
- कवि हमें जाग जाने के लिए कहता है। वह हमें बताता है कि हम राजकुँवर हैं, अपने समय को जीतने वाले हैं।
- कवि हमें जागने के लिए इसलिए कहता है कि हम सदा से महान रहे हैं। इसमें दीनता या कायरता का भाव नहीं होना चाहिए।
- कवि हमें शूरवीर, राजकुँअर और समर-सरताज बता रहा है।
- दीनता का भाव, कायरता का भाव, काम परता का भाव ये सभी नश्वर हैं।
- शीर्षक : ‘जागो फिर एक बार’।
15. मत काटो तुम ये पेड़
हैं ये लज्जावसन
इस माँ बसुन्धरा के।
इस संहार के बाद
अशोक की तरह
सचमुच तुम बहुत पछताओगे
बोलो फिर किसकी गोद में
सिर छिपाओगे?
शीतल छाया
फिर कहाँ से पाओगे?
कहाँ से पाओगे फिर फल?
कहाँ से मिलेगा
शस्य-श्यामला को
सींचने वाला जल?
रेगिस्तानों में
तब्दील हो जाएँगे खेत
बरसेंगे कहाँ से
उमड़-घुमड़कर बादल?
थके हुए मुसाफिर
पाएँगे कहाँ से
श्नमहरी छाया?
प्रश्न :
- कवि अशोक की तरह पछताने की बात क्यों करता है?
- कवि ने ‘लज्जावसन’ किसे कहा है? ये ‘लज्जावसन’ किसके हैं?
- पेड़ों के काटने से क्या कुप्रभाव पड़ेगा?
- ‘रेगिस्तानों में तब्दील हो जाएँगे खेत’ से कवि का क्या आशय है?
- उपर्युक्त काव्यांश का शीर्षक लिखिए।
- पेड़ हम क्या-क्या देते हैं ?
- बादल क्या करते हैं ?
- ‘श्रमहारी छाया’ से क्या तात्पर्य हैं ?
उत्तर :
- अशोक ने कई युद्ध किए और लाखों लोग की मृत्यु का कारण बना। बाद में वह पछताता है। उसी तरह आज क मानव अपने पर्यावरण का ही नाश करने पर तुला हुआ है। इसीलिए कवि ऐसा कहता है।
- कवि ने ‘लज्जावसन’ धरती पर लगे पेड़ों को कहा है। ये पेड़ हमारी धरती के ‘लज्जावसन’ हैं।
- पेड़ों के कटने के बाद हमें कहीं शीतल छाया नहीं मिलेगी, फल-फूल नहीं मिलेंगे और नहीं धरती को सींचने के लिए पान ही प्राप्त होगा।
- अगर हमारे खेतों को पर्याप्त पानी नहीं मिलेगा तो धरती धीरे-धीरे रेगिस्तान में बदलती जायेगी। यही कवि का आशय है।
- ‘हमारे पेड़’ या ‘धरती के लज्जात्रसन’।
- पेड़ हमें शीतल, छाया, फल देते हैं।
- बादल जल बरसाकर रेगिस्तान बने खेतों को सींचते हैं।
- श्रमहारी छाया से तात्पर्य है-पेड़ों की छाया जो थके मुसाफिर की थकान मिटाती है।
16. मिट्री तन है, मिट्टी मन है, मिट्री दाना-पानी है।
मिद्धी ही तन-बदन हमारा, सो सब ठीक कहानी है।
पर जो उल्टा समझ इसे ही बने आप ही ज्ञानी है।
मिद्धी करता है जीवन को और बड़ा अज्ञानी है।
समझ सदा अपना तन मिट्री, म्टृी जो कि रमाता है।
मिट्टी करके सरबस अपना म्टिटी में मिल जाता है।
जगत् है सच्चा तनिक न कच्चा समझो बच्चा इसका भेद।
खाओ पिओ कर्म करो नित कभी न लाओ मन में खेद।
रचा उसी का है यह जग जो निश्चय उसको प्यार है।
इसमें दोष लगाना अपने लिए दोष का द्वार है।
प्रश्न :
- कवि ने मिट्टी की महिमा का बखान करते हुए क्या कहा है?
- कवि इन काव्य-पंक्तियों के द्वारा क्या प्रेरणा देता है?
- संसार की रचना में दोष निकालना क्यों व्यर्थ है?
- ‘सरबस’ का तत्सम रूप लिखिए।
- उपर्युक्त पंक्तियों के लिए उचित शीर्षक दीजिए।
- कविता का शीर्षक लिखिए।
- जीवन को अज्ञानी क्या करता है ?
- ‘दोष का द्वार’ में कौन-सा अलंकार है ?
उत्तर :
- कवि ने मिट्टी को अपना तन-मन, दाना-पानी, शरीर, सब कुछ कहते हुए उसकी महिमा का बखान किया है।
- कवि इन काव्य-पंक्तियों द्वारा व्यक्ति को जीवन की सच्चाई जानने की प्रेरणा दे रहा है।
- हमारी रचना उसी संसार द्वारा हुई है। अत: उसमें दोष निकालना व्यर्थ है।
- ‘सरबस’ का तत्सम शब्द ‘सर्वस्व’ है।
- ‘मिट्टी और जीवन’ या ‘यह मिट्टी का तन’।
- शीर्षक : ‘मिट्टी की महिमा’।
- अज्ञानी जीवन को मिट्टी करता है।
- अनुप्रास अलंकार है।
17. पहले की तरह अब भी
अच्छी लगती हैं तुम्हारी बाँहें
लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम
उन्हें कुहनियों तक
ढकी रखो। पहले की तरह
अब भी तुम मुझे विदा करती हो,
लेकिन मेरी छाती पर खुली हुई
बटन बन्द कर देती हो।
काम से वापसी के बाद मैं
दरवाजा सूँघता हूँ और
तुम मेरी रूमाल-
हमें अपने पड़ोसियों से भय है।
शाम के वक्त हम अब भी घूमते हैं।
लेकिन अब हमारे हाखों में न कोई पत्ती होती है
न होंठें पर प्यार।
रात भोजन करते हुए
मैं अब भी थाली में छोड़ देता हूँ
एकाध लुकमा
और ‘थोड़ा-सा और खा लो’ के आग्रह के
बदले धीरे से अनाज की महँगाई की बात करती हो।
कहीं कुछ बदला नहीं है
लेकिन अब याद आता है
हम एक-दूसरे को कितना प्यार करते थे।
मैं उस दिन की बात सोचता हूँ
हम दोनों बाजार गए
और मुख-द्वार के लिए नया ताला खरीदा
एक ताली तुमने रख ली और एक ताली मैंने
यह अजनबी होने की शुरुआत थी
और अब तो हम रक्तपात के
उस मुकाम पर
पहुँच चुके हैं कि हमारे
खतों के पते भी
एक-दूसरे से अपना मुँह
चुराने लगे हैं।
प्रश्न :
1. कवि इस कविता में किसे संबोधित कर रहा है? वह क्या चाहता है?
2. काम से लौटने पर क्या स्थिति होती है?
3. प्यार में अब क्या परिवर्तन आ गया है?
4. कवि किस दिन की क्या बात सोचता है?
5. इस कविता की मूल संवेदना क्या है?
6. प्नी विदा करते समय क्या करती है ?
7. रात को भोजन करते समय क्या करता है ?
8. अजनबी होने की शुरूआत क्या थी ?
उत्तर :
1. इस कविता में कवि अपनी पत्नी को संबोधित करता है। कवि उससे यह कहना चाहता है कि उसे अब भी उसकी बाँहे पहले की तरह अच्छी लगती हैं, पर अब वह उन्हें ढक कर रखे, क्योंकि उसके मन में शंका का बीज उत्पन्न हो चुका है।
2. काम से लौटने पर कवि अपने घर का दरवाजा सूँघता है ताकि वह जान सके कि उसके पीछे घर में कोई आया तो न था। उसकी पत्नी उसका रूमाल सूँघकर देखती है ताकि वह जान सके कि उसका पति किसी अन्य स्त्री से मिला तो नहीं है अर्थात् दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति शंका है।
3. अब प्यार में कोई ताजगी या उत्साह नहीं होता। यह तो दैनिक जीवन का रूटीन बनकर रह गया है। उनके दिलों में प्यार की वास्तविकता शेष नहीं रह गई है। सिर्फ प्यार का निर्वाह किया जा रहा है। अब प्यार भरे आग्रह के स्थान पर महँगाई का रोना रहता है।
4. कवि उस दिन की बात सोचता है जब वे दोनों बाजार गए थे ताकि अपने-अपने मुँह के लिए एक-एक ताला खरीद सकें। यहीं से अजनबीपन की शुरुआत हो गई थी। इसी दिन से संबंधों में बिखराव आ गया था।
5. इस कविता की मूल संवेदना यह है कि पति-पत्नी के संबंधों में बिखराव की स्थिति आ गई है। उनका आपसी विश्वास और लगाव क्रमशः छीजता चला जा रहा है। उनके मध्य की अंतरंगता अजनबीपन में बदल गई है। शंका ने जन्म ले लिया है।
6. पत्नी विदा करते समय पति की छ्छाती पर कमीज का खुला बटन बंद कर देती है।
7. रात को भोजन करते समय पति अपनी थाली में रोटी का थोड़ा-बहुत हिस्सा छोड़ देता है। पत्नी अनाज के महँगाई की बात करती है।
8. अनजान होने की शुरुआत यह थी पति-पत्नी दोनों ने घर के दरवाज़े के ताले की एक-एक चाबी अलग-अलग रख्खनी शुरु कर दी थी।
18. जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम !
कुछ कुंठित औ कुछ लक्ष्य- श्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए!
-उनको प्रणाम!
जो छोटी-सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि-पार;
मन की मन में ही रही, स्वयं
हो गए उसी में निराकार।
-उनको प्रणाम!
जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह-रह नव-नव उत्साह भरे;
पर कुछ ने ले ली हिम-समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे !
– उनको प्रणाम !
एकाकी और अकिंचन से,
जो भू-परिक्रमा को निकले;
हो गए पंगु, प्रति-पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाँव चले !
– उनको प्रणाम !
कृतकृत्य नहीं जो हो पाए,
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल;
कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल !
-उनको प्रणाम !
थी उग्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दुखांत हुआ;
था जन्म-काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहांत हुआ !
-उनको प्रणाम !
प्रश्न :
1. कवि किनको प्रणाम करता है और क्यों?
2. ‘छोटी-सी नैया’ से कवि का क्या आशय है? उनका क्या हश्र हुआ?
3. कृतकृत्य कौन नहीं हो पाए? दुनिया ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया?
4. अंतिम चार पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
5. इस कविता के माध्यम से कवि क्या कहना चाह रहा है?
6. उच्च शिखर की ओर बढ़ने के बावजूद सत्याग्रहियों का क्या हश्र हुआ ?
7. दुनिया किनको भूल गई ?
8. साधकों का कैसा अंत हुआ ?
उत्तर :
1. कवि उन लोगों को प्रणाम करता है जो अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सके। यद्यपि उन्होंने अपनी ओर से पूरा प्रयास किया था, पर परिस्थितिवश उन्हें इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति न हो सकी। यह बात देश को स्वतंत्र कराने के कार्य के संदर्भ में कही गई है।
2. ‘छोटी-सी नैया’ से कवि का आशय है सीमित साधनों के बलबूते पर उन लोगों ने सागर को पार करने की ठानी थी। यह ‘सागर’ अंग्रेजी-साम्राज्य था। देशभक्त उससे सीमित साधनों के बलबूते पर टक्कर लेना चाह रहे थे। उनकी यह कामना मन में ही रह गई और वे मृत्यु के ग्रास बन गए।
3. जो व्यक्ति अपने लक्ष्य को पाने में असफल रहे अब वे अंग्रेजों द्वारा पकड़े जाने पर फाँसी के फंदे पर झूल गए। कुछ दिन बीतने के बाद ही यह दुनिया उनको भूल गई। हाँ, कवि को उनका स्मरण अवश्य है अतः वह उन्हें प्रणाम करता है।
4. कविता की अंतिम चार पंक्तियों में कि देशभक्तों, क्रांतिकारियों का जीवन उग्र एवं साधना पूर्ण था, पर अपेक्षित सफलता न मिलने के कारण उनके जीवन का दुखद अंत हो गया। उनके जन्म काल में सिंह लग्न होने के बावजूद असमय ही उनका देहांत हो गया। यह स्थिति विडंबनापूर्ण थी।
5. इस कविता के माध्यम से कवि यह कहना चाह रहा है कि सफलतां प्राष्क करने वालों को तो सभी याद करते हैं, पर जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दे दिया, पर परिस्थितिवश सफलता न पा सके, उनको भी समुचित आदर-सम्मान मिलना चाहिए। हमें उनको भूलना नहीं चाहिए।
6. सत्याग्रही उच्च शिखर की ओर बढ़े तो सही, पर उनमें से कुछ ने हिम-समाधि ले ली और कुछ असफल होकर नीचे उतर आए।
7. दुनिया उन शहीदों को भूल गई जो भले ही लक्ष्य में सफल नहीं हो पाए, पर वे फाँसी के फंदे पर लटकर अपना बलिदान दे गए।
8. साधकों का अंत दुखद हुआ। वे अपनी सफल नहीं हो पाए।
19. नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं
पुते गालों के ऊपर
नकली भवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठाई हुई
मुसकान मुसकराती
ये आँखें –
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं ….
तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ –
नहीं, वे मेरे देश की आँखें नहीं हैं…..
वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झाँकती हैं वे आँखें,
मेरे देश की आँखें,
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आँखें
डलिया हाथ से छोड़ा
और उड़ी धूत्ल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावस में से
मैले चाँद-चेहरे सकुचाते
में टँकी थकी पलकें
उठाई-
और कितने काल-सागरों के पार तैर आई
मेरे देश की आँखें …….
प्रश्न :
- कवि किस प्रकार की आँखों को अपने देश की नहीं मानता और क्यों?
- कवि किन आँखों को अपने देश की आँखे मानता है?
- इस कविता में कवि क्या कहना चाह रहा है?
- इस कविता से अनुप्रास और रूपक अलंकार के उदाहरण छाँटकर लिखिए।
- इस कविता की भाषा-शैली पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्यार का दिखावा करने वालों की आँखों कैसी हैं ?
- काल-सागर में किस अलंकार का प्रयोग है ?
- कविता का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
- कवि उन आँखों को अपने देश की नहीं मानता जो कृत्रिमता के मध्य स्थित रहती हैं। ऐसे लोगों के गाल पुते होते हैं, तथा नकली भौंहों के मध्य आँखें प्यार के छलावे का प्रदर्शन करती हैं। ऐसी आँखों पर शहरी वातावरण का प्रभाव होता है। इस प्रकार की आँखों में तनाव एवं घृणा भरी होती है।
- कवि ग्रामीण परिवेश में सहज जिंदगी जीती युवतियों की आँखों को अपने देश की मानता है। इन आँखों में सहजता एवं लज्जा का भाव होता है। ये बनावटपन से कोसों दूर होती हैं।
- इस कविता में कवि यह कहना चाह रहा है कि इस देश की पहचान शहरों के बनावटी वातावरण के कारण न होकर ग्रामीण जन-जीवन की सहजता के कारण है। देश के सच्चे स्वरूप की झलक ग्रामीण परिवेश में ही मिलती है।
- अनुप्रास अलंकार-1. मुसकान मुसकराती, 2. चाँद चेहरे। रूपक अलंकार-काल-सागरों के पार।
- इस कविता में सीधी, सरल एवं सहज भाषा का प्रयोग किया गया है। इसमें प्रतीकात्मकता का समावेश है। ‘शरारे’ उर्दू शब्द का प्रयोग है तो ‘काल-सागर’ और ‘मुकुट’ आदि तत्सम शब्दों का भी प्रयोग है। अनुप्रास एवं रूपक अलंकारों का भी सटीक प्रयोग हुआ है। कविता छंदमुक्त है।
- प्यार का दिखावः करने वालों की आँखों में सरलता, सहजता नहीं है। उनमें बनावट है, फल-कपट है।
- काल-सागर में रूपक अलंकार का प्रयोग है।
- शीर्षक : आँखों-आँखों में अंतर।
20. हो ग्राम-देवता! नमस्कार!
सोने-चाँदी से नहीं किन्तु
तुमने मिट्री से किया प्यार!
हे ग्राम-देवता! नमस्कार!
जन कोलाहल से दूर
कहीं एकाकी सिमटा-सा निवास,
रवि-शशि का उतना नहीं
कि जितना प्राणों का होता प्रकाश,
श्रम वैभव के बल पर करते हो
जड़ में चेतन का विकास,
दानों-दानों से फूट रहे
सौ-सौ दानों के हरे हास,
यह है न पसीने की धारा,
यह गंगा की है धवल धार,
हे ग्राम-देवता! नमस्कार!
अधखुले अंग जिनमें केवल,
हैं कसे हुए कुछ अस्थि-खंड
जिनमें दधीचि की हड़ी है,
यह वज्र इंद का है प्रचंड!
जो है गतिशील सभी ऋतु में
गरी-वर्षा हो या कि ठंड
जग को देते हो पुरस्कार
देकर अपने को कठिन दंड!
झोंपड़ी झुकाकर तुम अपनी
ऊँचे करते हो राज-द्वार!
हे ग्राम-देवता! नमस्कार!
तुम जन-मन के अधिनायक हो
तुम हैंसो कि फूले-फले देश
आओ, सिंहासन पर बैठो
यह राज्य तुम्हारा है अशेष!
उर्वरा भूमि के नये खेत के
नये धान्य से सजे वेश,
तुम भू पर रहकर भूमि-भार
धारण करते हो मनुज-शेष
अपनी कविता से आज तुम्हारी
विमल आरती लूँ उतार!
हे ग्राम-देवता ! नमस्कार !
प्रश्न :
- कवि किसको, क्यों नमस्कार कर रहा है?
- यह ग्राम-देवता क्या करता है?
- अधखुले अंगवाले कौन हैं?
- कवि ग्राम देवता को किस रूप में, कहाँ बिठाना चाहता है?
- यह ग्राम देवता कौन है? कवि उसके प्रति क्या भाव रखता है?
- ग्राम-देवता को किससे प्यार है ?
- पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का उदाहरण छाँटकर लिखिए।
- कविता का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
- कवि ग्राम-देवता को नमस्कार कर रहा है क्योंकि वह धन-दौलत के स्थान पर इस धरती की मिटृी को प्यार करता है। वह शहरी शोर-शराबे से दूर एकांत वातावरण में रहता है।
- यह ग्राम-देवता अपने प्राणों से संसार में प्रकाश करता है। यह जड़ में चेतनता भरता है। यह एक-एक दाने से सौ-सौ दाने उगाता है। इसमें उसका श्रम लगा हुआ है। उसके द्वारा बहाया गया पसीना गंगा की धार की तरह पवित्र है।
- ग्रामीणों के शरीर पर पूरे वस्त्र न होने से उनके आधे अंग खुले ही रह जाते हैं। उनकी हङ्डियाँ तो दर्धीचि की तरह हैं जो परोपकार के लिए बनी हैं। उसका शरीर इंद्र के वज्र (हथियार) के समान है जो सभी ऋतुओं की मार को झेलता है।
- कवि ग्राम-देवता को जन-मन का अधिनायक मानता है। वह उसे देश के सिंहासन पर बिठाना चाहता है। वही इस देश का असली शासक है। ये उपजाऊ खेत उसी के साम्राज्य का हिस्सा हैं।
- यह ग्राम-देवता गाँव का किसान है। कवि उसके प्रति आदर-सम्मान का भाव रखता है। कवि उसकी आरती उतारना चाहता है और उसे नमस्कार करता है।
- ग्राम-देवता को मिट्टी से प्यार है।
- पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार के उदाहरण है।
- शीर्षक : ग्राम-देवता।
21. चंचल पग दीपशिखा के धर
गृह, मग, वन में आया वसंत!
सुलगा फाल्युन का सूनापन
सौंदर्य शिखाओं में अनंत!
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसंत, भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह!
पल्लव-पल्लव में नवल रुधिर
पत्रों में मांसल रंग खिला,
आया नीली-पीली लौ से
पुष्पों के चित्रित दीप जला!
अधरों की लाली से चुपके
कोमल गुलाब के गाल लजा,
आया, पंखुड़ियों को काले –
पीले धब्बों से सहज सजा !
कलि के पलकों में मिलन स्वप्न,
अलि के अंतर में प्रणय गान
लेकर आया, प्रेमी वसंत
आकुल जड़ चेतन स्नेह प्राण!
काली कोकिल! सुलगा उर से
स्वरमई वेदना का अंगार,
आया वसंत, घोषित दिगंत
करती, भर पावक की पुकार!
प्रश्न :
1. इस कविता में किस ऋतु का वर्णन है? यह कहाँ आ गया है?
2. ‘सुलगा फागुन का सूनापन’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
3. इस ॠतु ने फूल-पत्तों के स्वरूप में क्या-क्या परिवर्तन ला दिए हैं?
4. प्रेमी के रूप में वसंत क्या कर रहा है?
5. इस कविता में प्रकृति-चित्रण की कौन-सी विशेषता आपको आकर्षित करती है?
6. वसंत के आने से क्या हुआ है ?
7. पुनरुक्ति प्रकश अलंकार छाँटकर लिखिए।
8. अनुप्रास अलंकार का एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर :
1. इस कविता में वसंत ऋतु का वर्णन है। यह घर, मार्ग एवं वन में आ गया है अर्थात् इन सभी स्थानों पर इसका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
2. ‘सुलगा फागुन का सूनापन’ से आशय यह है कि फागुन मास में वसंत का आगमन ह्दय में कामनाओं की आग सुलगा देता है। इस ऋतु में दिल में एक शीतल-सी ज्वाला (विरोधाभास) जलती है। इसमें जलन न होकर मिठास होती है। यह बड़ी अच्छी प्रतीत होती है।
3. वसंत ऋतु ने फूल-पत्तों के स्वरूप में अनेक प्रकार के परिवर्तन ला दिए हैं। पत्तों में हरियाली के रूप में रुधिर दौड़ पड़ता प्रतीत होता है। गुलाब की लाली होठों की लालिमा की तरह लगती है। फूलों की पंखुड़ियाँ तरह-तरह के रंगों के धब्बों से सजी लगती हैं।
4. वसंत का एक रूप प्रेमी का भी है। वह इस रूप में कलियों (प्रेयसियों) की आँखों में मिलन के स्वप्न (आकांक्षा) जगाता है। उनके हृदयों में प्रेमी-गीत की गुनगुनाहट उत्पन्न करता है।
5. इस कविता में प्रकृति का मनोहारी चित्रण हुआ है। इसमें प्रकृति का उद्दीपन रूप अधिक उभरा है। वसंत ऋतु में प्रकृति हमारे मन की कोमल भावनाओं को जाग्रत करती है तथा प्रेममय वातावरण का निर्माण करती जान पड़ती है।
6. वसंत के आने से फागुन मास का सूनापन समाप्त होकर सुलग उठा है।
7. उर-उर, पल्लव-पल्लव में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
8. ‘काली कोकिल’ में अनुप्रास अलंकार है।
22. भयानक सूखा है
पक्षी छोड़कर चले गए हैं
पेड़ों को
बिलों को छोड़कर चले गए हैं चींटे
चींटियाँ
देहरी और चौखट
पता नहीं कहाँ-किधर चले गए हैं
घरों को छोड़कर
भयानक सूखा है।
मवेशी खड़े हैं
एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए
कहते हैं पिता
ऐसा अकाल कभी नहीं देखा
ऐसा अकाल कि बस्ती में
दूब तक झुलस जाए
सुना नहीं कभी
दूब मगर मरती नहीं-
कहते हैं वे
और हो जाते हैं चुप
निकलता हूँ मैं
दूब की तलाश में
खोजता हूँ परती-पराठ
झाँकता हूँ कुँओं में
छान डालता हूँ गली-चौराहे
मिलती नहीं दूब।
अंत में
सारी बस्ती छानकर
लौटता हूँ निराश
लाँघता हूँ कुएँ के पास की
सूखी नाली
कि अचानक मुझे दिख जाती है
शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच
एक हरी पत्ती
दूब है
हाँ-हाँ दूब है
पहचानता हूँ मैं।
लौटकर यह खबर
देता हूँ पिता को
अँधेरे में भी
दमक उठता है उनका चेहरा
है-अभी बहुत कुछ है
अगर बची है दूब ……’
बुदबुदाते हैं वे
फिर गहरे विचार में
खो जाते हैं पिता।
प्रश्न :
- इस कविता में किस समस्या का चित्रण है? इसका असर किस रूप में दिखाई दे रहा है?
- पिता क्या कहकर चुप हो जाते हैं?
- कवि किस प्रयास में निकलता है? वह कहाँ-कहाँ दूब खोजता है?
- कवि को किस जगह दूब मिलती है?
- कवि पिता को क्या समाचार देता है और उन पर इसकी क्या प्रतिक्रिया होती है?
- सूखा के कारण प्रकृति में क्या बदलाव आ गया है ?
- कवि दूब की खोज कहाँ-कहाँ करता है ?
- कविता का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
- इस कविता में भयानक सूखा पड़ने की समस्या का चित्रण किया गया है। इसे अकाल भी कहा जाता है। इस भयानक सूखे के कारण पक्षी पेड़ों को छोड़कर चले गए हैं तथा चीटे-चीटियाँ भी अपने बिलों को छेड़कर पता नहीं किधर चले गए हैं। पशु भी एक-दूसरे का मुँह ताक रहे है।
- पिता इस अकाल को देखकर कहते हैं कि ऐसा अकाल पहले कभी नहीं देखा गया जिसमें बस्ती की दूब तक झुलस जाए। पर प्रायः ऐसा सुना जाता है कि ‘दूब कभी मरती नहीं’ वे यह कहकर चुप हो जाते हैं।
- कवि दूब की तलाश में निकलता है। वह सूखी, बंजर धरती में उसे खोजता है तथा कुंओं में झाँककर देखता है। वह सभी गली-चौराहों में उसकी खोज करता है पर वहाँ उसे दूब नहीं मिलती।
- कवि जब दूब की तलाश में थक जाता है और निराश तक हो जाता है तब एक कुएँ के पास की सूखी नाली में उसे अचानक दूब दिखाई दे जाती है। वह शीशे के बिखरे टुकड़ों के बीच झाँकती एक हरी पत्ती को पहचान लेता है। यह दूब ही थी।
- कवि दूब पाने की सूचना अपने पिता को देता है। इस समाचार को सुनकर अँधेरे में उनका चेहरा चमक उठता है। यह दूब अभी बहुत कुछ बचे होने की संभावना दर्शाती है। यह कहकर वे गहरे विचार में खो जाते हैं।
- सूखा के कारण पेड़ों से पक्षी चले गए हैं, चींटे बिलों को छोड़ गए, चींटियाँ भी देहरी-चौखट से चली गई हैं।
- कवि दूब की खोज परती भूभि, कुँओं के निकट, बस्ती भर में खोज करता है।
- शीर्षक : ‘भयानक सूखा में उम्मीद की किरण’।
23. हो जाए न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं-
वह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है।
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है।
बच्चे प्रत्याशा में होंगे
नीड़ों में झाँक रहे होंगे-
यह ध्यान परों में चिड़ियों के मरता कितनी चंचलता है।
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है,
मुझसे मिलने को कौन विकल ?
मैं होके किसके हित चंचल ?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को भरता उर में विद्वलता है।
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है।
प्रश्न :
- लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पथिक को किस बात का भय है ?
- दिन भर का थका-माँदा पथिक क्या चाहता है ?
- कवि प्रकृति में क्या देखता है ?
- कवि मन ही मन क्या सोच रहा है ?
- उपर्युक्त काव्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
- कवि जल्दी-जल्दी क्यों चलता है ?
- पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार छाँटकर लिखिए।
- प्रत्याशा में कौन होंगे ? वे क्या कर रहे होंगे ?
उत्तर :
- लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पथिक को इस बात का भय है कि कहीं दिन छिप न जाए। यह दिन ढलना उसकी जीवन संध्या के आने की ओर संकेत है।
- दिन भर का थका माँदा पथिक यह चाहता है कि वह रात होने से पूर्व ही अपने घर पहुँच जाए।
- कवि प्रकृति में यह देखता है कि चिड़ियाँ तेजी से उड़ती हुई अपने घोंसलों की ओर चली जा रही हैं। वे अपने प्रतीक्षारत बच्चों से मिलने को विकल है।
- कवि मन ही मन यह सोच रहा है कि वह घर जल्दी क्यों पहुँचना चाह रहा है, जबकि घर पर उसकी प्रतीक्षा करने वाला तो कोई नहीं है। तब वह किसके लिए इतनी चंचलता दिखाए।
- शीर्षक-‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है’।
- कवि इसलिए जल्दी-जल्दी चलता है ताकि वह शीप्र ही घर पहुँच जाए। रात में भी होने वाली है।
- ‘जल्दी-जल्दी’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- बच्चे प्रत्याशा (आशा) में होंगे। वे बाहर की ओर झाँक-झाँक पिता की प्रतीक्षा कर रहे होंगे।
24. छज्जे पर बैठी गौरेया गुमसुम सोच रही
कहाँ गई आँगन की बैठक, आसन दादी का
बच्चों का कल्लोल कीमती सोना-चाँदी-सा
घर क्या बँटा उदासी सबके सुइयाँ कोंच रही।
घर छोटा लगता था, अब हर कमरा ही घर है
हर भाई निजद्वीप
दिलों के बीच समंदर है
सबकी नज़र दूसरों में ही कमियाँ खोज रही।
गिनी चुनी बातें, हँसना तो अब खैर अतीत हुआ
अबकी बार मायके में दो दिन ही टिकी बुआ
बहिन कुँआरी देख आरसी आँसू पोंछ रही,
कहाँ रोज चुग्गा व्यंजन होली दीवाली में
अब जूठन तक नहीं छोड़ता कोई थाली में।
बिस्मित गोरैया अपनी ही किस्मत को कोस रही।
प्रश्न :
1. गौरेया विस्मित होकर अपनी किस्मत को क्यों कोस रही है ?
2. अब घर की क्या स्थिति हो गई है ?
3. छन्जे पर बैठी गौरेया गुमसुम होकर घर-आँगन के बारे में क्या सोच रही है ?
4. बँटवारे से पहले घर में चिड़िया की क्या स्थिति थी ?
5. अबकी बार मायके में दो दिन ही टिकी बुआ’-इसका संभावित कारण बताइए।
6. छन्जे पर बैठी गौरेया की क्या दशा है ?
7. ‘दिलों के बीच समंदर’ से क्या तात्पर्य है ?
8. अब भोजन के बारे में क्या बदलाव आ गया है ?
उत्तर :
1. गौरेया विस्मित होकर अपनी किस्मत को इसलिए कोस रही है कि अब वह अपने ही घर में अकेली होकर रह गई है। घर का बँटना उसे अपनी खराब किस्मत लगती है।
2. अब घर की यह स्थिति हो गई है कि घर बँट गया हैं बच्चे अपने-अपने घर चले गए हैं। घर-आँगन सूना हो गया है।
3. छज्जे पर बैठी गुमसुम होकर घर-आँगन के बारे में यह सोच रही है कि अब आँगन की बैठक कहाँ चली गई ? पहले सब आँगन में बैठते थे, पर अब वह अकेली रह गई है। उसके पास बैठने वाला कोई नहीं रहा। पहले जो घर छोटा लगता था, वही अब बड़ा हो गया है। पहले बच्चे भी रहते थे। अत: घर छोटा लगता था। अब वह कमरे में रहने वाली अकेली है।
4. बँटवारे से पहले घर में चिड़िया की स्थिति दादी के समान थी। वही बच्चों के बीच बैठकर दादी की भूमिका का निर्वाह करती थी।
5. अब की बार मायके में केवल दो दिनों तक टिकने का यह संभावित कारण हो सकता है कि घर में बातचीत करने वाले बच्चे नहीं है तथा घर में खाने-पीने की चीजों की सुविधा पहले जैसी नहीं रही।
6. छज्जे पर बैठी गौरेया गुमनाम अवस्था में बैठी हुई है।
7. दिलों के बीच समंदर से तात्पर्य है-दो व्यक्तियों के दिलों की भावनाओं में बहुत अंतर भी जाना।
8. अब भोजन की थाली में कोई जूठन तक नहीं छोड़ता।