CBSE Class 11 Hindi Elective अपठित बोध अपठित गद्यांश
प्रश्न : निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में लिखिए-
1. प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनेक प्रकार की बाधाएँ उपस्थित हैं। बाधाएँ मनुष्य की कर्मशीलता व अकर्मण्यता को उजागर करती हैं। कर्मशील व्यक्ति बाधाओं का सामना करते हैं जबकि अकर्मण्य व्यक्ति निराश व उत्साहहीन बन जाते हैं। मानव की क्षमता, अमूल्य जीवन के प्रति उसकी गंभीरता, कष्ट सहिष्णुता और पौरुषमयता आदि गुणों का प्रकटीकरण बाधाओं के बिना संभव नहीं है। इसलिए विकास के मार्ग में बाधाओं के आने पर मनुष्य को धैर्यपूर्वक अपनी क्षमता का परिचय देते हुए, बाधाओं को दूर करते हुए अपने लक्ष्य-प्राप्ति हेतु सतत् प्रयत्नशील रहना चाहिए।
इससे मनुष्य लक्ष्य-प्राप्ति में पूर्ण रूप से सफल होता है और तब बाधारहित लक्ष्य की प्राप्ति से अधिक आनन्दानुभूति की प्राप्ति होती है और उसकी गौरव-वृद्धि भी होती है। इस सृष्टि में अस्तित्व को कायम रखने वाले आशा और विश्वास महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विश्वास का सिंहासन डोलने पर निराशा का वातावरण उपस्थित हो जाता है। आशा मानव-जीवन में सबसे बड़े संबल का कार्य करती है। आशा की उपस्थिति में मनुष्य की क्षमता और योग्यता का विकास होता है। आशापूर्ण दृष्टिकोण मनुष्य में उत्साह की निरंतर अभिवृद्धि करता है व लक्ष्य प्राप्ति में सहायक सिद्ध होता है।
प्रश्न :
1. आशावादी दृष्टिकोण मानव जीवन में किस प्रकार सहायक है?
2. लक्ष्य प्राप्त हो जाने पर मानव की क्या स्थिति होती है?
3. मानव को लक्ष्य-प्राप्ति हेतु क्या करना चाहिए?
4. मानव के कौन से गुण बाधाओं के बिना प्रकट नहीं होते?
5. मनुष्य की क्षमता व योग्यता के विकास का मूल आधार क्या है?
6. मानव-अस्तित्व को बनाए रखे में सहायक तत्व कौन से हैं?
7. गद्याश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
1. आशावादी दृष्टिकोण मानव-जीवन में संबल का कार्य करता है। इससे उसमें उत्साह का संचार होता है तथा वह लक्ष्य प्राप्ति की ओर निरंतर अग्रसर रहता है।
2. लक्ष्य प्राप्त हो जाने पर मानव अत्यधिक आनंद की अनुभूति करता है। इससे उसके गौरव की वृद्धि होती है। उसके मार्ग की सभी बाधाएँ दूर हो जाती हैं।
3. मानव को लक्ष्य प्राप्ति हेतु मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए सतत् प्रयत्शशील रहना चाहिए। बाधाओं के आने पर उसे धैर्य का परिचय देना चाहिए तथा मन में उत्साह और आशा का भाव बनाए रखना चाहिए।
4. मानव के गुण बाधाओं में ही प्रकट होते हैं। मानव के गुण-गंभीरता, कर्मशीलता, कष्ट सहिष्णुता और पौरुषमयता आदि गुण बाधाओं के आने पर ही प्रकट होते हैं।
5. मनुष्य की क्षमता और योग्यता का मूलाधार है-उसका आशावादी दृष्टिकोण, कर्मण्यता, कष्ट सहिष्णुता।
6. मानव अस्तित्व को बनाए रखने में ये तत्त्व सहायक हैं : 1. आशा, 2. विश्वास।
7. शीर्षक-जीवन में लक्ष्य की प्राप्ति।
2. विद्या को मनुष्य का तीसरा नेत्र बताया गया है। हमारी दोनों आँखें तो केवल वही देख पाता हैं जो जगत उनके सम्मुख उपस्थित होता है, किन्तु इस दृश्य जगत के पीछे भी बहुत कुछ जानना मनुष्य के लिए आवश्यक होता है। इस महत्त्वपूर्ण ज्ञान से परिचित कराने वाली विद्या ही होती है। विद्या की प्राप्ति निरंतर अध्ययन से ही होती है। विश्व के महापुरुषों की सफलता और प्रसिद्धि के पीछे अध्ययन की प्रवृत्ति होती है। अध्ययन ही उनके जीवन का मूलमंत्र होता है। गाँधीजी के बारे में कहा जाता है कि वे अवकाश का एक भी क्षण ऐसा नहीं जाने देते थे जिसमें वे कुछ पढ़ते न हों। इसी प्रकार लोकमान्य तिलक, वीर सावरकर और पंडित नेहरू आदि महान नेताओं ने जो महान ग्रंथ मानव जाति को प्रदान किए, वे उनके अध्ययन का ही परिणाम थे।
अध्ययन मनुष्य की चिंतनशक्ति और कार्यक्षमता को बढ़ाता है। अध्ययन कायर व्यक्तियों में भी शक्ति और निराश व्यक्तियों में आनंद का संचार करता है। अध्ययन के बिना मनुष्य का जीवन अधूरा है। जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ रखने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मन और मस्तिष्क को स्वस्थ एवं क्रियाशील रखने के लिए अध्ययन आवश्यक है। इसके साथ यही ध्यान रखने योग्य बात है कि जिस प्रकार बिगड़ा हुआ भोजन करने से शरीर रुग्ण हो जाता है उसी प्रकार कुपथमार्गी पुस्तकों से मन और मस्तिष्क में विकार आ जाता है। इसलिए हमें श्रेष्ठ पुस्तकों का ही अध्ययन करना चाहिए।
प्रश्न :
1. विद्या को मनुष्य का तीसरा नेत्र क्यों बताया गया है?
2. अनेक महापुरुषों ने जीवन में किस प्रकार सफलता और प्रसिद्धि प्राप्त की?
3. अध्ययन का मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?
4. मन और मस्तिष्क को स्वस्थ रखने के लिए अध्ययन क्यों आवश्यक है?
5. विद्या की प्राप्ति कैसे होती है?
6. गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
7. कुपथमार्गी पुस्तकें क्या हानि पहुँचाती हैं?
उत्तर :
1. विद्या को मनुष्य का तीसरा नेत्र इसलिए बताया गया है क्योंकि अदृश्य जगत से परिचित कराने का काम विद्या ही करती है। बाहरी नेत्र तो केवल वही दिखाते हैं जो जगत के सम्मुख उपस्थित होता है। विद्या तीसरे नेत्र का काम करती है।
2. अनेक महापुरुषों ने अपने जीवन में सफलता और प्रसिद्धि अपनी गहन अध्ययन की प्रवृत्ति के कारण प्राप्त की। अध्ययन करना ही उनके जीवन का मूलमंत्र था। वे एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देते, अपितु निरंतर अध्ययन करते रहते हैं।
3. अध्ययन का मनुष्य के जीवन पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इससे मनुष्य की चिंतनशक्ति और कार्यक्षमता बढ़ती है। इससे निराश व्यक्ति में शक्ति और आनंद का संचार होता है। अध्ययन के बिना जीवन अधूरा रहता है।
4. मन और मस्तिष्क को स्वस्थ रखने के लिए अध्ययन उनके लिए भोजन का काम करता है। सामान्य भोजन तो शरीर को स्वस्थ रखता है, पर अध्ययन मन और मस्तिष्क का भोजन है। पर केवल श्रेष्ठ पुस्तकों का ही अध्ययन करना चाहिए।
5. विद्या की प्राप्ति के लिए हमें अच्छी-अच्छी पुस्तकों का निरतं अध्ययन करते रहना चाहिए।
6. शीर्षक-विद्याध्ययन का महत्त्व।
7. कुपथमार्गी पुस्तकों के अध्ययन से मन और मस्तिष्क में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। इनके अध्ययन से बचना चाहिए।
3. सभी धर्म हमें एक ही ईश्वर तक पहुँचाने के साधन हैं। अलग-अलग रास्तों पर चलकर भी हम एक ही स्थान पर पहुँचते हैं। इसमें किसी को दुखी नहीं होना चाहिए। हमें सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखना चाहिए। दूसरे धर्मों के प्रति समभाव रखने से धर्म का क्षेत्र व्यापक बनता है। हमारी धर्म के प्रति अंधता मिटती है। इससे हमारा प्रेम अधिक ज्ञानमय एवं पवित्र बनता है। यह बात लगभग असंभव है कि इस पृथ्वी पर कभी भी एक धर्म रहा होगा या हो सकेगा। यही कारण है कि लेखक विविध धर्मों में ऐसे तत्त्व को खोजने का प्रयास करता है जो विविध धर्मों के अनुयायियों के मध्य सहनशीलता की भावना को विकसित कर सके।
सत्य के अनेक रूप होते हैं। यह सिद्धांत हमें दूसरे धर्मों को भली प्रकार समझने में मदद करता है। लेखक सात अंधों का उदाहरण देता है जिन्होंने हाथी का वर्णन अपने-अपने छंग से किया। जिस अंधे को हाथी का जो अंग हाथ में आया, उसके अनुसार हाथी वैसा ही था। एक प्रकार से वे सभी अपनी-अपनी समझ से सही थे, पर इस दृष्टि से गलत थे कि उन्हें पूरे हाथी की समझ थ्त थी। जब तक अलग-अलग धर्म मौजूद हैं, तब तक उनकी पृथक पहचान के लिए बाहरी चिह्न की आवश्यकता होती है, लेकिन ये चिह्न जब आडंबर बन जाते हैं और अपने धर्म को दूसरे से अलग बताने का काम करने लगते हैं, तब त्यागने के योग्य हो जाते हैं। धर्म का उद्देश्य तो यह होना चाहिए कि वह अपने अनुयायियों को अच्छा इंसान बनाए। उसे ईश्वर से यह प्रार्थना करनी चाहिए-तू सभी को वह प्रकाश प्रदान कर, जिसकी उन्हें अपने सर्वोच्च विकास के लिए आवश्यकता है।
ईश्वर एक ऐसी रहस्यमयी शक्ति है जो सर्वत्र व्याप्त है। उस शक्ति का अनुभव तो किया जा सकता है, पर देखा नहीं जा सकता। इस शक्ति का कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता। वह शक्ति इंद्रियों की पहुँच के बाहर है। लेखक का अनुभव करता है कि उसके चारों ओर हर चीज हमेशा बदलती रहती है और नष्ट होती रहती है। इन परिवर्तनों के पीछे कोई ऐसी शक्ति अवश्य है जो बदलती नहीं। वही शक्ति नया निर्माण एवं संहार करती रहती है।
प्रश्न :
1. सभी धर्म हमें कहाँ तक पहुँचाते हैं?
2. हमें दूसरे धर्मों के प्रति क्या दृष्टिकोण रखना चाहिए? क्यों?
3. हाथी का उदाहरण क्या बात समझाने के लिए दिया गया है? क्या यह ठीक उदाहरण है?
4. बाह्या चिह्न कब धार्मिक आडंबर जन जाते हैं?
5. ईश्वर को कैसी शक्ति बनाया गया है?
6. ईश्वरीय शक्ति क्या करती रहती है?
7. गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
1. सभी धर्म हमें ईश्वर तक पहुँचाते हैं। भले ही उनके रास्ते अलग-अलग हों।
2. हमें दूसरे धर्मों के प्रति समान भाव रखना चाहिए। दूसरे धर्मों के प्रति समभाव रखने से धर्म का क्षेत्र व्यापक बनता है और हमारी धर्म के प्रति अंधता मिटती है। हमारा प्रेम ज्ञानमय और पवित्र बनता है।
3. हाथी का उदाहरण इस बात को समझाने के लिए दिया गया है कि ईश्वर तो एक है, पर विभिन्न धर्मावलंबी उसे अपने-अपने ढंग से पाने के उपाय को ही सही और पूर्ण बताते हैं।
4. धर्म के बाह्य चिद्य तब आडंबर बन जाते हैं जब वे अपने धर्म को दूसरे से अलग बताने का काम करने लगते हैं। तब ये बाह्य चिह्न त्यागने योग्य हो जाते हैं।
5. ईश्वर को एक ऐसी रहस्यमयी शक्ति बताया गया है जो सर्वत्र व्याप्त है अर्थात् सभी जगह समाई हुई है। हम उस शक्ति का अनुभव तो कर सकते हैं, पर देख नहीं सकते। इस शक्ति का कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता।
6. ईश्वरीय शक्ति नव-निर्माण तथा संहार करती रहती है।
7. शीर्षक-विभिन्न धर्म और ईश्वर।
4. वृक्षों में पीपल का विशेष महत्त्व है। हिमालय की ऊँचाइयों को छोड़कर यह सभी जगह मिलता है। यह बरगद का भाई है। यह बरगद से विशिष्ट इस मायने में है क्योंकि यह पूरे रूप में सुंदर प्रतीत होता है। जब इसमें नए कोमल पत्ते निकलते हैं और बिना हवा के स्पर्श के हिलते दिखाई देते हैं तो बड़े भले प्रतीत होते हैं। पलाश के फूल तो लाल अंगारों के समान दहकते प्रतीत होते हैं, जबकि पीपल के पत्तों की सुंदरता से हजारों पक्षी खिंचे चले आते हैं।
पीपल के पेड़ को कोई आसानी से रोक या हटा नहीं सकता। यह बिना उगाए स्वयं उग जाता है। चिड़िया पीपल का गोदा खाकर पुराने मकानों की संधियों में पीपल का बीज बिखेर देती है तो पीपल उग जाता है। किसी-किसी पेड़ की डाली पर इसका बीज पड़ जाता है तो पीपल उग जाता है। गाँवों में लोग पीपल को काटते डरते हैं। पीपल के पत्तों पर लोग रामनाम लिखते हैं। पीपल के पेड़ की छाया में पंचायत जुटती थी। वहाँ लोग झूठ नहीं बोल सकते थे।
गाँवों में पीपल को वासुदेव भी कहते हैं। पीपल के पेड़ में मरे व्यक्ति का दाह हो जाने पर उसका जीवन-घट बाँधा जाता है। दस दिन तक उस घड़े से एक-एक बूँद पानी रिसकर पीपल को सींचता रहता है। इस पीपल के पेड़ के नीचे कभी कोई साधु-फकीर धूनी रमाता है तो वह पेड़ पूजने लगता है। कोई सिंदूर लगा देता है या धागा बाँध देता है तो फिर यह सिलसिला शुरू हो जाता है। पीपल के पेड़ से जहाँ सुखद छाया मिलती है तो कभी-कभी उससे डर भी लगता है।
हमारी संस्कृति में पीपल को जीवन-तरु माना गया है। यह जीवन-मरण, हर्ष-विवाद, राग-विराग सभी में भरोसा दिलाता है। एक ओर यह सत्य का भरोसा देता है कि यहाँ आकर कोई झूठ नहीं बोलेगा तो दूसरी ओर भय देता है। अदृश्य सत्ताएँ भी यहाँ हैं, वे और कुछ नहीं तुम्हारे भीतर के असत्य हैं। गाँव में यदि पीपल न हो तो उसकी शोभा घट जाती है। पीपल की छाँह में बड़ा परिवार मिलता है, पर स्वयं में बहुत अकेला, विरागी है।
हाथी पीलवान, बकरियों को प़लने वाले इसकी पत्तियों को बेरहमी से उजाड़ते हैं। इस सबका सुख-दु:ख, संपत्ति-विपत्ति देखते-देखते काठ हो गया है। यह तो बस जीवन का छंद अपनी पत्तियों की थिरकन के द्वारा गुनगुनाता रहता है। सभी मौसमों को झेलना ही जीवन है। पीपल को श्रीकृष्ग की साक्षात् देव प्रतिमा माना जाता है। यह भारत में बहुत पूजा जाता है। स्त्रियाँ इसकी विशेष रूप से पूजा करती हैं। यह उनकी मनौतियों को पूरा करता है। इसकी उपस्थिति में स्त्रियाँ बड़ी विनीत, बड़ी तरल और बड़ी सरल हो जाती हैं। उनकी तरलता ही संस्कृति को पोषण करती है।
प्रश्न :
1. इस गद्यांश में किस वृक्ष के बारे में बताया गया है? यह कहाँ मिलता है?
2. यह बरगद से किन मायनों में विशिष्ट है?
3. पीपल कैसे उग आता है?
4. गाँव में पीपल के वृक्षों के साथ लोग क्या-क्या काम सम्पन्न करते हैं?
5. हमारी संस्कृति में पीपल को क्या माना गया है? क्यों?
6. स्त्रियाँ पीपल की पूजा क्यों करती हैं?
7. गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
1. इस गद्यांश में पीपल वृक्ष के बारे में बताया गया है। यह वृक्ष हिमालय की ऊँची जगहों के अलावा सर्वत्र मिलता है।
2. पीपल को बरगद का भाई कहा जाता है, पर वह बरगद से विशिष्ट इस मायने में है क्योंकि यह पूरे रूप में सुंदर प्रतीत होता है। जब इसमें नए कोमल पत्ते निकलते हैं तो ये हवा के स्पर्श से हिलते सुंदर प्रतीत होते हैं।
3. पीपल बिना उगाए स्वयं उग आते हैं। चिड़िया पीपल का गोदा खाकर पुराने मकानों की संधियों (दरारों) में पीपल के बीज बिखेर देती है तो पीपल वहीं उग आता है। जब किसी पेड़ की डाली पर इसका बीज पड़ जाता है, तो भी पीपल उग आता है।
4. गाँव में लोग पीपल काटने से डरते हैं। वे पीपल के पत्तों पर रामनाम लिखते हैं। पीपल के पेड़ की छाया में पंचायत करते हैं। वे पीपल को वासुदेव भी कहते हैं; पीपल की पूजा करते हैं। मरे व्यक्ति का जीवन-घट पीपल से बाँधते हैं।
5. हमारी संस्कृति में पीपल को जीवन-तरु माना गया है। यह जीवन-मरण, हर्ष-विषाद, राग-विराग का भरोसा दिलाता है। उसके नीचे कोई असत्य नहीं बोल सकता।
6. स्त्रियाँ पीपल की पूजा इसलिए करती हैं क्योंकि यह उनकी मनौतियों को पूरा करता है। इसके नीचे वे विनीत, तरल और सरल हो जाती हैं।
7. शीर्षक-भारतीय संस्कृति में पीपल का महत्त्व।
5. वर्तमान युग नारी स्वातंत्र्य का युग है विश्व के प्रत्येक भाग में आज सदियों से उत्पीड़ित, शोषित नारी पुरुष के सामने खड़ी है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ ही उनमें आत्मविश्वास बढ़ा है। आज इसी आत्मविश्वास एवं जागृति क। परिणाम है कि नारी प्रत्येक कठिन कार्य को चाहे वह वैज्ञानिक क्षेत्र में हो या तकनीकी क्षेत्र में अथवा राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में हो, उसको उसी योग्यता और दक्षता से पूर्ण कर रही है, जिस योग्यता से पुरुष करते हैं। दूसरे शब्दों में, ऐसा कोई कार्य नहीं जिसे पुरुष कर सकते हैं और नारियाँ नहीं कर सकतीं। राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान भी नारियों के सहयोग के बिना पूर्ण नहीं हो सकते।
आज नारी राष्ट्र-निर्माण-कार्य में पूर्ण सहयोग दे रही है। घर में वह अपने बच्चों को राष्ट्र का अच्छा नागरिक बनाने के लिए उन्हें प्रेरणा और उचित मार्गदर्शन दे रही है तो दूसरी ओर वह राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक समस्याओं के समाधान में भी हाथ बँटा रही है। प्रशासनिक क्षेत्रों में वह प्रधानमंत्री तक के दायित्व को सफलतापूर्वक निभा चुकी है और देश के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने से पीछे नहीं हटी। आज शिक्षा, चिकित्सा, प्रशासन, व्यापार, नृत्य-संगीत, पर्वतारोहण, खेलकूद, मनोरंजन, राजनीति, न्यायालय, विश्वविद्यालय ऐसा कौन-सा स्थान है जहाँ नारियों का योगदान नहीं है। अब तो सेना और पुलिस में भी महिलाएँ कार्यरत हैं तथा अपनी कर्मठता और धैर्य का परिचय दे रही हैं। इतना ही नहीं, नारी अब विमानन के क्षेत्र में भी सक्रिय है। सत्य तो यह है कि राष्ट्र-निर्माण के सभी क्षेत्रों में भारतीय महिलाएँ सक्रिय हैं।
प्रश्न :
1. वर्तमान युग को किसका बताया गया है?
2. शिक्षा के प्रचार-प्रसार से नारी की स्थिति में क्या बदलाव आया है?
3. आज की नारी किस-किस क्षेत्र में कार्य कर रही है?
4. राष्ट्र-निर्माण के दायित्व का निर्वाह नारी किस प्रकार कर सकती है?
5. महिलाएँ अपने किन-किन गुणों का परिचय दे रही हैं?
6. गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
7. प्रत्यय अलग करके लिखिए-कर्मठता, भारतीय।
उत्तर :
1. वर्तमान युग को नारी-स्वतंत्रता का युग बताया गया है।
2. शिक्षा के प्रचार-प्रसार से नारी की स्थिति में बहुत परिवर्तन आया है। उसमें आत्मविश्वास बढ़ा है। वह जागृत हुई है।
3. आज की नारी विज्ञान के क्षेत्र में, तकनीकी क्षेत्र में, राजनीति के क्षेत्र में और प्रशासन के क्षेत्र में अपनी योग्यता और दक्षता से सफलतापूर्वक कार्य कर रही है।
4. नारी राष्ट्र-निर्माण के क्षेत्र में पूरा-पूरा सहयोग दे रही है। वह अपने बच्चों को अच्छा नागरिक बनाकर, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक समस्याओं के समाधान में हाथ बँटाकर राष्ट्र-निर्माण का काम कर सकती है।
5. महिलाएँ अपनी कर्मठता, धैर्य, लग्नशीलता, सेवा-भावना, दायित्व निर्वाह करने की क्षमता आदि गुणों का परिचय दे रही हैं। वे देश के लिए प्राण देने से भी पीछे नहीं हटतीं। उनमें त्याग-भावना है।
6. शीर्षक-वर्तमान युग की नारी।
7. प्रत्यय-कर्मठता-ता भारतीय-ईय।
6. संसार के विभिन्न धर्मों के कर्मकांड या बाह्म लिधि-विधानों में भले ही भिन्नता हो, परंतु एक ऐसी बात है जिस पर सभी धर्म एकमत हैं और वह है नैतिक शिक्षा। सच बोलना, चोरी न करना, किसी की वस्तु पर बलात् अधिकार न करना, दुर्बलों को न सताना, बड़ों का आदर करना, मनुष्यमात्र को ईश्वर की संतान समझना, प्राणिमात्र पर दया, न्याय भावना आदि बातें ऐसी हैं जिनका विरोध कोई भी धर्म-ग्रंथ नहीं करता। विश्व के सभी महापुरुषों के जीवन में उपर्युक्त गुणों की अधिकता देखने को मिलती है। धर्म-प्रवर्तकों के जीवन की मुख्य घटनाएँ भी हमें नैतिकता की शिक्षा देती हैं। नैतिक शिक्षा व्यक्ति के संकुचित दृष्टिकोण को उदार बनाती है। वह कहती है-‘ जियो और जीने दो।’ भारतीय विचारकों ने उपनिषदों में यही मूलमंत्र मानव को दिया है-‘ वसुधैव-कुटुंबकम्।’ गीता में कहा गया है-‘विद्या विनय सम्पन्न ब्राह्मण में, गाय में, हाथी में, कुत्ते में और चांडाल में समदर्शी व्यक्ति समान आत्मा के दर्शन करता है।’ कुरान शरीफ में कहा गया है- “अपने पड़ोसी से प्यार करो।” बाइबिल में कहा गया है-“‘दूसरों से वैसा ही व्यवहार करो, जैसा तुम उनसे चाहते हो।”
नैतिकता का अर्थ है मानवीय मूल्यों का सम्मान। जब तक मानवीय मूल्यों की अवहेलना की जाती रहेगी, तब तक समाज के अंदर से हिंसा-वृत्ति का निराकरण नहीं हो सकता और हिंसा आखिर है क्या-अनैतिकता की ही पराकाष्ठा का नाम हिंसा है। अतएव यह नितांत आवश्यक है कि विद्यालयों में शिक्षा द्वारा नैतिक मूल्यों को छात्रों के मन में उभारा जाए। नैतिक शिक्षा के बिना स्वस्थ मानसिक विकास असंभव है।
जो राष्ट्र अपने को नैतिक गुणों से विमुख रखकर भौतिक साधनों, चाहे वे कितने ही महत्त्वपूर्ण व बहुमूल्य हों, पर केन्द्रित करता है, वह आत्मारहित शरीर के समान है। अतएव इसमें तनिक भी संदेह नहीं और यह अत्यंत वांछनीय है कि शैक्षणिक संस्थाओं में नैतिक त्ं आध्यात्मिक गुणों के शिक्षण की व्यवस्था की जाए। यद्यपि यह कार्य अत्यंत प्रयत्नसाध्य है, तथापि असंभव नहीं है।
प्रश्न :
1. विभिन्न धर्म किन-किन भिन्नताओं के रहते हुए भी किस बात पर एकमत हैं?
2. सभी धर्मग्रंथों और महापुरुषों के जीवन में क्या-क्या गुण मिलते हैं?
3. नैतिक शिक्षा क्या करती है?
4. मानवीय मूल्यों की अवहेलना का क्या दुष्परिणाम होता है?
5. शिक्षण संस्थाओं में क्या काम किया जाना चाहिए?
6. ‘वसुधैव कुटुबकम्’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
7. गद्धांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
1. विभिन्न धर्मों में कर्मकांड के तरीकों तथा विधि-विधानों में भिन्नताएँ हैं, पर वे इस बात पर एकमत हैं कि नैतिक शिक्षा जरूरी है।
2. सभी धर्मग्रंथों और महापुरुषों के जीवन में ये गुण मिलते हैं-सच बोलना, चोरी न करना, किसी की चीज न हड़पना, दुर्बलों को न सताना, बड़ों का आदर करना, मनुष्यमात्र को ईश्वर की संतान मानना, प्राणिमात्र पर दया करना, न्याय करना आदि।
3. नैतिक शिक्षा व्यक्ति के संकुचित दृष्टिकोण को उदार बनाती है। वह ‘जियो और जीने दो’ का मंत्र देती है, मानवीय मूल्यों का सम्मान करना सिखाती है।
4. जब मानवीय मूल्यों की अवहेलना की जाती है तब समाज के अंदर हिंसा वृत्ति पनपती है। यह हिंसा अनैतिकता की पराकाष्ठा ही तो है। इसे समाप्त किया जाना जरूरी है। अतः मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करनी होगी।
5. शिक्षण-संस्थाओं में शिक्षा द्वारा नैतिक मूल्यों को उभारा जाना चाहिए। वहाँ नैतिक और आध्यात्मिक गुणों को छात्रों के मन में विकसित करने का काम किया जाए।
6. इसका आशय यह है कि समस्त विश्व हमारा ही एक कुटुंब है। सभी प्राणी हमारे अपने हैं।
7. शीर्षक-नैतिकता और मानवीय मूल्य।
7. यह सत्य है कि दोनों पक्षों के वीर इस युद्ध को धर्मयुद्ध मानकर लड़ रहे थे, किंतु धर्म पर दोनों में से कोई भी अडिग नहीं रह सका। ‘लक्ष्य प्राप्त हो या न हो, किंतु हम कुमार्ग पर पाँव नहीं रखेंगे’–इस निष्ठा की अवहेलना दोनों ओर से हुई और दोनों पक्षों के सामने साध्य प्रमुख और साधन गौण हो गया। अभिमन्यु की हत्या पाप से की गई तो भीष्म, द्रोण भूरिश्रवा और स्वयं दुर्योंधन का वध भी धर्मसम्मत नहीं कहा जा सकता। जिस युद्ध में भीष्म, द्रोण और श्रीकृष्ग विद्यमान हों, उस युद्ध में भी धर्म का पालन नहीं हो सका, इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि युद्ध कभी भी धर्म के पथ पर रहकर लड़ा नहीं जा सकता। हिंसा का आदि भी अधर्म है. मध्य भी अधर्म है और अंत भी अधर्म है। जिसकी आँखों पर लोभ की पट्टी नहीं बँधी है, जो क्रोध और आवेश अथवा स्वार्थ में अपने कर्तव्य को भूल नहीं गया है, जिसकी आँख साधना की अनिवार्यता से हट कर साध्य पर ही केंद्रित नहीं हो गई है, वह युद्ध जैसे मलिन कर्म में कभी भी प्रवृत्त नहीं होगा। युद्ध में प्रवृत्त होना ही इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य अपने रागों का दास बन गया है, फिर जो रागों की दासता करता है, वह उनका नियंत्रण कैसे करेगा। अगर यह कहिए कि विजय के लिए युद्ध अवश्यंभावी है तो विजय को मैं कोई बड़ा ध्येय नहीं मानता। जिस ध्येय की प्राप्ति धर्म के मार्ग से नहीं की जा सकती, वह या तो बड़ा ध्येय नहीं है अथवा अगर है तो फिर उसे पास के मार्ग से पाने का प्रयास व्यर्थ है। संग्राम के कोलाहल में चाहे कुछ भी सुनाई नहीं पड़ा हो, किंतु आज मैं अपनी आत्मा की इस पुकार को स्पष्ट सुन रहा हूँ कि युधिष्ठिर! तुम जो चाहते थे वह वस्तु तुम्हें नहीं मिली।
प्रश्न :
1. कौरवों और पांडवों ने महाभारत युद्ध को धर्मयुद्ध क्यों माना? दोनों पक्षों में किस निष्ठा की बात कही गई थी?
2. मलिन कर्म से क्या आशय है? युद्ध को मलिन कर्म क्यों माना गया है?
3. साध्य और साधन से आप क्या समझते हैं? यह कैसे कहा जा सकता है कि महाभारत युद्ध में साध्य प्रमुख और साधन गौण हो गए थे?
4. इस गद्यांश में वक्ता विजय को बड़ा ध्येय क्यों नहीं मान रहा है? उसका क्या मानना है?
5. विलोम शब्द लिखिए – विजय, गौण।
6. गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
7. किस बात को धर्मसम्मत नहीं कहा जा सकता?
उत्तर :
1. कौरवों और पांडवों ने महाभारत युद्ध को धर्म युद्ध इसलिए माना क्योंकि दोनों पक्ष स्वयं को धर्म पर आधारित मान रहे थे। उन्होंने यह निष्ठा व्यक्त की थी कि वे कभी भी कुमार्ग पर पाँव नहीं रखेंगे, पर इस निष्ठा की अवहेलना दोनों पक्षों से हुई।
2. मलिन कर्म से आशय है-अनैतिक काम। युद्ध को मलिन कर्म इसलिए कहा गया है क्योंकि युद्ध में प्रवृत्त होना ही मलिन काम है। इसमें मनुष्य अपने रागों का दास बन जाता है, तब उसके काम मलिन हो जाते हैं।
3. साध्य होता है-लक्ष्य। साधन से आशय है-साध्य को पाने के तरीके। महाभारत युद्ध में केवल विजय प्राप्त करना साध्य हो गया था और इसे कैसे पाया जाए, क्या तरीके अपनाए जाएँ-ये गौण हो गए थे।
4. इस गद्यांश में वक्ता विजय को बड़ा ध्येय इसलिए नहीं मान रहा है क्योंकि यदि इस विजय को धर्म के मार्ग पर चलकर नहीं पाया जा सकता तो वह ध्येय बड़ा नहीं रह जाता। वक्ता अपनी आत्मा को सुनने की बात को मानकर सही मार्ग पर चलने को कहता है।
5. विलोम शब्द-विजय × पराजय गौण × मुख्य।
6. शीर्षक-महाभारत युद्ध : धर्मयुद्ध ?
7. अभिमन्यु की हत्या और भीष्म, द्रोण, भूरिभ्रवा और दुर्योंधन के वध को धर्मसम्मत नहीं कहा जा सकता।
8. हिंदुस्तान बहुभाषी देश है। इस देश पर विदेशी भाषा के बढ़ते हुए प्रभुत्व और महत्त्व को देखते हुए विनोबा जी ने कहा था कि अंग्रेजी दुनिया के लिए एक खिड़की है। ‘घर में केवल एक खिड़की रखेंगे तो सर्वांग विश्व दर्शन नहीं होगा। कम से कम आपको सात खिड़कियाँ रखनी चाहिए। इंग्लिश, फ्रेंच, जर्मन और रशियन ये चार यूरोप की, चीनी और जापानी में दो पूर्व की और एक अरबी-ईरान से लेकर सीरिया तक का, जो विस्तार है उसके लिए। इस तरह सात खिड़की रखेंगे तो दुनिया का सही दर्शन होगा, अन्यथा एकांगी दर्शन होने से अंग्रेजी भाषा के अधीन हो जाएँगे।’ हिंदी जिसे सरहपा, अमीर खुसरो से लेकर भारतेंदु युग तक सिंचित और पोषित कर विकसित किया गया और गाँधी जी जैसी हस्तियों की ओर से जातीय स्वाभिमान और साझी संस्कृति का वाहक बनाया गया।
परंतु लार्ड मैकाले ने हिंदुस्तान में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी भाषा रखकर एक ऐसा नौकर वर्ग चाहा जो जन्म, रक्त, रंग से भले हिंदुस्तानी हो, परंतु रुचि, भाषा, विचार और भावना से अंग्रेजों से प्रभावित हो। परिणाम यह आया कि ब्रिटिश हुकूमत के समय ऐसी नौकरशाही अस्तित्व में आयी। धीरे-धीरे हिंदुस्तान में अंग्रेजी का प्रभाव व्यापक रूप से लक्षित होने लगा। आज हिंदी भाषा और भारतीय भाषाएँ हाशिए पर और हीनताबोध से ग्रस्त होती जा रही हैं। परंतु विनोबा जी के चिंतन में स्पष्ट दर्शन था कि अंग्रेजी भाषा चाहे कितनी भी समर्थ क्यों न हो परंतु हिंदी विचार तो हिंदी भाषा में ही अधिक अच्छी तरह से व्यक्त किए जा सकते हैं।
प्रश्न :
1. बहुभाषी देश से क्या अभिप्राय है? क्या हिंदुस्तान बहुभाषी देश है? क्यों?
2. सर्वाग विश्व दर्शन से आप क्या समझते हैं?
3. क्निोबा जो एकांगी दर्शन के पक्ष में क्यों नहीं थे?
4. अंग्रेजी के पीछे छिपी लार्ड मैकाले की भाषना को स्पष्ट कीजिए।
5. आज हिंदी एवं भारतीय भाषाओं की क्या स्थिति है?
6. इस गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
7. विलोम शब्द लिखिए-विदेशी, जन्म।
उत्तर :
1. बहुभाषी देश से अभिप्राय यह है कि देश में विभिन्न प्रकार की भाषाएँ बोली औ समझी जाती हैं। हिन्दुस्तान एक बहुभाषी देश है क्योंकि यहाँ अनेक भाषाएँ बोली और समझी जाती हैं।
2. सर्वांग विश्व दर्शन से हम यह समझते हैं कि इसके माध्यम से विश्व के देशों की भाषा-संस्कृति एवं सभ्यता के बारे में जाना जाता है।
3. विनोबा जी एकांगी दर्शन के पक्ष में इसलिए नहीं थे क्योंक वे जानते थे कि इससे हम अंग्रेजी भाषा के अधीन हो जाएँगे। अंग्रेजी भाषा चाहे कितनी भी समर्थ क्यों न हो परंतु हिंदी विचार तो हिंदी भाषा के माध्यम से ही अच्छी तरह से व्यक्त किए जा सकते हैं।
4. लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेजी को हिंदुस्तान में शिक्षा का माध्यम बनाकर एक ऐसा नौकरशाही वर्ग बनाना चाहा जो जन्म, रक्त और रंग से भले ही हिंदुस्तानी हो, पर रुचि, विचार और भावना से अंग्रेजों के समान हो।
5. आज हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ हाशिए पर हैं और वे हीनताबोध से ग्रस्त होती चली जा रही हैं।
6. शीर्षक-अंग्रेजी और भारतीय भाषाएँ।
7. विलोम शब्द-विदेशी × देशी, जन्म × मृत्यु।
9. हँसी भीतरी आनंद को प्रकट करने का बाहरी चिहन है। हँस लेना जीवन की सबसे प्यारी और उत्तम वस्तु है। एक बार खिलखिलाकर हँसना शरीर को स्वस्थ रखने की बेहतरीन दवा है। पुराने लोग कह गए हैं कि हँसो और पेट फुलाओ। हँसी कितने ही कला-कौशलों से भली है। जितना ही अधिक हँसोगे, उतनी ही आयु बढ़ेगी। एक यूनानी विद्वान कहता है कि सदा अपने कर्मों पर खीझने वाला हेरीक्लेस बहुत कम जिया, पर प्रसन्न मन डेमोक्रीटस 109 वर्ष तक जिया। हँसी-खुशी का नाम जीवन है। जो रोते हैं उनका जीवन व्यर्थ है। एक कवि कहता हैं-“ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है, मुर्दा दिल खाक जिया करते हैं।”
एक विलायती विद्वान की पुस्तक में बताया गया है कि हैंसी उदास से उदास मनुष्य के चित्त को प्रफुल्लित कर देती है। हँसी तो एक शक्तिशाली इंजन की तरह है। यह शोक और दुख की दीवारों को ढहा देती है। चित्त को प्रसन्न रखना प्राण-रक्षा का बेहतरीन उपाय है। एक अंग्रेज डॉक्टर कहता है कि किसी नगर में दवाई से लदे बीस गधे ले जाने की अपेक्षा एक हँसोड़ व्यक्ति ले जाना बेहतर है। पाचन के लिए भी हँसी से बढ़कर कोई अन्य चीज नहीं है। हँसी सभी के लिए काम की चीज है। हँसी कई काम करती है-पाचन शक्ति बढ़ाती है, रक्त को चलाती है और अधिक पसीना लाती है।
एक डॉंक्टर के अनुसार यह जीवन की मीठी मदिरा है। कारलाइल कहता है कि जो जी से हँसता है वह कभी बुरा नहीं होता। जी से हँसो तुम्हें अच्छा लगेगा, अपने मित्र को हँसाओ, वह अधिक प्रसन्न होगा, शत्रु को हँसाओ, वह तुमसे कम घृणा करेगा, अनजान को हँसाओ, वह तुम पर भरोसा करेगा। एक उदास को हँसाओ उसका दुख घटेगा, एक निराश को हँसाओ, उसकी आशा बढ़ेगी। हँसने से बूढ़ा व्यक्ति स्वयं को जवान समझता है। कप्टों, चिताओं में भगवान ने हमें हँसी जैसी प्यारी वस्तु प्रदान की है।
प्रश्न :
1. हँँसी के बारे में क्या बताया गया है?
2. हँसी को एक शक्तिशाली इंजन की तरह क्यों बताया गया है?
3. हैँसी के क्या-क्या लाभ बताए गए हैं?
4. इस गद्यांश में किन-किन लोगों के उदाहरण देकर हँसी को उपयोगी बताया गया है?
5. इस गद्यांश में हमें क्या करने को कहा गया है?
6. गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
7. विलोम शब्द लिखो- स्वस्थ, शक्तिशाली।
उत्तर :
1. हँसी के बारे में यह बताया गया है कि यह हमारे भीतर के आनंद को प्रकट करने का बाहरी चिह्न है। हँसना बड़ी प्यारी और उत्तम वस्तु है। खिलखिलाकर हँसने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है।
2. हँसी को एक शक्तिशाली इंजन की तरह इसलिए बताया गया है क्योंकि यह इंजन की भाँति शोक और दुख की दीवारों को गिरा देता है। शक्तिशाली इंजन भी दीवारों को गिराता है।
3. हँसी के अनेक लाभ बताए गए हैं-यह पाचन शक्ति को बढ़ाती है, रक्त संचालन ठीक करती है, अधिक पसीना लाती है, यह एक मीठी मदिरा का काम करती है। यह स्वास्थ्यवर्धक दवा भी है।
4. इस गद्यांश में डेमोक्रीटस, हेरीक्लेस के उदाहरण देकर हँसी को उपयोगी बताया गया है। कारलाइल का भी उदाहरण दिया गया है।
5. इस गद्यांश में हमें हैसते रहने को कहा गया है।
6. शीर्षक-जीवन में हँसी का महत्त्व
7. विलोम शब्द- स्वस्थ × अस्वस्थ, शक्तिशाली × शक्तिहीन।
10. मुंशी प्रेमचंद का जीवन अनुशासित था। वे मुँह अँधेरे ही उठ जाते थे और नित्यकर्म से निवृत्त होकर एक घंटे घूमने जाते थे। वे अक्सर स्कूल के अहाते में ही घूम लेते थे। लौटकर वे घर के जरूरी काम निपटाते थे। वे अधिकांश काम स्वयं करते थे। नौकर से अधिक काम लेना उन्हें पसंद न था। अपना बिस्तर स्वयं उठाते, अपनी धोती स्वयं धोते। वे अपनी आदत नहीं बिगाड़ना चाहते थे। उन्हें वह समय सदा याद रहता था कि कभी वे स्वयं पाँच रुपए के नौकर थे। उनका मानना था कि जिस आदमी के हाथ में काम करने के घट्टे न पड़े हों, उसे खाना खाने का अधिकार नहीं है।
उन्हें काम करने में रत्ती भर भी शर्म नहीं महसूस होती थी। वे बकरी के सामने पत्ती तोड़कर डाल देते थे और गाय की सानी भी कर देते थे। कमरे-बरामदे में झाडू लगा देना, पत्नी के बीमार होने पर चूल्हा जला देना, बच्चों को तैयार कर दूध पिला देना आदि काम वे प्रायः कर लेते थे। स्वयं हल्का-सा नाश्ता कः काम पर बैठ जाते थे। लिखने के लिए उन्हे प्रातः काल का समय पसंद था। स्कूल का समय होने तक वे लिखते रहते, फिर कपड़े बदलकर ठीक वक्त पर स्कूल जा पहुँचते। वे वक्त के बहुत पाबंद थे। वे छात्रों के सामने अच्छा उदाहरण रखना चाहते थे। वक्त बर्बाद करना वे बहुत बड़ा गुनाह मानते थे। उनका विचार था कि वक्त की पाबंदी के बिना कोई कौम तरक्की नहीं कर सकती।
उनके पढ़ाने का ढंग अन्य अध्यापकों से अलग था। वे लड़कों को रट् तोता नहीं बनाना चाहते थे। उन्हें लड़कों से बहुत उम्मीदें थीं। उस समय देश पराधीन था, इसे आजाद कराना था। शिक्षा संस्थानों मे ही छात्रों को त्याग, साहस, देशप्रेम और देश सेवा का मंत्र मिलना चाहिए। शिक्षक अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता अन्यथा युवा पीढ़ी आलसी, कायर, स्वार्थी और विलासी बन जाएगी। मुंशी प्रेमचंद इन बातों पर अवश्य सोचते थे। गुरु के प्रवचन से अधिक असर गुरु के आचरण से पड़ता है। प्रवचन देना उनके स्वभाव के प्रतिकूल था।
वे छात्रों से बराबरी का संबंध रखते थे। अधिकार जताना उन्हें छोटापन प्रतीत होता था। भला वह अधिकार ही क्या जिसे जतलाना पड़े। छात्रों ने उनकी बातों को पूरी तरह अपना लिया था। वे स्कूल में और बाहर लड़कों से बराबरी के स्तर पर मिलते थे। उनके त्योहारों में शामिल होते थे। जब वे बोडिंग हाउस का चक्कर लगाते तो छात्रों को लगता कि घर का कोई बड़ा आदमी आया है। वैसे तो वे लड़कों से कोई काम नहीं लेते थे, पर उनसे कहानियों को साफ करने का काम ले लेते थे। इसे वे गुरु दक्षिणा समझते थे। वे कक्षा में कड़ा दंड देने के विरोधी थे। क्षमा की शक्ति में उनका विश्वास था। उनकी कक्षा में छात्रों की उपस्थिति सबसे अधिक रहती थी। उनके कक्षा में आते ही जिंदादिली पैदा हो जाती थी। हँसी की बात पर वे खुलकर हँसते थे।
प्रश्न :
1. मुंशी प्रेमचंद का जीवन कैसा था?
2. काम करने के बारे में उनके क्या विचार थे?
3. छात्रों के साथ उनका संबंध कैसा रहता था?
4. समय, दंड तथा हँसी के बारे में प्रेमचंद की क्या धारणा थी?
5. उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
6. ‘गुनाह’ शब्द के प्रयोग से दो शब्द और बनायें।
7. मुंशी प्रेमचंद जी के पढ़ाने का ढंग कैसा था?
उत्तर :
1. मुंशी प्रेमचंद का जीवन बहुत अनुशासित था। उनका प्रत्येक कार्य अनुशासन में बंधकर होता था। वे प्रात: नित्यकर्म से निवृत्त होकर घूमने जाते थे। अधिकांश काम वे स्वयं करते थे। वे नौकर से अधिक काम लेकर अपनी आदतें नहीं बिगाड़ना चाहते थे।
2. काम करने के बारे में प्रेमचंद के विचार स्पष्ट थे। उनका कहना था कि जिसके हाथ में काम करने के घट्टे न पड़े हों, उसे खाना खाने का अधिकार नहीं है। काम करने में किसी भी प्रकार की शर्म का अनुभव नहीं करना चाहिए। वे घर के काम करने में रुचि लेते थे।
3. छात्रों के साथ वे बराबरी का संबंध रखते थे। वे उन्हें रट्ट तोता बनाने के विरोधी थे। वे छात्रों को त्याग, साहस, देशप्रेम और देश-सेवा के लिए प्रेरित करते थे। वे मानते थे कि गुरु के प्रवचन से अधिक असर उसके आचरण से पड़ता है। छात्रों पर अधिकार जताना उन्हें छोटापन प्रतीत होता था।
4. प्रेमचंद समय की पाबंदी पर बहुत बल देते थे। वक्त को बर्बाद करना वे गुनाह मानते थे। उनका विचार था कि वक्त की पाबंदी से ही कोई कौम तरक्की कर सकती है। वे कक्षा में दंड देने के विरोधी थे। वे क्षमा की शक्ति में विश्वास रखते थे।
वे हैंसने को जिंदादिली की निशानी मानते थे अतः खुलकर हँसते थे।
5. शीर्षक-मुंशी प्रेमचंद का जीवन।
6. बेगुनाह, गुनाहगार।
7. उनके पढ़ाने का ढंग अन्य अध्यापकों से अलग था। वे लड़कों को रूूू तोता नहीं बनाना चाहते थे। उन्हें लड़कों से बहुत उम्मीदें थीं।
11. जो समाज को जीवन देता है, उसे निर्जीव नहीं कहा जा सकता। तालाबों को जल का स्रोत माना जाता है। उसके चारों ओर समाज ने अपने जीवन को रचा है। उसके साथ निकटता का संबंध बनाने के लिए वैसे ही नाम रख लेता है। देश के अलग-अलग राज्यों में, अलग-अलग भाषाओं में तालाबों के कई नाम हैं। पर्यायवाची शब्दों की सूची में तालाब के अनेक नाम मिलते हैं। ‘हमीर नाम माला’ में तालाबों के पर्यायवाची नाम मिलते हैं।
डिंगल भाषा का यह ग्रंथ तालाबों को धरम सुभाव कहता है। लोक धरम सुभाव से जुड़ जाता है। सुख-दुख के सभी प्रसंग तालाब से जुड़ जाएँगे। तालाब बनाना या तालाब की मरम्मत करना पुण्य का काम माना जाता था। जैसलमेर और बाड़मेर में साधन कम होने पर यदि पूरा तालाब बनाना संभव न हो तो सीमित साधनों का उपयोग करते हुए तालाब की पाल पर मिट्टि डालने या मरम्मत करने का काम किया जाता था। परिवार के दुखद प्रसंग को भी तालाब से जोड़ कर समाज के सुख में बदल दिया जाता था।
समाज और तालाब का आपस में गहरा संबंध है। अकाल पड़ने की स्थिति में तालाब बनाने का काम होता था। इससे लोगों को तात्कालिक राहत मिलती थी। पानी का प्रबंध होने पर कभी आ जाने वाले दुख को सहने की शक्ति समाज में आती थी। बिहार के मधुबनी क्षेत्र में छठी सदी में आए एक बड़े अकाल के समय पूरे क्षेत्र के गाँतों ने मिलकर 63 तालाब बनाए थे। आज की संस्थाएँ (सामाजिक और राजनैतिक) जरा विचार करें कि कितना बड़ा संगठन बना होगा और कितने साधन जुटाए गए होंगे। मधुबनी के लोग आज भी कृतज्ञता से इन्हें याद रखे हैं।
तालाब का लबालब भर जाना एक बड़ा उत्सव बन जाता है, भुज (कच्छ) के सबसे बड़े तालाब हमीरसर के घाट में बनी हाथी की एक मूर्ति अपरा चलने (जल का बाहर निकल आना) की सूचक है। जब जल मूर्ति को छू लेता तो पूरे शहर में खबर फैल जाती। सारा शहर तालाब के घाटों पर आ जाता। एक त्योहार मन जाता। भुज के राजा घाट पर आते और पूरे शहर की उपस्थिति में तालाब की पूजा करते और तालाब का आशीर्वाद लेकर लौटते। यह उत्सव प्रजा और राजा को घाट तक ले आता था। कोई भी तालाब अकेला नहीं है। जगन्नाथपुरी के मंदिर के पास बिंदुसागर में देशा भर के हर जल स्रोत का, नदियों और समुद्रों तक का पानी मिला है। देश की एकता की घड़ी में हिद महासागरीय एकता का सागर कहला सकता है। यह सागर जुड़े भारत का प्रतीक है।
प्रश्न :
1. तालाबों को क्या माना जाता रहा है और क्यों?
2. तालाब बनाने को कैसा काम माना जाता था?
3. समाज और तालाब का आपस में कैसा संबंध है?
4. तालाब कब उत्सव बन जाता है? लेखक ने कौन-सा उदाहरण दिया है?
5. उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
6. ‘सामाजिक’ और ‘कृतज्ञा’ शब्द से प्रत्यय अलग करें।
7. पुण्य का काम किस को माना गया है?
उत्तर :
1. तालाबों को जल का स्रोत माना जाता रहा है। इन्हीं से समाज के लोगों को जल मिलता है अत: इन्हीं के चारों ओर समाज ने अपने जीवन को रचा। तालाबों के साथ समाज का निकटता का संबंध रहता है। उनके सुख-दुख के सभी प्रसंग तालाब से जुड़े होते हैं।
2. तालाब का बनाना या उसकी मरम्मत करने के काम को पुण्य का काम माना जाता था। यदि साधनों के अभाव में पूरा तालाब बनाना संभव न हो तो भी सीमित साधनों का उपयोग करके तालाब की पाल पर मिट्टी डालने या मरम्मत करने का काम किया जाता था।
3. समाज और तालाब का आपस में गहरा संबंध है। परिवार के दुखद प्रसंग को भी तालाब से जोड़कर समाज के सुख में बदल दिया जाता था। अकाल पड़ने की स्थिति में तालाब ही दुख को सहने की शक्ति समाज को देता था। यही कारण था कि प्राचीन काल में अधिक से अधिक तालाब बनाने पर जोर दिया जाता था।
4. तालांब जब लबालब भर जाता है तब वह उत्सय बन जाता है। लेखक ने इसके अनेक उदाहरण दिए हैं। हमीरसर घाट पर बनी हाथी की मूर्ति को जब जल छू लेता है तो यह खबर पूरे शहर को उत्साहित कर देती थी और सारा शहर तालाब के घाट पर आ जाता था। राजा और प्रजा घाट तक पहुँचकर उत्सव मनाते थे।
5. शीर्षक-तालाबों का महत्त्व अथवा जन-जीवन और तालाब।
6. ‘इक’ (समाज + इक), ‘ता’ (कृतज्ञ + ता)।
7. तालाब बनाना या तालाब की मरम्मत करना पुण्य का काम माना गया है।
12. डॉ. हुसैन को तरह-तरह के मूल्यवान पत्थरों के संग्रह और अध्ययन का बड़ा शौक था। उनका दूसरा शौक बागवानी का था। उन्हें गुलाबों की बड़ी अच्छी पहचान थी। गुलाब का संबंध पं. जवाहरलाल नेहरू से भी था, पर डॉ. हुसैन खुद गुलाब खिलाते थे और खिल जाने पर उसका सौंदर्य निहारते थे। विदेश-यात्रा के समय उन्हें जो निजी भत्ता मिलता था, उस सबसे वे नए पौधों के बीज और खूबसूरत पत्थर खरीद लेते थे। वे गुलाब के फूलों की देखभाल बच्चों की तरह करते थे। वे इतने भावुक थे कि उनके गुलाबों की रखवाली करने वाला माली मर गया तो वे उसके बारे में बातें करते हुए अपनी बेगम के सामने रो पड़े थे।
डॉ. जाकिर हुसैन की मातृभाषा हिन्दी नहीं थी, फिर भी उन्होंने बड़े परिश्रमपूर्वक हिन्दी सीखी। वे उर्दू लिपि के माध्यम से अपने हिन्दी भाषणों को पढ़ते थे। शुरू के दिनों में उनकी एक आँख जाती रही थी, क्योंकि रुपयों के अभाव में उसका इलाज नहीं करा पाए थे। जाकिर साहब ने हिन्दी सीखने के लिए अपने सामने गाँधीजी का आदर्श रखा। गाँधीजी की भी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी, फिर भी उन्होंने देश में हिन्दी को फैलाना चाहा। उनकी दृष्टि में दो बातें थीं-एक, देश में जो एकता अंग्रेजी भाषा के द्वारा दिखाई देती थी, वह उसी वक्त तक चल सकती है, जब तक कि थोट़े से लोग पढ़ना-लिखना सीखते हैं और उसके जरिए अपने को औरों से ऊँचा करके उनसे अलग-थलग एक विदेशी का जीवन बिताते हैं।
जब देश आजाद होगा और हर बच्चा लिखना-पढ़ना सीखेगा तो वह विदेशी भाषा में नहीं हो सकता, देश की भिन्न-भिन्न भाषाओं में होगा। इन भिन्न-भिन्न भाषाओं को मिलाने के लिए उन्होंने हिन्दी को चुना। वे हिन्दी अच्छी नहीं बोलते थे, पर बोलते हिन्दी ही थे। इससे वे लोगों के दिलों में बस गए। से भारत के सच्चे सपूत थे। वे पदारुढ़ होने के एक दिन पहले दिल्ली में शृंगेरी के जगद्गुरू स्वामी शंकराचार्य से आशीर्वाद लेने गए थे। शंकराचार्य ने उनके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया था। उपराष्ट्रपति पद पर रहते हुए वे माली के घर हो रहे कीर्तन में स्वयं चले गए थे। वे वहाँ दरी पर बैठे रहे। वे पटियाला में पंजाबी विश्वविद्यालय में गुरु गोविन्द सिंह संस्थान की नींव रखने गए थे। वहाँ उन्होंने कहा था कि “अमृतसर में दरबार साहब की नींव डालने के लिए भी एक मुसलमान को ही बुलाया गया था और अब आपने मुझे इसकी नींव रखने को कहा है।” यह कहते-कहते उनका गला भर आया था।
डॉ. हुसैन का व्यक्तित्व विशिष्ट था। वे सुरुचिपूर्ण ढंग से खादी के कपड़े पहनते थे। उनका रंग गुलाबी था। वे चाहते थे कि देश के आने वाले बच्चे गाँधी जी को भूल न जाएँ, यदि दुर्भाग्यवश ऐसा हुआ तो हमारी सबसे मूल्यवान पूँजी बर्बाद हो जाएगी।
प्रश्न :
1. इस गद्यांश में किस व्यक्ति का उल्लेख है? उन्हें किस-किसका शौक था? वे इनके लिए क्या करते थे?
2. भाषा के बारे में उनके क्या विचार थे?
3. किन-किन उदाहरणों से सिद्ध किया जा सकता है कि वे भारत के सच्चे सपूत थे?
4. डॉ. हुसैन का व्यक्तित्व कैसा था?
5. उनकी दृष्टि में सबसे मूल्यवान पूँजी क्या थी?
6. उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
7. डॉ. हुसैन का व्यक्तित्व कैसा था?
उत्तर :
1. इस गद्यांश में भारत के उपराष्ट्रपति रहे डॉ. जाकिर हुसैन का उल्लेख है। डॉ. हुसैन को तरह-तरह के मूल्यवान पत्थरों, अध्ययन और बागवानी के शौक थे। डॉ. हुसैन खुद गुलाब उगाते थे। विदेश-यात्रा के दौरान मिले भत्ते की राशि को नए पौधों के बीज और खूबसूरत पत्थर खरीदने पर खर्च करते थे।
2. यद्यपि डॉ. हुसैन की मातृभाषा हिन्दी नहीं थी. फिर भी उन्होंने प्रयत्नपूर्वक हिन्दी सीखी थी। वे उर्दू लिपि के माध्यम से अपने हिन्दी भाषण को पढ़ते थे। उनका विचार था कि जब देश आजाद होगा तब देश के बच्चे विदेशी भाषा के स्थान पर अपने देश की भाषा ही पढ़ेंगे। इसीलिए उन्होंने भिन्न-भिन्न भाषाओं को मिलाने के लिए हिन्दी को चुना। वे स्वयं हिन्दी ही बोलते थे। अतः लोगों के प्रिय बन गए थे।
3. डॉ. जाकिर हुसैन भारत के सच्चे सपूत थे। वे सभी धर्मों का आदर करते थे। वे उपराष्ट्रपति पद पर बैठते ही थृंगेरी के जगद्गुरु स्वामी शंकराचार्य का आशीर्वाद लेने गए। उपराष्ट्रपति रहते हुए भी वे माली के घर में हो रहे कीर्तन में सम्मिलित हुए और दरी पर बैठे रहे। उन्होंने पटियाला में पंजाबी विश्वविद्यालय में गुरु गोविंद सिंह संस्थान की भी नीव रखी।
4. डॉ. हुसैन का व्यक्तित्व विशिष्ट कोटि का था वे सुरुचिपूर्ण ढंग से खादी के कपड़े पहनते थे। उनका रंग गुलाबी था। वे सुंदर लगते थे।
5. डॉ. हुसैन की दृष्टि में सबसे मूल्यवान पूँजी महात्मा गाँधी थे। आने वाली पीढ़ी को उन्हें याद रखना होगा। ऐसा न होने पर हमारी सबसे मूल्यवान पूँजी बर्बाद हो जाएगी।
6. शीर्षक-डॉ. जाकिर हुसैन : एक व्यक्तित्व।
7. डॉ. हुसैन का व्यक्तित्व विशिष्ट था।
13. शरत्चंद्र साहित्यकार थे और साहित्यकार प्रायः राजनीति से दूर रहते हैं, परंतु वे साहित्य को राजनीति से अलग न मानते थे। वे कहते थे-राजनीति में योग देना देशवासियों का कर्तव्य है। हमारे देश में राजनीतिक आंदोलन देश की मुक्ति का आंदोलन है। इस आंदोलन में साहित्यकारों को बढ़कर योग देना चाहिए। वे चरखे में विश्वास न रखते हुए भी अनुशासन बनाए रखने के लिए खद्दर पहनते रहे, चरखा स्थापित करने पर खर्च भी करते रहे। वैज्ञानिक प्रफुल्लचंद्र और शरत्चंद्र में घनिष्ठ लगाव था। एक बार दोनों का मिलन साइंस कॉलेज के ऊपर के तल्ले के एक कमरे में हुआ।
उस समय राय महोदय एक छोटी खाट पर बैठे काम में व्यस्त थे। उन्होंने शरत् से पूछा-‘ क्या कर रहे हो आजकल?’ शरत् ने उत्तर दिया-‘ थोड़ा-बहुत लिखने की चेष्टा करता हूँ।’ प्रफुल्ल बाबू ने सलाह देते हुए कहा-‘ खूब लिखो, लेकिन हाँ, छपाने की जल्दी मत करना’। तभी एक छात्र ने आकर उन्हें बताया-‘जी, ये शरत्बाबू हैं।’ यह सुनते ही प्रफुल्लचंद्र उठकर द्वार पर आए और प्रिय शिष्यों के नाम ले-लेकर पुकारने लगे और उँगली दिखाकर कहने लगे-‘ये हैं शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय। उधर देखो उनकी सब पुस्तकें हैं, आज स्वयं भी आए हैं। अच्छी तरह देखो। पैरों की धूल लो। फिर उन दोनों की अंतरंग मित्र की तरह बातें हुईं।
एक बार महात्मा गाँधी ने कोलकाता के सर्वेंट कार्यालय में पहुँचकर सबसे साथ चरखा कातने की इच्छा प्रकट की। चरखे आए और सब कातने लगे। गाँधीजी की तीक्ष्ण दृष्टि ने देख लिया कि शरत् बाबू का सूत बहुत सुंदर है। गाँधीजी के पूछने पर उन्होंने बताया -“मैं चरखे को नहीं, आपको प्यार करता हूँ। मैंने चरखा कातना इसीलिए सीखा है।” महात्मा गाँधी हँस पड़े। इस पर भी चरखे के लिए कुछ करने में उन्होंने कोई कसर उठा न रखी। उनका ऐश्वर्य छूट गया, सिल्क की पोशाक छूट गई, बस रह गया खद्दर। वे भुने चने तक खा-खाकर गाँव-गाँव चरखे का प्रचार करते थे। वे स्वयं तो कातते ही थे, घर के अन्य लोग भी कातते थे, नौकर तक कातते थे।
प्रश्न :
1. इस गद्यांश में किस साहित्यकार का उल्लेख है? राजनीति के बारे में उनका क्या विचार था?
2. प्रफुल्लचंद्र ने शरत्चंद्र से क्या पूछा और शरत् ने उसका क्या उत्तर दिया?
3. प्रफुल्लचंद्र ने शिष्यों के सम्मुख किन शब्दों में उत्साह प्रकट किया?
4. गाँधीजी को शरत् ने क्या उत्तर दिया? इससे उनकी किस भावना का पता चलता है?
5. उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
6. ‘दायित्व’ का समानार्थी शब्द छाँटकर लिखिए।
7. महात्मा गाँधी ने कहाँ पर जाकर चरखा कातने की इच्छा प्रकट की?
उत्तर :
1. इस गद्यांश में साहित्यकार शरत्चंद्र का उल्लेख है। वे साहित्य को राजनीति से अलग नहीं मानते थे। उनका कहना था कि देश के स्वतंत्रता आंदोलन में साहित्यकारों को भी बढ़-चढ़कर भाग लेना चाहिए। वे भी अन्य देशवासियों की तरह ही हैं।
2. प्रफुल्लचंद्र ने शरतचंद्र से पूछा-आजकल क्या कर रहे हो? शरत्चंद्र ने उत्तर दिया कि थोड़ा-बहुत लिखने का प्रयास करता हूँ। इस पर प्रफुल्लचंद्र ने सलाह दी-लिखो तो खूब पर छपाने की जल्दी मत करना।
3. प्रफुल्लचंद्र ने शिष्यों के सम्मुख उत्साह प्रकट करते हुए उन्हें शरत्चंद्र को दिखाया और कहा कि ये हैं शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय। उधर देखो उनकी सब पुस्तकें हैं। आज स्वयं भी आए हैं। अच्छी तरह देखो। उनके पैरों की धूल लो।
4. चरखा कातने पर जब गाँधीजी ने उनसे उसके बारे में पूछा तब उन्होंने बताया कि मैं चरखे को नहीं, आपको प्यार करता हूँ। मैंने चरखा कातना इसीलिए सीखा है। इस कथन से उनकी गाँधीजी के प्रति आदर-भावना का पता चलता है।
5. शीर्षक-शरत्चंद्र : एक महान व्यक्तित्व।
6. ‘कर्त्तव्य’।
7. महात्मा गाँधी ने कोलकाता के सर्वेट कार्यालय में पहुँचकर सबसे साथ चरखा कातने की इच्छा प्रकट की।
14. तुलसीदास युगपुरुष तो थे ही, बल्कि वे युग-युग तक पुरुष थे। उन्हें अपने युग से प्रेरणा मिली। 16-17वीं सदी में भारत की राजनीति में ठहराव आ गया था। भारतीय संस्कृति की धारा कुछ अलग-अलग दिशाओं में बह रही थी, जीवन-मूल्यों में भी उतार था। तुलसीदास ने इसे भाँप लिया। भारत की यह विशेषता रही है कि यहाँ के संतों, कवियों और साहित्यकारों ने टकराव को दूर करने की कोशिश की है। वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, आचार्य शंकर, गोरखनाथ, कबीर, दादू और जायसी ने इस दिशा में काम किया।
तुलसीदास ने अपने ध्येय को पूरा करने के लिए राम और रावण की कहानी को आधार बनाया और इसके माध्यम से भारतीय संस्कृति का रूप हमारे सामने पेश किया। ‘राम और रावण की लड़ाई क्या है? निर्गुण और सगुण की चर्चा क्या है? शिव, शक्ति और विष्णु की भक्ति क्या है?’ इन सभी का निचोड़ तुलसीदास ने पेश करने की कोशिश की है। अकबर ने भी अपने ढंग से इस काम को करने की कोशिश की, पर उसकी अपील जनता तक नहीं धी। तुलसीदास ने कर्म को प्रमुखता दी। उन्होंने भक्ति का जो रूप सामने रखा उसमें कर्म और आचरण ही सब कुछ है।
उन्होंने अपनी बात कहने के लिए जनता की ही भाषा का सहारा लिया। जो काम अभी तक संस्कृत करती थी, उसके लिए उन्होंने अवधी भाषा को चुना। वे इस बात को मानते थे कि भारतीय संस्कृति की परंपरा के रूप में परिवर्तन होना चाहिए और वह जनभाषा के जरिए ही हो सकता है। इसका आधार मामूली इंसान को नहीं बल्कि गैरमामूली इंसान यानी मर्यादा पुरुषोत्तम को बनाना पड़ेगा। इसलिए उन्होंने राम को चुना।
तुलसीदास इस बात को समझते थे कि भारत में बहुत से मत और पंथ आ गए हैं जो आपस में टकराते हैं। भक्ति आंदोलन का खास उद्देश्य भेदभाव को दूर करना रहा है। यही कारण है कि तुलसीदास ने अपने राम को छोटी जाति के मल्लाह से गले मिलाया, शबरी के जूठे बेर खिलाए और छोटी-छोटी जातियों से भाईचारे के रिश्ते कायम कराए। इसी को हम मिली-जुली भारतीय संस्कृति को अमली जामा पहनाना कह सकते हैं।
तुलसीदास को हिन्दू जाति का प्रतिनिधि मानना उन्हें तंग दायरे में बाँधना होगा। तुलसीदास ने भारत की परंपराओं का अनादर नही किया बल्कि जगह-जगह उन्हें उभारा है। लेखक तो यहाँ तक मानता है कि तुलसीदास ने अकबर के ‘सुलहकुल’ को कार्यरूप में ढालने की कोशिश की है। वे जब भक्ति और कर्म पर बल देते हैं तो भारतीय संस्कृति की धारा को आध्यात्मिकता की ओर मोड़ देने की कोशिश करते हैं। उन्होंने एक आदर्श रामराज्य का सपना देखा था, जिसमें सब लोग मिल-जुलकर भाईचारे के साथ रह सदेे।
प्रश्न :
1. तुलसीदास किस प्रकार के व्यक्ति थे?
2. 16-17 वीं सदी में भारतीय संस्कृति की क्या स्थिति थी?
3. तुलसीदास ने अपनी बात को जनता तक कैसे पहुँचाया?
4. तुलसीदास ने किन-किन उपायों से समाज के मध्य भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास किया?
5. उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
6. ‘सहारा’ और ‘अनादर’ का विलोम बताइये।
7. तुलसीदास ने किस को प्रमुखता दी और क्यों?
उत्तर :
1. तुलसीदास युगपुरुष तो थे ही, इसके साथ-साथ वे युग-युग तक पुरुष थे। उन्हें अपने युग से प्रेरणा भी मिली थी।
2. 16-17वीं सदी में भारत की राजनीति में ठहराव सा आ गया था। तब भारतीय संस्कृति की धारा कई दिशाओं में बह रही थी। तब जीवन-मूल्यों में भी उतार की प्रवृत्ति पनपने लगी थी।
3. तुलसीदास ने राम-रावण की कहानी को आधार बनाकर भारतीय संस्कृति के सही रूप को पेश करने का प्रयास किया। तुलसीदास ने कर्म को प्रमुखता दी तथा अपनी बात को कहने के लिए जनभाषा अवधी को चुना। उन्होंने आधार रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को लिया।
4. तुलसीदास के समय में भारत में बहुत से मत और पंथ आ गए थे। वे आपस में टकराते थे। तुलसी ने समाज से इस भेदभाव को दूर करने के लिए अपने आदर्श पुरुष राम को छोटी जाति के मल्लाह से मिलाया, राम को शबरी के जूठे बेर खिलाए। तुलसीदास ने अकबर की ‘सुलहकुल’ भावना को कार्यरूप में ढाला।
5. शीर्षक-तुलसीदास की देन अथवा युगपुरुष तुलसीदास।
6. ‘बेसहारा’, ‘आदर’।
7. तुलसीदास ने कर्म को प्रमुखता दी। उन्होंने भक्ति का जो रूप सामने रखा उसमें कर्म और आचरण ही सब कुछ है। उन्होंने अपनी बात कहने के लिए जनता की ही भाषा का सहारा लिया। जो काम अभी तक संस्कृत करती थी, उसके लिए उन्होंने अवधी भाषा को चुना।
15. आज हम जानते हैं कि पृथ्वी एक लट्टू की तरह अपनी धुरी पर चारों ओर घूमती है और यह धुरी उत्तर दिशा में ध्रुव तारे की ओर है। पृथ्वी की धुरी अंतरिक्ष में स्थिर नहीं है। वह भी धीरे-धीरे घूमती हुई लगभग 20,000 वर्षो में एक चक्कर पूरा करती है। भविष्य में 11,000 वर्षों के उपरांत ध्रुव के बजाय वेगा अटल तारा होगा।
जो इने-गिने अपवाद हैं उन्हें ‘ग्रह’ कहते हैं। यूनानी निरीक्षकों ने ग्रहों को ‘प्लेनेट’ यानी घुमक्कड़ कहा है क्योंकि इनकी गति में अनियमितता दिखाई दी। तारा पटल पर या सूर्य की दिशा की तुलना करने पर ग्रह कभी आगे, कभी पीछे जाते दिखाई देते हैं। मनुष्य अक्सर अंधविश्वासों का शिकार हो जाता है। इसी कारण फलित-ज्योतिष को प्रोत्साहन मिला। मानव को लगने लगा कि उसके जीवन का नियंत्रण इन ग्रहों के प्रभाव से होता है। ग्रहों के घूमने की पहेली सत्रहवीं सदी में योहान केप्लर ने सुलझाई। उसने यह सिद्ध किया कि ग्रह मनमाने नहीं भटकते बल्कि वे नियमित कक्षा्भों में सूर्य के चारों ओर घूमते हैं। न्यूटन ने उसके नियमों का संबंध सूर्य के गुरुत्वाकर्षण से जोड़ा। अब हम सब यह जानते हैं कि ग्रह शक्तिवान एवं स्वेच्छाचारी न होकर सूर्य के गुरुत्वाकर्षण द्वारा नियमित कक्षाओं में घूमते हैं। अतः फलित ज्योतिष की धारणा का कोई सबूत नहीं रहा।
ग्रह और तारों का अंतर स्पष्ट हो चुका है। सूर्य के चारों ओर घूमने वाले ग्रह; तारों की अपेक्षा हमारे काफी निकट हैं, परंतु तारों की भाँति स्वयं प्रकाशित न होने के कारण दूसरे तारों के ग्रहों को देखना मुश्किल है। ग्रह पास हैं, तारे दूर हैं। 1838 में बेसल नामक एक जर्मन ज्योतिर्विद ने तारों की दूरियाँ नापने के लिए पैरलैक्स विधि को सफलतापूर्वक अपनाया। इस विधि से आस-पास के लगभग 700 तारों की दूरियाँ नापी जा सकती हैं। पर आज स्थिति ऐसी नहीं है कि जो तारा हम देख सकते हैं उसकी दूरी पैरलैक्स विधि से नाप नहीं सकते और जिसकी दूरी हम नाप सकते हैं उसे देख नहीं सकते।
प्रश्न :
1. पृथ्वी किसकी तरह धुरी पर घूमती है? यह धुरी कहाँ स्थित है?
2. ग्रहों के बारे में क्या बताया गया है?
3. ग्रहों के घूमने की पहेली किसने, किस प्रकार सुलझाई?
4. ग्रहों और तारों में क्या अंतर है?
5. उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
6. ‘अपवाद’ और ‘अनियमितता’ शब्द से उपसर्ग अलग कीजिए।
7. किस तारे की दूरी हम नाप नहीं सकते?
उत्तर :
1. पृथ्वी लट्टू की तरह अपनी धुरी पर चारों ओर घूमती है। यह धुरी उत्तर दिशा में ध्रुव तारे की ओर है। यह धुरी अंतरिक्ष में स्थिर नहीं है। वह धीरे-धीरे घूमती रहती है।
2. इने-गिने अपवादों को ग्रह कहते हैं। ग्रहों को ‘प्लेनेट’ अर्थात् घुमक्कड़ कहा जाता है। ग्रह कभी आगे तो कभी पीछे दिखाई देते हैं। फलित ज्योतिष के प्रभावस्वरूप मनुष्य को लगता है कि मानव-जीवन पर नियंत्रण ग्रहों के प्रभावस्वरूप है।
3. ग्रहों के घूमने की पहेली को सत्रहवीं सदी में योहान केप्लर ने सुलझाया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि ग्रह मनमाने नहीं भटकते, बल्कि नियमित कक्षाओं में सूर्य के चारों ओर घूमते हैं।
4. ग्रहों और तारों में अंतर स्पष्ट है। ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमने वाले हैं और तारों की अपेक्षा हमारे काफी निकट हैं। ग्रह पास हैं और तारे दूर हैं। दूसरे तारों के ग्रहों को देखना मुश्किल है। ये तारों की भाँति प्रकाशवान नहीं हैं।
5. शीर्षक-अंतरिक्ष लोक अधवा ग्रह और तारे।
6. ‘अप’ (अपवाद), ‘अ’ (अनियमितता)।
7. जो तारा हम देख सकते हैं उसकी दूरी पैरलैक्स विधि से नाप नहीं सकते और जिसकी दूरी हम नाप सकते हैं उसे देख नहीं सकते।
16. संस्कृति एक प्रकार की संस्कारात्मक परिणति है। संस्कृति का संबंध संस्कार से है। यहाँ संस्कार का अर्थ मनुष्य की मानसिक शिक्षा, परिक्कार और बुद्धिमत्ता से है जो सतत विकास की ओर अग्रसर रहती है। समुदायों, जातियों, संप्रदायों, मतों के बीच आपसी आदान-प्रदान से संस्कार और संस्कृति का निर्माण होता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो सतत् गतिशील है और जिसमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है।
भारतीय संस्कृति की मूल धारा एक रही है। इस धारा से जाति, धर्म, समुदाय, व्यक्ति समय-समय पर प्रभावित होते रहे हैं और इसे प्रभावित भी करते रहे हैं। भारतीय संस्कृति का प्रसार भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी हुआ है। इस संस्कृति ने बाहर से आने वाली परंपराओं और प्रवृत्तियों को भी आत्मसात् किया है। भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा किसी भी सांस्कृतिक धारा को छोटा नहीं समझती, न ही किसी धारा को नजरअंदाज कर आगे बढ़ जाती है। सत्य की खोज भारतीय संस्कृति का निरंतर चलने वाला प्रयास रहा है। सत्य की इस खोज में भारतीय संस्कृति सबको साथ लेकर चलती है। ग्रहण करना इस संस्कृति की विशेषता रही है।
प्रश्न :
1. संस्कृति के संदर्भ में संस्कार का क्या आशय है?
2. संस्कार और संस्कृति का निर्माण कैसे होता है?
3. भारतीय संस्कृति की धारा किस-किस से प्रभावित हुई है?
4. ग्रहण करना भारतीय संस्कृति की विशेषता कैसे है?
5. अन्य सांस्कृतिक धाराओं के प्रति भारतीय संस्कृति का क्या दृष्टिकोण है?
6. भारतीय संस्कृति का प्रसार कहाँ हुआ है?
7. उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
1. संस्कृति का संबंध संस्कार से है। संस्कार से आशय है-मनुष्य की शिक्षा. परिष्कार एवं बुद्धिमत्त।। इनका लगातार विकास होता रहता है।
2. समुदायों, जातियों, संप्रदायों, मतों के मध्य आपसी आदान-प्रदान से संस्कार और संस्कृति का निर्माण होता है।
3. भारतीय संस्कृति की धारा जाति, धर्म, समुदाय और व्यक्ति से प्रभावित होती रही है तथा इन्हें प्रभावित भी करती रही है।
4. ग्रहण करना भारतीय संस्कृति की विशेषता इस प्रकार है कि यह संस्कृति सबको साथ लेकर चलती है और उनकी अच्छी बातें ग्रहण करती रहती है।
5. भारतीय संस्कृति अन्य सांस्कृतिक धाराओं को न तो छोटा समझती है और न उन्हें नजरअंदाज करती है। यह उन्हें साथ लेकर चलती है।
6. भारतीय संस्कृति का प्रसार भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी हुआ है। इस संस्कृति ने बाहर से आने वाली परंपराओं और प्रवृत्तियों को भी आत्मसात् किया है।
7. भारतीय संस्कृति।
17. मानव जीवन में परतंत्रता सबसे बड़ा दु:ख है और स्वतंत्रता सबसे बड़ा सुख है। स्वावलंबी मनुष्य कभी परतंत्र नहीं होता, वह सदैव स्वतंत्र रहता है। दासता की श्रृंखलाओं से मुक्त आत्मनिर्भर मनुष्य कभी दूसरों का मुँह देखने वाला नहीं बनता। वह कठिन से कठिन कार्य को स्वयं करने की क्षमता रखता है। परमुखापेक्षी व्यक्ति न स्वयं उन्नति कर सकता है, न अपने देश और समाज का कल्याण कर सकता है। स्वावलंबन वह दैवी गुण है जिससे मनुष्य और पशु में भेद मालूम पड़ता है।
पशु का जीवन, उसका रहन-सहन, उसका भोजन सभी कुछ उसके स्वामी पर आधारित रहता है, परंतु मनुष्य जीवन स्वावलंबनपूर्ण जीवन है, वह पराश्रित नहीं रहता। अपने सुखमय जीवनयापन के लिए वह स्वयं सामग्री जुटाता है, अथक प्रयास करता है। बात-बात में वह दूसरों का सहारा नहीं ढूँढता, वह दूसरों का अनुगमन नहीं करता, अपितु दूसरे ही उसके आदर्शों पर चलकर अपना जीवन सफल बनाते हैं। जिस देश के नागरिक स्वावलंबी होते हैं, उस देश में कभी भुखमरी, बेरोज़गारी और निर्धनता नहीं होती, वह उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है।
कौन जानता था कि जापान में इतना भयानक नरसंहार और आर्थिक क्षति होने के बाद भी वह कुछ ही वर्षों में फिर हरा-भरा हो जाएगा और फलने-फूलने लगेगा, परंतु वहाँ की स्वावलंबी जनता ने यह सिद्ध कर दिया कि सफलता और समृद्धि परिश्रमी और स्वावलंबी व्यक्ति के चरण चूमा करती है। एक जापानी तत्वज्ञानी का कथन है कि “हमारी दस करोड़ उँगलियाँ सारे काम करती हैं, इन ही उँगलियों के बल से संभव है, हम जगत को जीत लें।” स्वावलंबन के अमूल्य महत्त्व को स्वीकार करते हुए उसके समक्ष कुबेर के कोष को भी विद्वान तुच्छ बना देते हैं।
स्वावलंबन से मनुष्य की उन्नति होती है और जीवन की सफलताएँ उस वीर का ही वरण करती हैं, जो स्वयं पृथ्वी खोदकर, पानी निकालकर अपनी तृष्णा शांत करने की क्षमता रखता है। कायर, भीरु, निरुद्योगी, अनुत्साही, अकर्मण्य और आलसी व्यक्ति स्वयं अपने हाथ-पैर न हिलाकर दैव और ईश्वर को, भाग्य और विधाता को जीवन भर दोष दिया करते हैं और रोना-झींकना ही उनका स्वभाव बन जाता है। पग-पग पर उन्हें भयानक विपत्तियों का सामना करना पड़ता है, असफलताएँ और अभाव उनके जीवन को जर्जर बना देते हैं। इस प्रकार उनका जीवन भार बन जाता है। उस भार को वहन करने क़ी क्षमता उन अकर्मण्य और अनुद्योगी व्यक्तियों के अशक्त कंधों में नहीं होती।
प्रश्न :
1. आत्मनिर्भर व्यक्ति किस प्रकार का होता है? वह अपने जीवन को सुखी कैसे बनाता है?
2. स्वावलंबन का श्रेष्ठ उदाहरण कहाँ और किस रूप में मिलता है?
3. किस प्रकार के व्यक्ति भाग्य और विधाता को दोष देते हैं तथा उनका स्वभाव कैसा बन जाता है?
4. क्रमशः उपसर्ग और प्रत्यय अलग कीजिए-दासता, पराश्रित।
5. अवतरण से ‘प्यास’ तथा ‘डरपोक’ शब्दों के समानार्थी शब्द छाँटिए।
6. विशेषण बनाइए-उन्नति, मानव।
7. उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
1. आत्मनिर्भर व्यक्ति दूसरों का मुँह देखने वाला नहीं होता है। वह कठिन से कठिन कार्य को स्वयं करने की क्षमता रखता है। वह स्वावलंबन का गुण अपना कर अपना जीवन सुखी बनाता है। वह अपने सुखमय जीवन के लिए स्वयं सामग्री जुटाता है।
2. स्वावलंबन का श्रेष्ठ उदाहरण हमें जापान देश के जीवन में प्राप्त होता है। जापान में एक समय में भयानक नरसंहार और आर्थिक क्षति हुई थी। इसके बाद भी वहाँ की स्वावलंबी जनता ने अपने देश को फिर से हरा-भरा बना दिया। वह देश सफलता और समृद्धि की राह पर अग्रसर हो गया।
3. कायर, भीरु, निरुद्योगी, अनुत्साही, अकर्मण्य और आलसी व्यक्ति स्वयं अपने हाथ-पैर न हिलाकर दैव और ईश्वर को, भाग्य और विधाता को जीवन भर दोष दिया करते हैं। रोना-झींकना ही उनका स्वभाव बन जाता है।
4. दासता-‘ ता’ प्रत्यय; पराश्रित-‘ पर’ उपसर्ग।
5. समानार्थी शब्द-प्यास-तुष्णा; डरपोक-भीरु।
6. विशेषण-उन्नति-उन्नतिशील; मानव-मानवीय।
7. शीर्षक-‘स्वावलंबन’।
18. भारतीय धर्मनीति के प्रणेता नैतिक मूल्यों के प्रति अधिक जागरूक थे। उनकी यह धारणा थी कि नैतिक मूल्यों का दृढ़ता से पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकतीं। उन्होंने उच्च कोटि की जीवन-प्रणाली के निर्माण के लिए वेद की एक ऋचा के आधार पर कहा कि उत्कृष्ट जीवन-प्रणाली मनुष्य की विवेक-बुद्धि से तभी निर्मित होनी संभव है, जब सब लोगों के संकल्प, निश्चय, अभिप्राय समान हों, सबके हृदय में समानता की भव्य भावना जागृत हो और सब लोग पारस्परिक सहयोग से मनोनुकूल सभी कार्य करें।
चरित्र-निर्माण की जो दिशा नीतिकारों ने निर्धारित की, वह आज भी अपने मूल रूप में मानव के लिए कल्याणकारी है। प्राय: यह देखा जाता है कि चरित्र और नैतिक मूल्यों की उपेक्षा वाणी, बाहु और उदर को संयत न रखने के कारण होती है। जो व्यक्ति इन तीनों पर नियंत्रण रखने में सफल हो जाता है; उसका चरित्र ऊँचा होता है। सभ्यता का विकास आदर्श चरित्र से ही सम्भव है। जिस समाज में चरित्रवान व्यक्तियों का बाहुल्य है, वह समाज सभ्य होता है और वही उन्नत कहा जाता है।
चरित्र मानव-समुदाय की अमूल्य निधि है। इसके अभाव में व्यक्ति पशुवत् व्यवहार करने लगता है। आहार, निद्रा, भय आदि की वृत्ति सभी जीवों में विद्यमान रहती है, यह आचार अर्थात् चरित्र की ही विशेषता है जो मनुष्य को पशु से अलग कर, उससे ऊँचा उठा मनुष्यत्व प्रदान करती है। सामाजिक अनुशासन बनाए रखने के लिए भी चरित्र-निर्माण की आवश्यकता है। सामाजिक अनुशासन की भावना व्यक्ति में तभी जागृत होती है जब वह मानव प्राणियों में ही नहीं, वरन् सभी जीवधारियों में अपनी आत्मा का दर्शन करता है।
प्रश्न :
1. हमारे धर्मनीतिकार नैतिक मूल्यों के प्रति विशेष जागरूक क्यों थे?
2. विवेक बुद्धि क्या है? यह कब निर्मित होती है?
3. सामाजिक अनुशासन से क्या तात्पर्य है? यह भावना व्यक्ति में कब जागृत होती है?
4. ‘उत्कृष्ट’ और ‘प्रगति’ शब्दों के विलोम लिखिए।
5. ‘आर्थिक’ और ‘मनुष्यत्व’ शब्दों में प्रत्यय बताइए।
6. ‘चरित्र’ और ‘निर्माण’ शब्दों से विशेषण बनाइए।
7. प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
1. हमारे धर्मनीतिकारों की यह धारणा थी कि नंतिक मूल्यों का दृढ़ता से पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकती। इसीलिए वे नैतिक मूल्यों के प्रति विशेष जागरूक थे।
2. विवेक बुद्धि उत्कृष्ट जीवन प्रणाली को निर्मित करती है। यह तभी निर्मित होती है जब सब लोगों के संकल्प, निश्चय, अभिप्राय समान हों, सबके ह्ददय में समानता की भव्य भावना जागृत हो और सब लोग पारस्परिक सहयोग से मनोनुकूल सभी कार्य करें।
3. सभ्य समाज के निर्माण और विकास के लिए अपनी भूमिका के अनुसार कार्य व्यवहार करना ही सामाजिक अनुशासन है। यह व्यक्ति में तभी जागृत होती है जब वह मानव प्राणियों में ही नहीं, वरन् सभी जीवधारियों में अपनी आत्मा का दर्शन करता है।
4. विलोम शब्द : उत्कृष्ट – निकृष्ट प्रगति – विनाश
5. प्रत्यय : आर्थिक – इक मनुष्य – त्व
6. विशेषण : चरित्र – चरित्रवान निर्माण – निर्मित
7. ‘चरित्र-एक अमूल्य निधि’ उपयुक्त शीर्षक है।
19. जीवन की सरसता इस बात पर अवलम्बित है कि सहजता और स्वाभाविकता को अपनाये रखा जाये। विचारों एवं भावनाओं को अभिव्यक्त करने का अवसर यथासंभव मिलता रहे। उन्हें इस ढंग से पोषण मिलता रहे जिससे उनकी क्षमता सत्त्रयोजनों में नियोजित हो सके। मन:शास्त्री मानवीय विकास प्रक्रिया से उपर्युक्त सत्य को असाधारण महत्त्व देते हुए कहने लगे हैं कि मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन की बढ़ती समस्याओं का एक सबसे प्रमुख कारण है-उसका ‘रिजर्व नेचर’। मानवीय स्वभाव में यह विकृति तेजी से बढ़ रही है। यही कारण है कि संसार में मनोरोगियों का बाहुल्य होता जा रहा है तथा कितने ही प्रकार के नये रोग पनप रहे हैं। नदियों के पानी को बाँधकर रोक दिया जाए तो वह महाविप्लव खड़ा करेगा। रास्ता न पाने से फूट-फूट कर निकलेगा तथा अपने समीपवर्ती क्षेत्रों को ले डूबेगा।
भावनाओं को दबा दिया जाये तो वे मानवीय व्यक्तित्व में एक अदृश्य कुछराम खड़ा करेंगे, जो नेत्रों को दिखाई तो नहीं पड़ता पर मानसिक असंतुलन के रूप में उसकी प्रतिक्रियाएँ सामने आती हैं। अपना आपा खण्डित होता प्रतीत होता है। दिशा दे देने पर नदियों के पानी से विभिन्न कार्य किए जाते हैं। बिजली उत्पादन से लेकर सिंचाई आदि का प्रयोजन पूरा होता है। भावों एवं विचारों को दिशा दी जा सके तो उनसे अनेक प्रकार के रचनात्मक काम हो सकते हैं। कला, साहित्य, कविता, विज्ञान के आविष्कार इन्हीं के गर्भ में पकते तथा प्रकट होते हैं। भावनाओं एवं विचारों में से कुछ होते हैं जिनकी अभिव्यक्ति हानिकारक है पर उन्हें दबाव से तनाव की स्थिति आती है। इससे बचाव का तरीका यह है कि भावनाओं को दूसरे रूप में अभिक्यक्त होने दिया जाए।
प्रश्न :
1. मन:शास्त्री मनुष्य की व्यक्तिगत समस्याओं का कारण किसे मानते हैं?
2. जीवन की सरसता का क्या आधार है?
3. भावनाओं को दबाने का क्या परिणाम होता है तथा भावों और विचारों को दिशा कैसे दी जा सकती है?
4. ‘साधारण’ एवं ‘संतुलन’ शब्दों के विलोम शब्द लिखिए।
5. ‘अभिव्यक्ति’ एवं ‘स्वाभाविकता’ शब्दों में क्रमशः उपसर्ग एवं प्रत्यय अलग कीजिए।
6. अवतरण से ‘आधारित’ एवं ‘शक्ति’ शब्दों के समानार्थी शब्द छॉंटिए।
7. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
1. मन:शास्त्री मनुष्य की व्यक्तिगत समस्याओं का कारण व्यक्ति के ‘रिजर्व नेचर’ को मानते हैं। यह उसकी मानवीय विकास प्रक्रिया से जुड़ा सत्य है।
2. सहजता और स्वाभाविकता को अपनाने की स्थिति ही जीवन की सरसता का आधार है।
3. भावनाओं को दबाने से मानवीय व्यक्तित्व में एक अदृश्य कुहराम खड़ा हो जाता है। यह स्पष्ट दिखाई नहीं देता बल्कि मानसिक असंतुलन के रूप में प्रतिक्रिया करता है।
4. विलोम : साधारण – असाधारण संतुलन – असंतुलन
5. उपसर्ग एवं प्रत्यय : अभिव्यक्ति – अभि (उपसर्ग) स्वाभाविकता – इक, ता (प्रत्यय)
6. समानार्थी शब्द : आधारित – अवलम्बित शक्ति – क्षमता
7. उपयुक्त शीर्षक : मानसिक विकास प्रक्रिया
20. व्यक्ति, चाहे वह शहर में रहता हो या गाँव में, महल में रहता हो या झोपड़ी में, बहुमंजिली इमारत के फ्लैट में रहता हो या स्वतंत्र बंगले में, वह किसी न किसी का पड़ोसी अवश्य है। बिना पास-पड़ोस के मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। एक समय था जब एक ही गाँव, शहर अथवा गली-मुहल्ले में रहने वालों के बीच इतनी घनिष्ठता थी कि वे एक दूसरे के यहाँ बाहर से आए लोगों को उनके गंतव्य तक पहुँचा देते थे अथवा उनका पता बता देते थे। क्योंकि वे मिलनसार थे, उनके बीच अपनापन था. वे एक दूसरे के सुख-दुख में सहभागी होते थे। लेकिन आज परिदृश्य पूरी तरह बदला हुआ है। एक ही इमारत में रहने वाले यह नहीं जानते कि पास वाले फ्लैट में कौन रहता है? तो गली-मोहल्लों में रहने वालों से जान-पहचान होने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। वे रहते तो पास-पास हैं, लेकिन अजनबियों की तरह। क्या इसी का नाम पड़ोस है?
आज व्यस्त और भागमभाग भरे शहरी और महानगरीय जीवन में व्यक्ति अपने पास रहने वाले तक को नहीं पहचानता। आखिर पास रहकर भी यह दूरी क्यों? आज महानगरों में रहने वाले लोग अपने आप में मस्त रहते हैं। उनका अपना एक अलग ‘सोशल सर्कल’ होता है, उसी में उनकी बैठक है, आना-जाना है। उनकी दुनिया वहीं तक सीमित है। उन्हें अपने आस-पास की दुनिया से कोई सरोकार नहीं। आस-पड़ोस में अथवा अपने बहुमंजिले भवन में कौन रहता है? कौन नया व्यक्ति रहने आया है? और कौन छोड़कर चला गया है इससे किसी को कोई मतलब नहीं।
प्रश्न :
1. आज का महानगरीय जीवन कैसा है?
2. व्यस्तता का शहरी जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा?
3. पुराना समय कैसा था?
4. आज के महानगरीय लोग कैसे हैं?
5. किसके बिना मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं कर सकता?
6. गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखें।
7. किस के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती?
उत्तर-
1. आज का महानगरीय जीवन अकेलेपन से भरा हुआ है। एक ही इमारत में रहने वाले यह नहीं जानते कि पास के फ्लैट में कौन रहता है? पास-पास रहने के बाद भी अजनबियों की तरह रहते हैं। लोग अपने आप में मस्त रहते हैं उनकी दुनिया उनके हिसाब से सीमित रहती है।
2. व्यस्तता का शहरी जीवन पर यह प्रभाव पड़ा है कि व्यक्ति अपने पास रहने वाले तक को नहीं पहचानता है जबकि पहले आस-पास के लोगों से घनिष्ठ रूप में जुड़ा रहा था।
3. पुराने समय में एक ही गाँव, शहर अथवा गली-मुहल्ले में रहने वालों के बीच इतनी घनिष्ठता थी कि वे एक दूसरे के यहाँ बाहर से आए लोगों को उनके गंतक्य तक पहुँचा देते थे अथवा उनका पता बता देते थे।
4. आज के महातगरीय लोग अपने आप में मस्त रहते हैं। उनका अपना एक अलग ‘सोशल सर्कल’ है, उसी में उनकी बैठक है, आना-जाना है। उनकी दुनिया वहीं तक सीमित है।
5. अपने पास-पड़ोस के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं कर सकता।
6. आज का महानगरीय जीवन।
7. बिना पास-पड़ोस के मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है।
21. विद्वान नम्रता को स्वतंत्रता की जननी मानते हैं। साधारण लोग भ्रमवश अंकार को उसकी माता मानते हैं। वास्तव में वह विमाता है। आत्म संस्कार हेतु स्वतंत्रता आवश्यक है। मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए आत्मनिर्भरता जरूरी है। आत्ममर्यादा हेतु आवश्यक है कि हम बड़ों से सम्मानपूर्वक, छोटों और बराबर वालों के साथ कोमलता का व्यवहार करें। युवाओं को याद करना चाहिए कि उनका ज्ञान कम है। वे अपने लक्ष्य से पीछे हैं तथा उनकी आकांक्षाएँ उनकी योग्यता से कम हैं। हम और जो कुछ भी हमारा है, सब हमसे नम्र रहने की आशा करते हैं।
नम्रता का अर्थ दूसरों का मुँह ताकना नहीं है। इससे तो प्रज्ञा मंद पड़ जाती है। संकल्प क्षीण होता है विकास रूक जाता है तथा निर्णय क्षमता नहीं आती। मनुष्य को अपना भाग्य विधाता स्वयं होना चाहिए। अपने फैसले तुम्हें स्वयं ही करने होंगे। विश्वासपात्र मित्र भी तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं ले सकता। हमें अनुभवी लोगों के अनुभवों से लाभ उठाना चाहिए, लेकिन हमारे निर्णयों तथा हमारे विचारों से ही हमारी रक्षा व पतन होगा। हमें नजरें तो नीचे रखनी हैं लेकिन रास्ता भी देखना है। हमारा व्यवहार कोमल तथा लक्ष्य उच्च होना चाहिए।
संसार में हरिश्चंद्र और महाराणा प्रताप जैसे अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने आजीवन कष्ट उठाए लेकिन सत्य और मर्यादा नहीं छोड़ी। हरिश्चंद्र की प्रतिज्ञा थी-
“चन्द्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार।
पै दुढ़ श्री हरिश्चन्द्र को, टरै न सत्य विचार॥”
महाराणा प्रताप की स्त्री और बच्चे भूख से तड़पते आजीवन जंगलों में भटकते रहे लेकिन स्वतंत्रता नहीं छोड़ी। इसी वृत्ति के बल पर मनुष्य परिश्रम करता है, गरीबी को झेलता है ताकि उसे थोड़ा ज्ञान मिल सके। इसी चित्त-वृत्ति के प्रभाव से हम प्रलोभनों व कुमंत्रणाओं पर विजय प्राप्त करते हैं तथा चरित्रवान लोगों से प्रेम करते हैं। इन वृत्ति के प्रभाव से युवा पुरुष शांत और सच्चे रह सकते हैं, मर्यादा नहीं खोते तथा बुराई में नहीं पड़ते।
इसी चित्त-वृत्ति के कारण बड़े-बड़े लोग महान् कार्य करके यह सिद्ध कर सके कि कोई भी अड़चन “बस यहीं तक, और आगे न बढ़ा” हों रोक नहीं सकती। इसी के प्रभाव से दरिद्र तथा अनपढ़ लोगों ने उन्नति तथा समृद्धि प्राप्त की है। “मैं राह देखूँगा या राह निकालूँग” की कहावत इसी का परिणाम है। इसी वृत्ति की उत्तेजना से शिवाजी मुगलों को छका सके और एकलव्य एक बड़ा धनुर्धर बन सका। इसी वृत्ति से मनुष्य महान बनता है, जीवन सार्थक और उद्देश्यपूर्ण बनता है तथा उत्तम संस्कार आते हैं। वही मनुष्य कर्म क्षेत्र में श्रेष्ठ और उत्तम रहते हैं जिनमें बुद्धि, चतुराई तथा दृढ़ निश्चय है वे ही दूसरों को भी श्रेष्ठ बनाते हैं।
प्रश्न :
1. स्वतंत्रता की जननी कौन है? स्वतंत्रता क्यों आवश्यक है?
2. युवाओं के लिए क्या याद रखना आवश्यक है?
3. मनुष्य को कैसा होना चाहिए?
4. हरिश्चंद्र और महाराणा प्रताप के उदाहरणों से हमें क्या शिक्षा मिलती है?
5. ‘नम्रता’ और ‘सार्थक’ का विलोम लिखिए।
6. ‘आत्मनिर्भरता’ और ‘अनपढ़’ से प्रत्यय-उपसर्ग अलग करें।
7. नम्रता का अर्थ क्या है? इसकी व्याख्या करें।
उत्तर :
1. विद्वान लोग नम्रता को स्वतंत्रता की जननी मानते हैं जबकि सामान्य लोग भ्रम के कारण अहंकार को उसकी माता मान बैठते हैं। वास्तव में यह सौतेली माँ है जो संतान का नाश कर देती है।
2. युवाओं को यह याद रखना आवश्यक है कि उनका ज्ञान बहुत कम है। वे अपने लक्ष्य से बहुत पीछे हैं। उनकी आकांक्षाएँ उनकी योग्यताओं से कम हैं। उन्हें आत्मनिर्भर बनना होगा।
3. मनुष्य को अपना भाग्य स्वयं बनाना चाहिए। उसे अपने फैसले स्वयं करने होंगे। उन्हें अपनी जिम्मेदारी स्वयं उठानी होगी। उन्हें अन्य अनुभवी लोगों के अनुभवों का लाभ उठाना चाहिए।
4. हरिश्चंद्र और महाराणा प्रताप के उदाहरणों से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें भी उनके समान आत्मसम्मानी और आत्मनिर्भर बनना चाहिए। हमें सत्य और मर्यादा को कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
5. विलोम : नभ्रता – कठोरता; सार्थक – निरर्थक
6. ‘आत्मनिर्भरता’-‘ ता’ (प्रत्यय), अनपढ़-‘अन’ (उपसर्ग)।
7. नम्रता का अर्थ दूसरों का मुँह ताकना नहीं है। इससे तो प्रज्ञा मंद पड़ जiती है। संकल्प क्षीण होता है विकास रुक जाता है तथा निर्णय क्षमता नहीं आती। मनुष्य को अपना भाग्य विधाता स्वयं होना चाहिए।
22. चेरापूँजी समुद्र की सतह से कोई 1300 मीटर की ऊँचाई पर है, जो विश्व में अत्यधिक वर्षा वाले स्थान के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ वर्षा, धूप और कोहरे की लुका-छिपी का खेल चलता रहता है। प्रपात को देखते रहने का मन करता है। यहाँ अभी ‘टूरिस्ट प्रमोटर’ नहीं हैं। अतः यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट नहीं हो पाया है। यहाँ खासियों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। खासी पर्वतमालाओं के लोग शेष भारतीयों जैसे ही हैं। यहाँ, उनके नाक-नक्श, वेशभूषा तथा बोली में अंतर अवश्य है। नोगक्रेम खासियों का प्रमुख नृत्य है। यह एक समूह-नृत्य है। इसे धार्मिक उत्सव पर किया जाता है। इसके माध्यम से ईश्वर से शांति और सम्पन्नता की कामना की जाती है। जयंतिया पहाड़ियों के नृत्य का नाम है-बेहडेनखलाम। बांग्ला नृत्य भी पुरुष-स्त्रियों का सामूहिक नृत्य है जो वाद्यों के साथ समाँ बाँध देता है।
यह पर्वतीय अंचल तीन भागों में बँटा हुआ है : 1. मेघालय-खासी पर्वत, 2. गारो पर्वत, 3. जयंतिया पर्वत। ये अंचल पाँच जिलों में विभक्त है : 1. पूर्वी खासी पर्वत जिला, 2. पश्चिमी खासी पर्वत जिला, 3. पूर्वी गारो पर्वत जिला, 4. पश्चिमी गारो पर्वत जिला, 5. जयंतिया पर्वत जिला। हर अंचल की अपनी संस्कृति है, रीति-रिवाज और पर्व-उत्सव हैं। यहाँ हर कहीं पारिवारिक व्यवस्था मातृसत्तात्मक है। भूमि, धन, संपत्ति-सब माँ से बेटी को मिलती है।
मातृसत्तात्मक व्यवस्था होने के कारण यहाँ नारी-शोषण जैसी घटनाएँ नहीं होतीं। यहाँ की दुकानों पर स्त्रियाँ सौदा बेचती हैं। मणिपुर में तो स्त्रियों का एक पूरा का पूरा बाजार ही है, जिसे ‘माइतीबाजार’ कहते हैं-यानी माँ का बाजार। स्त्रियाँ टोकरों में सब्जी, कपड़ा और अन्य सामान लेकर यहाँ आ पहुँचती हैं और शाम को अपने घर लौट पड़ती हैं। लेखक को इम्फाल में एक महिला मिली जो लखनऊ की रहने वाली थी और इम्फाल में बहू बनकर आई थी। जब उसकी सास ‘माइती बाजार’ में सामान बेचने जाती तो वह रोक देती। पति ने उसे समझाया-” इसके पीछे कोई आर्धिक मजबूरी नहीं, माइती बाजार हमारी समाज-व्यवस्था का, हमारी संस्कृति का सदियों पुराना अंग है। माँ को वहाँ जाने दो, उसे रोको नहीं।”
प्रश्न :
1. इस गद्यांश में किस स्थान का वर्णन है? वह कहाँ स्थित है तथा यहाँ का मौसम कैसा रहता है?
2. यहाँ के नृत्यों के बारे में क्या बताया गया है?
3. यहाँ का पर्वतीय अंचल किन-किन भागों में बँटा हुआ है?
4. यहाँ की पारिवारिक व्यवस्था की क्या विशेषता है?
5. ‘माइती बाजार’ से क्या तात्पर्य है?
6. गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
7. लेखक को इम्फाल में कौन मिली और वह कहाँ की रहने वाली थी?
उत्तर :
1. इस गद्यांश में चेरापूँजी का वर्णन है। यह स्थान समुद्र की सतह से कोई 1300 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यह स्थान विश्व में अत्यधिक वर्षा के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ वर्षा, धूप और कोहरे की लुका-छिपी चलती रहती है।
2. यहाँ पर कई प्रकार के नृत्य प्रचलित हैं। नोंगेक्रेम खासियों का प्रमुख नृत्य है। यह एक समूह-नृत्य है और धार्मिक उत्सव पर किया जाता है। बेहडेनखलाम जर्यतिया पहाड़ियों का नृत्य है। यहाँ बांग्ला नृत्य भी प्रचलित है जिसे स्त्री-पुरुष सामूहिक रूप से करते हैं।
3. यहाँ का पर्वतीय अंचल तीन भागों में बँटा हुआ हैं-1. खासी पर्वत (मेघालय), 2. गारो पर्वत, 3. जयंतिया पर्वत। ये तीनों अंचल पाँच जिलों में विभक्त हैं-पूर्वी खासी पर्वत, पश्चिमी खासी पर्वत, पूर्वी गारो पर्वत, पश्चिमी गारो पर्वत और जयंतिया पर्वत। प्रत्येक अंचल की अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज एवं पर्व-उत्सव हैं।
4. यहाँ की पारिवारिक व्यवस्था मातृसत्तात्मक है अर्थात् यहाँ पिता के स्थान पर माँ को अधिक महत्त्व दिया जाता है। यहाँ भूमि, संपत्ति, धन सब माँ से बेटी को मिलता है। मातृसत्तात्मक व्यवस्था होने के कारण यहाँ नारी शोषण जैसी घटनाएँ नहीं होतीं।
5. ‘माइती बाजार’ से तात्पर्य है-माँ का बाजार। इस बाजार में स्त्रियाँ ही सौदा बेचती हैं।
6. शीर्षक-चेरापूँजी का जन-जीवन।
7. लेखक को इम्फाल में एक महिला मिली जो लखनऊ की रहने वाली थी और इम्फाल में बहू बनकर आई थी।
23. कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ देखने की आदत होती है। उन्हें हर अधिकारी भ्रष्ट, हर नेता बिका हुआ और हर आदमी चोर दिखाई पड़ता है। लोगों की ऐसी मन स्थिति बनाने में मीडिया का भी हाथ है। माना कि बुराइयों को उजागर करना मीडिया का दायित्व है। पर उसे सनसनी खेज बनाकर 24 × 7 चैनलों पर बराबर प्रसारित कर उनको दर्शक संख्या (टी.पी.आर.) बढ़ती हो, आम आदमी इससे शंकालु हो जाता है और यह सामान्यीकरण कर डालता है कि सभी ऐसे हैं। आज भी सत्य और ईमानदारी का अस्तित्व है। ऐसे अधिकारी हैं जो अपने सिद्धांतों को रोटी-रोजी से बड़ा मानते हैं।
ऐसे नेता भी हैं, जो अपने हित की अपेक्षा जनहित को महत्त्व देते हैं। वे मीडिया के आकांक्षी नहीं हैं। उन्हें कोई ईनाम या प्रशंसा के सर्टीफिकेट नहीं चाहिए, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे कोई विशेष बात नहीं कर रहे, बस कर्त्तव्य का पालनकर रहे हैं। ऐसे कर्त्तव्यनिष्ठ नागरिकों से समाज बहुत कुछ सीखता है। आज विश्व में भारतीय बेईमान या भ्रष्टाचार के लिए कम अपनी निष्ठा, लगन और बुद्धि-पराक्रम के लिए अधिक जाने जाते हैं। विश्व में अग्रणी माने जाने वाले देश का राष्ट्रपति बार-बार कहता सुना जाता है कि हम भारतीयों जैसे क्यों नहीं बन सकते और हम हैं कि अपने को ही कोसने पर तुले हैं। यदि यह सच है कि नागरिकों के चरित्र से समाज और देश का चरित्र बनता है, तो क्यों न हम अपनी सोच को सकारात्मक और चरित्र को बेदाग बनाए रखने की आदत डालें।
प्रश्न :
1. लेखक ने क्यों कहा है कि कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ ही देखने की आदत होती है ?
2. लोगों की सोच को बदलने में मीडिया की क्या भूमिका है ?
3. अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए कुछ चैनल क्या करते हैं ?
4. मीडिया की सनसनी खेज खबरों का आम नागरिक पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
5. किसी सम्पन्न देश के राष्ट्रपति का अपने नागरिकों को भारतीय जैसा बनने के लिए कहना क्या सिद्ध करता है ?
6. गद्यांश के अनुसार हमें कैसी आदत डालनी चाहिए ?
उत्तर :
1. लेखक ने ऐसा इसलिए कहा है कि उन लोगों की सोच ही नकारात्मक होती है। उन्हें अच्छे और ईमानदार लोग दिखाई ही नहीं देते। उन्हें तो हर नेता और हर अधिकारी भ्रष्ट ही दिखाई देता है।
2. लोगों की सोच को बनाने में मीडिया की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मीडिया ही जनमत बनाता है। मीडिया सामान्य खबरों को भी सनसनी खेज बनाकर इसलिए प्रस्तुत करता रहता है क्योंकि इससे उसकी टी.आर.पी. बढ़ती है। मीडिया लोगों के मन में यह बिठा देता है कि नेता और अधिकारी भ्रष्ट होते हैं। इसे देख-सुनकर दर्शक शंकालु हो जाता है।
3. अपनी टी.आर. पी. बढ़ाने के लिए कुछ चैनल सामान्य खबरों को भी सनसनी बनाकर प्रस्तुत करते हैं और उन खबरों को बार-बार दिखाते रहते हैं ताकि अधिक से अधिक लोग देख सुन सकें।
4. मीडिया की सनसनीखेज खबरों का नागरिकों पर तुरंत प्रभाव पड़ता है। मीडिया की खबरों को देख-सुनकर आम नागरिक भ्रमित और शंकालु हो जाता हैं नागरिक सभी का सामान्यीकरण कर लेते हैं कि नेता और अधिकारी भ्रष्ट हैं।
5. किसी संपन्न देश के राष्ट्रपति का अपने नागरिकों से भारतीयों जैसा बनने को कहना यह सिद्ध करता है कि भारतीय अभी भी श्रेष्ठ हैं। विश्व में उनका सम्मान है।
(ivi) हमें अपनी सोच को सकारात्मक और चरित्र को बेदाग बनाने की आदत डालनी चाहिए।
24. इस दुनिया में शक्तिहीन होना बहुत बड़ा अभिशाप है। कायर, कमजोर, दब्ूू व असहाय व्यक्ति के साथ शोषण और अन्याय होता हैं उसकी कमजोरियों का नाजायज फायदा उठाकर लोग अपने स्वार्थों को पूरा करते हैं। “पेस्कल” के अनुसार शक्ति संसार पर शासन करती है। प्रत्येक आदमी शक्तिशाली हैं। फिर भी कुछ लोग यह शिकायत करते हैं कि हम में शक्ति नहीं है। वे अपने आपको अक्षम, अशक्त, कमजोर व दुर्बल अनुभव करते हैं। शक्ति के होने पर भी इतनी अशक्ति की बात अजीब ही कही जाएगी।
जो लोग ख्रुद को कमजोर, लाचार महसूस करते हैं उसकी केवल यही वजह है कि वे अपनी शक्ति से परिचित नहीं हैं और अपनी शक्ति का उपयोग करना नहीं जानते। इसलिए शक्ति सम्पन्न होते हुए भी अपने आप को दुर्बल अनुभव करते हैं। जो आदमी अपने भीतर गहराई से नहीं देखता, वह अपनी शक्ति से परिचित नहीं होता। ऐसे व्यक्ति आत्मा का अपं भी नहीं उठा पाते। शक्ति का अनुभव व शक्ति का उपयोग करना अध्यात्मिक के द्वारा संभव हो सकता है। आत्मा का आनंद ही मान की शक्ति का परिचायक है। जिसे अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं होता, जो अपनी शक्ति को नहीं जानता, उसकी सहायता भगवान भी नहीं कर सकता।
प्रत्येक व्यक्ति में शक्ति के दो रूप होते हैं-ध्वंसात्मक और सृजनात्मक। किसी व्यक्ति के जीवन में जितनी कामनाएँ होंगी उतनी ही ध्वंसात्मक शक्ति बढ़ेगी। जितना निष्काम भाव बढ़ेगा उतनी ही सृजनात्मक शक्ति में वृद्धि होगी। जागा हुआ व्यक्ति अपनी ऊर्जा को, अपनी शक्ति को गलत दिशा में नहीं बहने देगा और न ही अपव्यय होने देगा। अतः अपनी शक्ति को, अपनी क्षमताओं को कभी नकारें नहीं। अपने आपको जगाएँ व शक्तियों का सदुपयोग कर अपने जीवन व समाज को सुंदर बनाएँ।
प्रश्न :
1. इस गद्यांश में क्या प्रेरणा दी गई है ?
2. शक्ति के दो रूपों के नामों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट करें कि ध्वंसात्मक शक्ति का विकास किन परिस्थितियों में संभव है ?
3. शक्ति पर भरोसा न रखने वालों की क्या स्थिति हो जाती है ?
4. ‘शक्तिहीन होना बहुत बड़ा अभिशाप है।’ कैसे ?
5. जीवन में शक्तिशाली बनने के लिए क्या जरूरी है ?
6. जीवन में कमजोर होने का क्या कारण हैं ?
उत्तर :
1. इस गद्यांश में यह प्रेरणा दी गई है कि शक्तिशाली बनो, अपनी शक्ति को पहचानो। स्वयं को कभी भी कायर, कमजोर, दब्बू और असहाय नहीं समझना चाहिए।
2. शक्ति के दो रूप ये हैं-1. ध्वंसात्मक, 2. सुजनात्मक। ध्वंसात्मक शक्ति का विकास उन परिस्थितियों में संभव है जब व्यक्ति के जीवन में कामनाएँ बढ़ने लगती हैं। जितनी कामनाएँ बढ़ेंगी उतनी ध्वंसात्मक शक्ति भी बढ़ेगी।
3. शक्ति पर भरोसा न रखने वालों की यह स्थिति हो जाती है कि वे स्वयं को दुर्बल अनुभव करने लगते हैं। वे तो अपनी आत्मा का आनंद तक नहीं उठा पाते।
4. शक्तिहीन होना बहुत बड़ा अभिशाप है। शक्तिहीन व्यक्ति किसी भी काम से सफलता प्राप्त नहीं कर पाता। उसे तो अपनी क्षमता पर भी भरोसा नहीं रहता। वह केवल भगवान् भरोसे रहता है।
5. जीवन में शक्तिशाली बनने के लिए हय जरूरी है कि हम अपनी ऊर्जा और शक्ति को सही दिशा में लगाएँ। हमें अपनी क्षमताओं को नकारना नहीं चाहिए। हम अपने आपको जगाएँ तथा शक्तियों का सदुपयोग करें।
6. जीवन में कमजोर होने का कारण यह है कि हम अपनी ही शक्ति से अपरिचित रहते हैं। हम अपनी शक्ति का सही उपयोग तक नहीं जानते।